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मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 34

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 34 जिस प्रकार स्वप्न-काल में स्वप्न-दृष्टा व्यक्ति स्वप्न को सत्य मानता है , परन्तु जागृत दशा की पुनर्स्थापना पर वह स्वप्न-दृष्टा स्वयँ स्वप्न को मिथ्या बताता है । उसी प्रकार इस जगत् के साथ व्यवहार-रत् जागृत-दशा का व्यक्ति भी , अपने सत्य-स्वरूप अर्थात् अपने आत्म-स्वरूप को जानने के बाद इस जागृत-दशा के व्यव्हार्य जगत् को भी मिथ्या बताता है । इस स्थल पर दो विशिष्ट ज्ञेय का सज्ञान लेना अनिवार्य है । पहला सत्य क्या है और मिथ्या क्या है ? दूसरा यह स्वप्न-दशा , जागृत-दशा , और सुशुप्त-दशायें क्या हैं ? उत्तर है सत्य वह कहा जाता है जो त्रिकाल सत्य है , और मिथ्या उसे कहा जाता है जो अपेक्षा-कृत निम्नस्तरीय सत्य है , जैसे व्यक्ति सत्य है तो उसकी छाया मिथ्या है । दूसरा स्वप्न-दशा , जागृत-दशा , सुशुप्ति-दशा यह तीनो मस्तिष्क की तीन अवस्थायें हैं इनका चैतन्य से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं होता है । मुख्य विषय में वापस लौटते हुये , इस जगत् को स्वप्नवद् मिथ्या जानने के उपरान्त स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि सत्य-स्वरूप जिसे आत्म-स्वरूप बताया जाता है वह क्...

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 33

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 3 3 श्रुतियाँ , ईश्वर को , जगत् का कारण होने का उपदेश करती हैं । श्रुतियाँ उपदेश करती हैं कि ब्रम्ह कार्य-कारण-विलक्षण है । उपरोक्त दोनो उपदेश विदित रूप में एक दूसरे के विपरीत भावों को प्रशस्थ करने वाले प्रतीत होते हैं । व्याख्याकार आत्मज्ञानी आचार्य विद्वान आदि-शंकर उपरोक्त विरोधाभास की व्याख्या करते हुये बताते हैं कि उपरोक्त दोनो उपदेश केवल एक परिस्थिति में सत्य हो सकते है कि उपरोक्त दो में से एक सत्य है और दूसरा भ्रान्ति है । यह व्याख्या भी अति गम्भीरता से समझने की आवश्यकता है । क्या श्रुतियाँ भ्रान्ति का उपदेश कर सकती हैं ? उत्तर होगा कदापि नहीं । फिर विद्वान आचार्य की व्याख्या क्या व्यक्त कर रही है ? उत्तर है कि ईश्वर का जगत् का कारण स्वरूप मात्र भ्रान्ति है , वह सत्य निरूपण नहीं है । यह भ्रान्ति कैसे सम्भव होती है ? उत्तर है माया के अद्भुद लीला का फल है कि ईश्वर जगत् का कारण प्रतीत होता है । वास्तविकता में ईश्वर जगत् का कारण न ही है और न ही हो सकता है । सत्य उपदेश जिसे श्रुतियाँ ग्राह्य करना चाहती हैं , वह है , कि यह जगत् मात्...

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 32

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 3 2 ईश्वर ही जगत् का उपादान कारण भी है और ईश्वर ही जगत् का निमित्त कारण भी है । जिस प्रकार समस्त स्वर्ण आभूषणों का स्वर्ण उपादान कारण है । समस्त मृद पात्रों का मृद उपादान कारण है । उसी प्राकार समस्त जगत् का ईश्वर उपादान कारण है । जिस प्रकार समस्त स्वर्ण आभूषणों का स्वर्णकार निमित्त कारण है । समस्त मृद पात्रों का कुम्हार नि मित्त कारण है । उसी प्रकार ईश्वर समस्त जगत् का निमित्त कारण है । उपरोक्त अभिव्यक्ति श्रुति उपदेश है । उपरोक्त अभिव्यक्ति शास्त्र निर्देश हैं । उपरोक्त अभिव्यक्ति को ही पुराणों में व्यक्त करते हुये नारायण को कण कण में व्याप्त बताया गया है । व्यवहार्य जगत् में ईश्वर प्रत्येक नाम-रूप में व्याप्त है । व्यवहार्य जगत् में ईश्वर कण कण में उपलब्ध है । यदि कोई कंचिद ईश्वर का दर्शन करना चाहता है , तो उसे कहीं विस्तृत शोध की आवश्यकता नहीं है , ईश्वर प्रत्येक जीव के हृदय में वास करता है , मात्र उसे अपने अन्त:करण में उस ईश्वर को देखने की मानसिक शक्ति अर्जित करने की अपेक्षा है ।   ...........क्रमश:  

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 31

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 3 1 ईश्वर के मन में जब सृष्टि का संकल्प सृजित हुआ तो उस अवसर पर वह अकेले थे और उनकी माया शक्ति के भण्डार में थे समस्त जगत् का अव्यक्त सारांश-रूप और साथ में था पूर्व सृष्टि के जीवों के संचित कर्मों का भण्डार और इनसे ही समस्त सृष्टि प्रक्रिया का शुभारम्भ होना है । पहले भोज्य जगत् की उत्पत्ति प्रक्रिया द्वारा , माया को जीवों के संचित कर्मों के फल-भोग के लिये , उसे समुचित भोज्य जगत् को प्रस्तुत करना है । इस प्रकार चाहे सृष्टि से प्रारम्भ करके व्यष्टि जीव पर्यन्त का विचार किया जाय अथवा उपरोक्त के विलोम व्यष्टि जीव के स्वतन्त्र चयन के अधिकार से प्रारम्भ करके समष्टि का विचार किया जाय , दोनो ही रूपों में एक ही निष्कर्श आहरित होता है , वह निष्कर्श है कि व्यष्टि सदैव समष्टि का सूक्ष्म अंश है । माया की कोई भी व्यवस्था अथवा न्याय सदैव समष्टि को नियन्त्रित करता है , और व्यष्टि उपरोक्त समष्टि के नियन्त्रण से स्वत: नियन्त्रित हो जाता है । व्यष्टि जीव पूर्व के संचित कर्मों के फल-भोग के लिये अपने वर्तमान व्यष्टि-रूप में होता है । परन्तु उपरोक्त कथित स...

