मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 31


पद-परिचय-सोपान
मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 31 ईश्वर के मन में जब सृष्टि का संकल्प सृजित हुआ तो उस अवसर पर वह अकेले थे और उनकी माया शक्ति के भण्डार में थे समस्त जगत् का अव्यक्त सारांश-रूप और साथ में था पूर्व सृष्टि के जीवों के संचित कर्मों का भण्डार और इनसे ही समस्त सृष्टि प्रक्रिया का शुभारम्भ होना है । पहले भोज्य जगत् की उत्पत्ति प्रक्रिया द्वारा, माया को जीवों के संचित कर्मों के फल-भोग के लिये, उसे समुचित भोज्य जगत् को प्रस्तुत करना है । इस प्रकार चाहे सृष्टि से प्रारम्भ करके व्यष्टि जीव पर्यन्त का विचार किया जाय अथवा उपरोक्त के विलोम व्यष्टि जीव के स्वतन्त्र चयन के अधिकार से प्रारम्भ करके समष्टि का विचार किया जाय, दोनो ही रूपों में एक ही निष्कर्श आहरित होता है, वह निष्कर्श है कि व्यष्टि सदैव समष्टि का सूक्ष्म अंश है । माया की कोई भी व्यवस्था अथवा न्याय सदैव समष्टि को नियन्त्रित करता है, और व्यष्टि उपरोक्त समष्टि के नियन्त्रण से स्वत: नियन्त्रित हो जाता है । व्यष्टि जीव पूर्व के संचित कर्मों के फल-भोग के लिये अपने वर्तमान व्यष्टि-रूप में होता है । परन्तु उपरोक्त कथित संचित कर्मों के फल-भोग की अवधि में वह पूर्व के संचित से भी अधिक नये कर्म-संचय सृजित कर लेता है । इस प्रकार बढते हुये कर्म-संचयों के अनुरूप उनके फल-भोग के लिये, माया समष्टि में आवश्यक संशोधन भी करती जाती है । यह अत्यधिक व्यापक व्यवस्था प्रक्रिया है, जिसे पारलौकिक बुद्धि-कौशल जिसे माया नाम से अलंकृत किया जाता है, सम्पादित करती है । .........क्रमश:   

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