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 30

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 3 0 व्यष्टि स्थूल-शरीर के प्रत्येक अंग के लिये एक देवता को बताया जाता है । जिसका अभिप्राय होता है , व्यष्टि के उस अंग के लिये , समष्टि का शासक सिद्धान्त , वह देवता एक प्रतिनिधि रूप है । यथा , व्यष्टि की चक्क्षु ज्ञानेन्द्रिय है , और उसके समष्टि का प्रतिनिधित्व करने वाले देवता सूर्य हैं । छान्दोग्य उपनिषद में सप्तां ग विराट देवता का वर्णन दिया गया है । उस सप्तांग विराट देवता की चक्क्षु के रूप में सूर्य को बताया गया है । उपरोक्त अभिव्यक्ति सूचक है कि प्रत्येक व्यष्टि जीव को विचार करना चाहिये कि वह समष्टि का अंग मात्र है । प्रत्येक व्यष्टि समष्टि का एक प्रतिनिधि है । कंचिद यदि व्यक्ति को उपरोक्त कथित दृष्टिकोण ग्राह्य हो जाय तो , ऐसी दशा में उसे अहंकार का मिथ्यात्व स्वत: स्पष्ट हो जा सकता है । अहंकार की शास्त्र सदैव निन्दा करते हैं । सत्य स्थिति यही है कि किसी भी व्यक्ति के विचार में , उसका अहंकार ही उसका सर्वाधिक पतन करने में समर्थ होता है । ...........क्रमश:  

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 29

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 29 प्रत्येक व्यष्टि समष्टि का अंग मात्र है । उपरोक्त कथन को भिन्न प्रकार से व्यक्त करते हुये प्रत्येक जीव-स्थूल-शरीर विराट का अंश है , प्रत्येक जीव-सूक्ष्म-शरीर हिरण्यगर्भ का अंश है , प्रत्येक जीव-कारण-शरीर ईश्वर का अंश है । ईश्वर समष्टि के अव्यक्त संचित कर्म-फलों का धारक है । व्यष्टि कारण शरीर केवल एक विशिष्ट जीव के संचित अव्यक्त कर्म-फल की धारक है । प्रत्येक जीव का पंच-प्राण समष्टि प्राण हिरण्यगर्भ के संचालन द्वारा संचालित हो रहे हैं । जगत् की समस्त गति प्रकृति का संचालन है । .......क्रमश:

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 28

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 2 8 जगत् में सम्पादित हो रही प्रत्येक और समस्त गतियाँ प्रकृति द्वारा सम्भव हो रही हैं । यह माया सृष्टि का नियम है , संचालन है , विधान है । परन्तु यह भी सत्य है कि किसी भी सामान्य जीव को उपरोक्त वर्णित नियम ना ही सहज़ रूप से ग्राह्य है और नहीं उसे सहज़ रूप से मान्य है । प्रश्न उठेगा क्यों ? उत्तर है , यह माया सृष्टि है । माया का प्रत्येक सम्पादन अद्भुद है । इसीलिये माया सर्व जगत् को ऐसे ही नचाती है जैसे मर्कट को मनुष्य नचाता है । अन्यथा तो मनुष्य अपने को तो इतना बुद्धिमान समझता है , है भी , कि उसका सोचना तो यही है कि सब कुछ जगत् में जो हो रहा है , वह मनुष्य ही करा रहा है । परन्तु विडम्बना यह है कि उपरोक्त दो अभिव्यक्तियों में से पहली ही सही है । क्या ? जगत् में सम्पादित हो रही प्रत्येक और समस्त गतियाँ प्रकृति द्वारा सम्भव हो रही हैं......क्रमश:  

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 27

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 2 7 सत्य ब्रम्ह के सत्यत्व के ऊपर कल्पित नाम-रूप-कार्य जगत् है । जगत् माया सृष्टि है । जगत् का सत्यत्व ब्रम्ह है । व्यक्त दशा और अव्यक्त दशा यह जगत् का उदय और लय है । वृक्ष बीज़ में अव्यक्त दशा में है । व्यक्त होने पर वह वृक्ष है । व्यक्त से अव्यक्त और अव्यक्त से व्यक्त यह माया का बुद्धि कौशल है । जीव सृष्टि में स्थूल-शरीर और सूक्ष्म-शरीर कार्य दशा है जिसकी कारण दशा कारण-शरीर है । कारण सदैव अव्यक्त दशा है जो कि व्यक्त दशा की धारक होती है । कारण शरीर में सूक्ष्म-शरीर और स्थूल शरीर अव्यक्त दशा में विद्यमान हैं । कारण ही कार्य के रूप में विदित हो जाता है । यह सब माया का क्षेत्र है । पारमार्थिक इस कार्य-कारण-क्षेत्र से परे शुद्ध कार्य-कारण-विलक्षण क्षेत्र है । माया ने जड और चेतन को विभक्त करके भोक्ता-भोज्य स्वरूप का सृजन किया है । भोक्ता-भोज्य दोनो मिथ्या है । सत्य भोक्ता-भोज्य-विलक्षण है । उपरोक्त भेद को ग्राह्य बनाना ही मस्तिष्क की क्षमता के आश्रय पर है । मस्तिष्क सूक्ष्म-शरीर का अंग है । मृत्यु की दशा में सूक्ष्म-शरीर स्थूल-शरीर का त्याग कर ...

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 26

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 2 6 ब्रम्ह कार्य-कारण-विलक्षण है । शुद्ध शाश्वत् चैतन्य असंग है । कार्य-कारण जहाँ है वहा माया है काल है । ब्रम्ह कालातीत है । जगत् कंचिद कार्य है तो ब्रम्ह कारण है । यह माया सहित ब्रम्ह स्वरूप है जो जगत् का कारण है । ब्रम्ह उपादान कारण है और माया निमित्त कारण है । ब्रम्ह और माया भिन्न नहीं हैं । उपरोक्त समस्त अभिव्यक्तियाँ श्रुतियों से उद्घृत की गई है । श्रुतियों मे उपरोक्त वर्णित सभी अभिव्यक्तियाँ एक ही स्थल पर नहीं वर्णित हैं । परन्तु प्रकरण को ग्राह्य बनाने के लिये उन्हे एक ही स्थल पर उपस्थित किया जा रहा है । सत्य अद्वैत है । द्वैत मिथ्या है । द्वैत दर्शन ही सन्सार है । लोक-व्यवहार है । माया का क्षेत्र है । द्वैत सदैव भयकारक है । अद्वैत शान्त आनन्द है । उपरोक्त समस्त कथन जब मस्तिष्क ग्राह्य बना सकेगा तभी वह कार्य-कारण-ब्रम्ह-स्वरूप का ज्ञान ग्रहण कर सकेगा और ज्ञान सदैव विषय है ज्ञाता है अहम् ब्रम्हास्मि की स्थिति है । ...........क्रमश:

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 25

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 25 जड को न ही अपना ज्ञान है और न ही दूसरे का ज्ञान है । चेतन को अपना भी ज्ञान है और दूसरे का भी ज्ञान है । ऐसा क्यों होता है ? क्योंकि कि चैतन्य ज्ञानस्वरूप है । मनुष्य के मस्तिष्क में चैतन्य की दो क्षवियाँ उपलब्ध हैं , जैसा कि पूर्व के लेखों में भिज्ञ कराया गया है । पहली क्षवि जड मस्तिष्क को चेतनवद् व्यवहार करा रही है । यह उसका अहंकार रूप है । दूसरी क्षवि किसी व्यवहार में सम्मलित नहीं है अपितु मस्तिष्क में गति कर रहीं वृत्तियों की साक्षी मात्र है । पहली क्षवि माया का क्षेत्र है । दूसरी क्षवि पारमार्थिक क्षेत्र है । जो व्यक्ति उपरोक्त दोनो क्षवियों के भेद को चिन्हित करने में सफल है , वह ज्ञानी है । जो मनुष्य अपने जीवन को पहले क्षवि के आश्रय से यापन कर रहा है वह परिच्छिन्न है । जो मनुष्य दूसरी क्षवि के आश्रय से जीवन यापन कर रहा है वह मुक्त है । जो मनुष्य पहले क्षवि के आश्रय पर है वह जीवन-मृत्यु के चक्र में है । जो मनुष्य मुक्त है उसका मोक्ष है । ...........क्रमश: 

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 24

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 24 जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु अपरिहार्य है । जिसका प्रारम्भ है उसका अन्त है । समस्त परिवर्तन काल की सीमा में हैं । काल माया का क्षेत्र है । कालातीत पारमार्थिक है । पारमार्थिक किसी भी परिवर्तन से परे है । पारमार्थिक त्रिकालिक सत्य है । उपरोक्त कथित को मस्तिष्क के विवेक में स्थिर करना यह विवेक के आधार पर जीवन यापन करने वाले पुरुष का कर्तव्य है लक्ष्य है । मनुष्य का व्यवहारिक जीवन उसके स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीर के आश्रय का जीवन है । उपरोक्त व्यवहार , काल की सीमा का व्यवहारिक जीवन है । निश्चय ही वह माया के क्षेत्र का जीवन है । इसलिये वह सत्य आधार नहीं है । व्यवहारिक जीवन मिथ्या है । भ्रान्ति पर आश्रित है । इसलिये मृत्यु है , भय है , असुरक्षा है । पारमार्थिक आश्रय नित्य है । अमृत है । वहाँ कोई जन्म नहीं है । वहाँ कोई मृत्यु नहीं है । वह शान्त है । वह आनन्द है । ...........क्रमश:

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 23

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 23 चिरकालिक सत्य के आश्रय का जीवन ही स्थिर शान्त जीवन है । जीवन जब परिवर्तनशील आश्रय के अवलम्ब पर होगा तब निश्चय ही उसमें अस्थिरता सदैव विद्यमान है । इस जगत् के समस्त ज्ञात आश्रय काल की सीमा से बाधित हैं । इसलिये अनित्य हैं । इसलिये ही जगत् के किसी भी आश्रय का फल अस्थिरता है । व्यक्ति जन्म से मृत्यु पर्यन्त स्थिरता को खोजता है । परन्तु उसे नहीं मिलती है । क्योंकि प्रत्येक अवयव परिवर्तन के अधीन है । इसलिये इस जगत् के आश्रय में स्थिरता असाध्य है । स्थिरता केवल अपरिवर्तनीय सत्ता के आश्रय द्वारा ही सम्भव है । अपरिवर्तनीय सत्ता केवल एक है । वह व्यक्ति का स्वयं अपना स्वरूप है । व्यक्ति की अपनी आत्मा है । यह आत्मा ही उसका अपना स्वरूप है । जब व्यक्ति अपने स्वरूप को जान लेगा , उस स्वरूप में स्थापित हो जायेगा तब वह शान्त दशा का भोग करेगा.........क्रमश:

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 22

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 22 मस्तिष्क के क्रिया सम्पादन के आधार पर इसके चार प्रभागो नामत: मन , बुद्धि , चित्त , अहंकार का उल्लेख पूर्व में किया गया है । उपरोक्त में विवेक को सर्वाधिक महत्व दिया जाता है । इसका विश्लेषण इस प्रकार है । व्यक्ति जन्म से व्यवहारिक जीवन का भोग करता है जो कि अहंकार पोषित जीवन होता है । उपरोक्त के विपरीत उच्चतर प्रकृति के आश्रय का जीवन है । यह मुक्त दशा का जीवन है । इस जीवन को तप द्वारा पाया जा सकता है । उपरोक्त वर्णित दोनो जीवन स्वरूपों के मध्य जो दूरी है , वह विवेक के द्वारा ही पार की जा सकती है । कैसे ? व्यवहारिक जीवन की परिस्थितियाँ और पारमार्थिक जीवन की परिस्थितियों में वाँक्षनाओं का भेद है । व्यक्ति एक है । मस्तिष्क एक है । जो व्यवहारिक जीवन के लिये ग्राह्य है उसे पारमार्थिक जीवन के लिये त्याज्य बताया जाता है । इसलिये व्यवहारिक जीवन में जीवन जीते हुये जब व्यक्ति को पारमार्थिक को अंतरण करना है तो विवेक के बल से ही वह त्याज्य बताये जाने वाले को त्याग सकेगा अन्यथा व्यवहारिक जीवन के आलोक से तो वह उसके लिये ग्राह्य की श्रेणी का होता...

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 21

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 21 आत्मा की दो प्रकृतियों का उल्लेख शास्त्रों में है । एक निम्नतर प्रकृति है । यह व्यवहारिक जगत् की प्रयोज्य प्रकृति है । इसे अहंकार का नाम दिया जाता है । इसमें राग-द्वेष-ईर्ष्या आदि विद्यमान पाये जाते हैं । इसमें असुरक्षा अपूर्णता प्रधान अवयव हैं । इसमें व्यक्ति कर्ता भोक्ता है । यह जन्म-मृत्यु के चक्र का धारक है । दूसरी उच्चतर प्रकृति है । इसे विरला कोई ही अंगीकार कर पाता है । यह शाश्वत् आत्मा के सत्यत्व पर आधारित है । यह मुक्त दशा है । यह जन्म मृत्यु से परे की दशा है । यह व्यक्ति के स्वतन्त्र चुनाव का विषय है कि वह किस पथ को अंगीकार करता है........क्रमश:

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 20

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 20 सन्सार अर्थात् परिच्छिन्नता का कारण अज्ञान निर्धारित किया जाता है । अज्ञान अर्थात् अपंने स्वरूप का अज्ञान है । स्वरूप अर्थात् आत्मस्वरूप का अज्ञान है । तो विद्वान आत्मज्ञानी आचार्य आदि-शंकर उपरोक्त कथित परिच्छिन्नता का निवारण ज्ञान द्वारा सम्भव बताते हैं । ज्ञान अर्थात् अपने स्वरूप का ज्ञान है । स्वरूप अर्थात् आत्मस्वरूप है । आत्मस्वरूप ब्रम्हस्वरूप है । आत्मस्वरूप अनन्त ब्रम्ह है । अनन्त ब्रम्ह स्वरूप आनन्द-स्वरूप है । ब्रम्हस्वरूप ज्ञान स्वरूप है । तो यह चेतन जीव परिच्छिन्न कैसे है ? उत्तर विदित है कि उसे अपने स्वरूप का ज्ञान नहीं है । उपरोक्त दोनो भिन्न स्थितियाँ , अर्थात् ज्ञान-स्वरूप-आत्मा की उपस्थिति और उसका अज्ञान , कैसे एक ही स्थल पर प्रभावी हैं ? विद्वान आत्मज्ञानी आचार्य आदि-शंकर उत्तर बताते हुये कहते हैं कि , इसलिये कि उपरोक्त में से एक अर्थात् उसका आत्मस्वरूप सत्य है और दूसरा परिच्छिन्नता जो कि अज्ञान है भ्रम है । ऐसा कैसे सम्भव होता है ? उत्तर है , माया की अद्भुद लीला के फल से है ।.........क्रमश:

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 19

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 19 कंचिद किसी बाल्टी में जल खुले स्थान में रखा है , और ऊपर आकाश में सूर्य चमक रहा है , तो सूर्य का प्रतिबिम्ब बाल्टी के जल में मिलना या प्रगट होना यह सामान्य व्यवहार है । परन्तु कंचिद प्रतिबिम्ब नहीं मिल रहा है , तो इसके दो कारण हो सकते हैं , एक कि बाल्टी का जल गन्दा है , दो कि बाल्टी के जल में कम्पन उठ रहे हैं । उपरोक्त विवरण दृष्टान्त है । विचार एक कुन्द मस्तिष्क का करना है । कुन्द अर्थात् जिसमें ब्रम्ह विचार की शिक्षा प्रेवेष नहीं कर पाती है । इस दोष के भी दो कारण निर्धारित किये जाते हैं । एक कि मस्तिष्क पहले से दूषित वासना वृत्तियों से तृप्त है , दो कि मस्तिष्क में वासना वृत्तियों की गति बहुतायत हैं । उपरोक्तानुसार दूषित मस्तिष्क के उपचार की आवश्यकता विचारणीय हो जाती है , क्योंकि वासना-वृत्तियां व्यक्ति के उत्थान में बाधक होती हैं , और ब्रम्ह विचार व्यक्ति के उत्थान को उन्मुख होता है । उपचार के विचार में पहली त्रुटि अर्थात् संचित वासना-वृत्तियों के प्रदूषण को क्षीण करने के लिये कर्म-काण्ड अर्थात् वैदिक यज्ञ-विधान द्वारा मस्...

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 18

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 18 व्यष्टि सदैव समष्टि का अन्श है । प्रत्येक स्थूल जीव-शरीर विराट-देवता का अन्श है । विराट-देवता समष्टि-स्थूल का नाम है । प्रत्येक व्यष्टि सूक्ष्म-शरीर हिरण्यगर्भ का अन्श है । हिरण्यगर्भ समष्टि सूक्ष्म-शरीर-देवता का नाम है । प्रत्येक व्यष्टि कारण शरीर ईश्वर का अन्श है । ईश्वर समष्टि कारण-शरीर देवता का नाम है । चैतन्य के विचार में व्यष्टि स्थूल को विश्वा का नाम दिया गया है । समष्टि स्थूल को विराट-देवता का नाम दिया गया है । व्यष्टि-सूक्ष्म-चैतन्य को तैजसा का नाम दिया गया है । समष्टि-सूक्ष्म-देवता को हिरण्यगर्भ का नाम दिया गया है । हिरण्यगर्भ को पुराणों में ब्रम्हाजी भी नाम दिया गया है । व्यष्टि-कारण-अवस्था-चैतन्य को प्राज्ञा नाम दिया गया है । चैतन्य के विचार में समष्टि-कारण ईश्वर हैं जिन्हे विष्णु-भगवान भी कहा जाता है । समष्टि का प्रादुर्भाव पहले हुआ और व्यष्टि की उत्पत्ति समष्टि से हुई है । इसलिये व्यक्ति के मानसिक क्षमता का विस्तार करने के लिये समस्त उपासनाओं में समष्टि-देवताओं की उपासनाओ ं का उपदेश किया गया है । व्यष्टि किसी भी दशा में स...

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 17

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 17 व्यक्ति को जीवन-मुक्ति चाहिये अथवा व्यक्ति को सान्सारिक त्रास भोग चाहियें , यह चुनना उसका स्वतन्त्र अधिकार है । भले ही आम व्यक्ति शायद इस चुनाव की स्वतन्त्रता को जानता भी नहीं है , और अज्ञान की स्थिति में ही वह सान्सारिक त्रास-भोग के क्षेत्र में है । उपरोक्त वर्णित आम शब्द में , पढे-लिखे अपने को शिक्षा-विशारद कहनेवाले व्यक्ति भी सम्मलित हैं । मैं कौन हूँ ? यह आधार-भूत प्रश्न जिसके हृदय में उठेगा वही व्यक्ति सत्य को खोजेगा , वही ज्ञान-यात्रा को उन्मुख होगा , अन्यथा की स्थिति में वह शिशु अवस्था में खेलने में व्यस्त होगा , युवा होने पर तरुणी में व्यस्त होगा. प्रौढ होने पर सान्सारिक त्रास-भोग में लिप्त होगा , वृद्ध होने पर चिन्ता-भोग में लिप्त होगा फिर यम-धर्म-राजा से उसकी मुलाकात होगी और यात्रा पूर्ण है । उपरोक्त वर्णित प्रश्न मैं कौन हूँ ? जिसके हृदय में बारम्बार उठेगा-कौंदेगा वह ही , जब प्रारभ्य-वश अथवा संचित-संस्कार-वश समुचित सुयोग्य सत्-गुरू-संग को प्राप्त होगा , समुचित शिक्षा पद्धति को प्राप्त होगा , समुचित प्रयत्न में स...

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 16

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 16 पारमार्थिक सत्य त्रिकालिक सत्य है । जगत् के प्रत्येक अवयव काल की सीमा से बंधे है , आकाश द्वारा सीमित हैं । इसलिये जगत् के किसी भी घटक के आलम्ब पर कभी भी किसी भी दशा में स्थायी निश्कर्ष सम्भव नहीं हो सकते है । यही कारण है कि सन्सार के जीव को स्थिरता नहीं मिलती है । वह असुरक्षा की अनुभूति करता है । परन्तु इस असुरक्षा का निराकरण उसे नहीं मिलता है । जो आधार स्वयं अ-स्थिर है वह दूसरे को स्थिर आलम्ब कैसे पोषित कर सकता है । इसलिये जब तक व्यक्ति पारमार्थिक सत्य का आधार नहीं ग्रहण करता है , तब तक उसकी परिच्छिन्नता का निवारण सम्भव नहीं हो सकता है , क्योंकि अपूर्ण किसी भी परिवर्तन द्वारा पूर्ण बन ही नहीं सकता है । इसलिये ही आत्मस्वरूप जो कि सदैव पूर्ण है का अवलम्ब ही , परिच्छिन्नता से निवृत्ति के लिये , असुरक्षा से मुक्ति के लिये , भय से अभय की स्थिति के प्राप्ति के लिये , एक मात्र उपाय है , यही शास्त्र का उपदेश है । ..........क्रमश:  

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 15

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 15 सु-सन्सकारी मस्तिष्क ही व्यक्ति को मोक्ष की स्थिति प्रशस्थ करता है । आत्मस्वरूप को सतत् मस्तिष्क में स्थिर रखने का सन्सकार ही कल्याणकारी है । यह आत्मा का वृत्ति-ज्ञान अर्थात् अहम् ब्रम्हास्मि एक बार प्राप्त हो जाने पर , उसे सतत् मस्तिष्क में स्थिर गतिमान रखना , उपरोक्त वृत्ति को मस्तिष्क का आम सन्सकार बनाने पर्यन्त का सतत् अभ्यास सर्वोच्च लक्ष्य निर्धारित कर , किये जाने वाले प्रयत्न तप हैं । तप द्वारा ही सिद्धी प्राप्त हो सकती है । उपरोक्त सन्सकार से अभिसंचित मस्तिष्क व्यक्ति को जीवन-मुक्त-दशा प्रदान करने में सक्षम होता है । जीवन-मुक्त व्यक्ति को इस कोबरा-जगत् का विष व्याप्त नहीं होता है । .......क्रमश:

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 14

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 14 ज्ञान प्राप्ति काल में साधन-चतुष्टय की अनुसंशा व्यक्ति को व्यवहारिक जीवन से पारमार्थिक सत्य के जीवन में अंतरण के लिये प्रतिपादित की गई हैं । सभी अपेक्षित परिवर्तनों का आश्रय एक मस्तिष्क ही है । वह मस्तिष्क वर्तमान में अहंकार के आश्रय से इस लोकव्यवहार के जगत् में लीन है । उसे असंग निराकार अद्वयम् चैतन्य स्वरूप के आश्रय के लोक में अंतरित करने का लक्ष्य निरधारित है । समस्त सम्पादन वर्तमान का भी और भविष्य का भी दोनो एक एकल मस्तिष्क के आश्रय पर है । इस आलोक में मनोनिग्रह सर्वाधिक महत्वपूर्ण है । मस्तिष्क का सन्सकार इस मनोनिग्रह का ही पर्याय है । सभी कुछ अभ्यास से ही सम्भव होता है । अभ्यास कौन करेगा ? जो मुमुक्षु होगा वह प्रयत्न करेगा । मुमुक्षु कौन होगा ? जिसे मायालोक से विरक्ति होगी । इस प्रकार साधनचतुष्टय , वैराग्य , विवेक और मुमुक्षु यह सभी सम्बद्ध प्रकरण है , ज्ञान यात्रा है.........क्रमश:  

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 13

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 13 स्वप्न देखते समय यदि कंचिद व्यक्ति यह जानता रहे कि वह स्वप्न देख रहा है । उपरोक्त स्थिति , ज्ञानी के जीवन की कल्पना है । यह व्यवहारिक जीवन भी स्वप्न है । कैसे ? ज्ञान की दशा प्राप्त होने पर और ज्ञान के आधार को सत्य आधार मानते हुये यह व्यवहारिक जीवन भी स्वप्न है । स्वप्न सत्य है । कब ? स्वप्नकाल में और स्वप्न-दृष्टा के सत्यत्व के आधार पर स्वप्न सदैव सत्य है । परन्तु स्वप्नकाल की क्षीणता पर अर्थात् जागृत दशा में स्वप्न मिथ्या है । यही स्थिति व्यवहारिक जगत् और लोकव्यवहार के जीवन का सत्यत्व भी अहंकार के आधार पर आश्रित जीवन की अवधि पर्यन्त ही सत्य है । परन्तु पारमार्थिक सत्य अर्थात् अपने आत्मस्वरूप के ज्ञान बोध अर्थात् अहम् ब्रम्हास्मि स्वरूप की अनुभूति की दशा में , यह जगत् और लोकव्यवहार का जीवन और जगत् सभी कुछ मिथ्या है । उपरोक्त समस्त कथन कोई परियों की कहनी नहीं है । कोई भी व्यक्ति इसे स्वयं अनुभूत कर उपरोक्त कथन की सत्यता की पुष्टि स्वयं अपने अनुभव से कर सकता है.......क्रमश:

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 12

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 12 शुद्ध चैतन्य के आश्रय से जीवन यापन ही ज्ञान की दशा का जीवन यापन है । उपरोक्त के विपरीत , व्यवहारिक जीवन , अहंकार के आश्रय से जीवन यापन है । व्यवहारिक जीवन का जन्म से अभ्यास है । शुद्ध चैतन्य के आश्रय का जीवन यापन एक ज्ञानी का ही हो सकता है । ज्ञानी वह है जो अहंकार और शुद्ध चैतन्य को दो अलग विलक्षण चैतन्य स्वरूप के रूप में चिन्हित कर सकता है और उन्हे अलग अलग व्यव्हृत कर सकता है । ऐसा क्यों कहा जा रहा है ? इसलिये कि ज्ञानी को भी अपने संचित कर्मों के क्षीण होने पर्यन्त इस व्यवहारिक जगत् में जीवन जीना है । मोक्ष का अभिप्राय कंचिद यह नही है कि व्यक्ति को ज्ञान हुआ कि वह किसी अन्य लोक में भेज दिया जायेगा अथवा किसी अन्य विलक्षण समाज में उसे स्थान मिल जायेगा , उसे भी इसी लोक-व्यवहार के समाज में रहना है । उसे भी भूख लगेगी , उसे भी वस्त्र चाहिये , उसे भी रहने को मकान चाहिये , इसलिये वह लोकव्यवहार को त्याग नहीं सकता है । यही समन्वय सबसे बडा और जटिल समीकरण होता है । ज्ञान प्राप्ति के पूर्व की स्थिति में भी और ज्ञान की दशा के उपरान्त की दशा ...

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 11

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 11 ज्ञान की दशा का अर्थ है अपने शुद्ध चैतन्य को , जो कि आत्मा है , अपना परिचय जानते हुये जीवन यापन करना है । शुद्ध चैतन्य को अपना परिचय मानना ही अपने अहंकार स्वरूप को मिथ्या करार करना है । शुद्ध सदैव आश्रयदाता है । मिथ्या सदैव आलम्बन है । विडम्बना माया सृजित है । विडम्बना सत्य बन गयी है । व्यवहार का सत्य अहंकार है । सत्य शुद्ध लुप्त हो गया है । इस क्षवि को पहचानना ही अपनी भूल को पहचानना है । जब व्यक्ति भूल को जानेगा तभी सुधार को अग्रसर होगा । .........क्रमश:

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 10

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 10 आत्मज्ञान का अभिप्राय सीधे और सरल अभिव्यक्ति में यह है कि अपने अन्दर विद्यमान शुद्ध चैतन्य स्वरूप को ब्रम्हस्वरूप का बोध है । इस स्थल पर ज्ञातव्य है कि जैसा कि प्रारम्भ से ही बताया गया है , आपके अन्दर चैतन्य की दो अनुभूतियाँ विद्यमान है , एक भ्रामक है जिसे अहंकार बताया जाता है जो कि आपके मस्तिष्क को चेतना की अनुभूति प्रदान करती है और दूसरी क्षवि जो कि प्रथम भ्रामक अहंकार से विलक्षण है जो कि शुद्ध है और जिसकी उपस्थिति से प्रथम को जन्म मिला है , को अलग अलग जानते हुये , शुद्ध चैतन्य जो कि आपकी आत्मा है , वह ब्रम्ह स्वरूप है , उसका आश्रय ग्रहण करने का उपदेश शास्त्र करते हैं.........क्रमश:  

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 9

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 9 मस्तिष्क आत्म-अनुभूति में लीन हो जाय यह अपेक्षित दशा है । यह उपलब्धि सर्वोच्च है । यह आनन्द स्वरूप है । वृहदारण्यक उपनिषद में उपदेश है कि समस्त सान्सारिक अनुभवगम्य वासना वृत्तियों के सुख केवल आत्मानन्द का आंशिक निरूपण करते है । आनन्द केवल आत्मस्वरूप है । इसके व्यतिरिक्त कोई दूसरा आनन्द नहीं है । आत्मस्वरूप का अज्ञानी व्यक्ति किसी काल विषेस में किसी परिस्थिति विषेस में एन्द्रिक वासना वृत्तियों से जिस अनुभवगम्य सुख की अनुभूति करता है , वह आत्मानन्द का ही सुख होता है , जिसे कि अज्ञानी वासना सुख मान कर अनुभव करता है । ज्ञान की दशा में आनन्द उस व्यक्ति का स्वरूप हो जाता है । बडे बडे धनी , बडे बडे प्रशाशनिक पदों के धारक व्यक्ति , बडे बडे राज नेता एक एकान्त में बैठे ज्ञानी संत के यहाँ क्या पाने जाते हैं ? उस संत के पास तो कोई सांसारिक वैभव नहीं है , परन्तु उसके पास है , उसका आनन्द स्वरूप , उसका ज्ञान जो कि सर्वोच्च है...........क्रमश:  

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 8

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 8 मस्तिष्क को आत्मा की वृत्ति बोध यह पहला सन्सकार है । जिस पल उसे आत्मा का वृत्ति बोध हो जाता है , इस वृत्ति बोध से पूर्व के समस्त प्रयत्न स्वयं ही निरर्थक सिद्ध हो जाते हैं । आत्मा का वृत्ति बोध केवल शास्त्र प्रमाण द्वारा ही सम्भव हो सकता है । शास्त्र का ज्ञान गुरू-शिष्य परम्परा द्वारा इस वैदिक सन्स्कृति के देश में अनादि-काल से सतत् चलता आ रहा है । इसका प्रमाण क्या है ? यह कि , कि यह ज्ञान आज के तिथि में भी विद्यमान है । आदि गुरू नारायण हैं । स्वयं विष्णु भगवान ही प्रथम गुरू हैं जिन्होने वेदों का उपदेश ब्रम्हा जी को किया और तत्पश्चात् उन्हे सृष्टि की रचना का आदेश किया है । आत्मा जो कि परमात्मा है , सर्वकालिक सत्य है । समस्त विस्तार उसी आत्मा के ऊपर नाम-रूप का आरोपण मात्र है । आत्मा अनन्त सत्ता है । आत्मा शाश्वत् सत्ता है । आत्मा अद्वयम् सत्ता है । आत्मा असंग सत्ता है । आत्मा का वृत्ति बोध अहम् ब्रम्हास्मि है । प्रत्येक मनुष्य इस आत्मा के आलम्बन पर ही चेतन जीव है । प्रमाता-कर्ता-भोक्ता मनुष्य अहंकार के क्षेत्र का है । वह माया सृष्टि ...

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 7

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 7 मस्तिष्क को पारमार्थिक सत्य की वृत्ति बोध कराने के लिये शास्त्र मस्तिष्क की ग्राह्यता क्षेत्र के समस्त जगत् को मिथ्या करार करते हैं , जिज्ञासु की स्थूल-सूक्ष्म-कारण-शरीर को मिथ्या करार करते हैं , जिज्ञासु के मस्तिष्क को मिथ्या करार करते है । यह शिक्षण विधा है । जब जिज्ञासु को आत्मा का वृत्ति बोध अहम् ब्रम्हास्मि हो जाता है , तब उस वृत्ति बोध का तत्काल फल यह होता है कि वह ज्ञान-जिज्ञासु ही अब ज्ञानी है । इस ज्ञान का पहला फल उसको प्राप्त होता है कि उस ज्ञानी की दृष्टि समस्त जगत् को जिसे शिक्षण-काल में उसे मिथ्या बताया गया , वह जगत् अब उसे दीखता है - ब्रम्ह + नाम-रूप , उसको अपनी शरीर दीखती है - ब्रम्ह + नाम-रूप , उसको अपना मस्तिष्क दीखता है - ब्रम्ह + नाम-रूप , यहाँ तक की उस मस्तिष्क में गति कर रही आत्म-वृत्ति अहम् ब्रम्हास्मि उसे ब्रम्ह-दर्शन के रूप में दीखती है । यह आत्म-ज्ञान कितना शाश्वत् व्यापक आनन्द स्वरूप है । इस आत्मास्वरूप के अज्ञांन के फल से ही जीव सन्सारी है , अपूर्णता , असुरक्षा के त्रास का भोक्ता जीव है.............

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 6

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 6 साक्षी चैतन्य के सम्बन्ध में जिस विलक्षण स्थिति का विवरण गत अंक में प्रस्तुत किया गया है , उसे एक उदाहरण के द्वारा और स्पष्ट किया जा रहा है । उदाहरण इस प्रकार है , प्रकाश की उपस्थिति में ही कोई वस्तु-रूप दृष्य हो सकता है , उसी प्रकार इस ज्ञानस्वरूप साक्षी चैतन्य के उपस्थिति में ही मस्तिष्क में कोई भी ज्ञानबोध सम्भव हो सकता है । शास्त्र उपरोक्त साक्षी का अधिक विश्लेषण करते हुये उसे ही निर्पेक्ष सत्य ब्रम्हस्वरूप आत्मा का उपदेश करते हैं और जो चैतन्य मस्तिष्क की तीन स्थितियों अर्थात् जागृतदशा , स्वप्नदशा और सुशुप्तिदशा में प्रगट होता हैं उन्हे मिथ्या करार करते हैं । उपरोक्त विवरण द्वारा विलक्षण साक्षी की वृत्ति को मिथ्या चेतन को धारण करना अपेक्षित है । यदि यह सम्भव हो जाय तो यह ही ज्ञान है । समस्त उपदेश का सार यह है कि यह ज्ञान शुद्ध रूप से मिथ्या चेतन की ग्राह्य शक्ति और सतत् उस ग्राह्य किये गयी साक्षी की वृत्ति को मस्तिष्क के पटल पर स्थिर रखने की क्षमता पर निर्भर है | .........क्रमश:   

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 5

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 5 मस्तिष्क में विद्यमान चैतन्य की दूसरी क्षवि की वृत्ति की खोज को सतत् रखते हुये पाते हैं कि शास्त्र इसके विषय में उपदेश करते हुये बताते हैं कि यह एक-आत्मप्रत्ययसारं है इसका अर्थ विस्तार इस प्रकार किया जाता है कि चैतन्य की पहली छवि जहां कहीं भी विद्यमान पायी जाती है , उन समस्त स्थलों पर यह भी उपस्थित रहता है अर्थात् विद्यमान रहता है । यह स्थिति समझने के लिये ही इस चैतन्य की दूसरी क्षवि को साक्षी के रूप में उपदेश किया जाता है , जिसका अर्थ यह हुआ कि यह उपस्थित तो सर्वत्र है , परन्तु किसी अन्य के साथ युक्त नहीं होता है अपितु सभी से भिन्न रहते हुये मात्र उपस्थित रहता है । इस कारण से ही यह विलक्षण है । यह किसी भी प्रमाण का प्रमेय भी नहीं बन सकता है , जैसा कि गत अंक में वर्णन किया गया था । इसके वृत्ति के सम्बन्ध में यह समस्त क्लिष्ट स्थिति इसलिये है कि यह स्वयं ज्ञान-स्वरूप होने के कारण यह सदैव विषय है । ज्ञानस्वरूप ब्रम्ह है । यह मस्तिष्क में उपस्थित चैतन्य की दूसरी क्षवि आत्म-ब्रम्ह है । इस प्रकार इसकी अहम् ब्रम्हास्मि वृत्ति है........क...

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 4

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 4 मस्तिष्क में विद्यमान चैतन्य की दूसरी क्षवि के वृत्ति की खोज करने के लिये शास्त्रों की शरण लेते हैं । शास्त्र इस चैतन्य के सम्बन्ध में उपदेश करते हैं कि यह चैतन्य अदृष्य है जिसका अर्थ लिया जाता है कि यह उपलब्ध प्रत्येक पाँच ज्ञानेन्द्रियों की ग्राह्यता से परे है । शास्त्र इस चैतन्य के सम्बन्ध में आगे उपदेश करते हैं कि अव्यवहार्यम् है जिसका अर्थ लिया जाता है कि यह चैतन्य किसी व्यवहार में सम्मलित नहीं होता है । शास्त्र इस चैतन्य के विषय में आगे उपदेश करते हैं कि अग्राह्यम् है जिसका अर्थ लिया जाता है कि मस्तिष्क अर्थात् चैतन्य की क्षवि एक की कृपा से कार्यकारी मस्तिष्क इस दूसरे चैतन्य क्षवि की वृत्ति-ज्ञान-बोध नहीं कर सकता है । शास्त्र इस चैतन्य के विषय में आगे उपदेश करते हैं कि अलक्षणम् है जिसका अर्थ लिया जाता है कि इसके कोई धर्म नहीं हैं । शास्त्र इस चैतन्य के विषय में आगे उपदेश करते हैं कि अचिन्त्यम् है जिसका अर्थ लिया जाता है कि मस्तिष्क के पास कोई पूर्व की स्मृति के संचय के आश्रय से भी इसकी वृत्ति-ज्ञान-बोध नहीं किया जा सकता है । श...