मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 33
पद-परिचय-सोपान
मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 33 श्रुतियाँ, ईश्वर को, जगत् का कारण होने का उपदेश करती हैं । श्रुतियाँ उपदेश करती हैं कि
ब्रम्ह कार्य-कारण-विलक्षण है । उपरोक्त दोनो उपदेश विदित रूप में एक दूसरे के
विपरीत भावों को प्रशस्थ करने वाले प्रतीत होते हैं । व्याख्याकार आत्मज्ञानी
आचार्य विद्वान आदि-शंकर उपरोक्त विरोधाभास की व्याख्या करते हुये बताते हैं कि
उपरोक्त दोनो उपदेश केवल एक परिस्थिति में सत्य हो सकते है कि उपरोक्त दो में से
एक सत्य है और दूसरा भ्रान्ति है । यह व्याख्या भी अति गम्भीरता से समझने की
आवश्यकता है । क्या श्रुतियाँ भ्रान्ति का उपदेश कर सकती हैं ? उत्तर होगा कदापि नहीं । फिर विद्वान आचार्य की व्याख्या क्या व्यक्त कर
रही है ? उत्तर है कि ईश्वर का जगत् का कारण
स्वरूप मात्र भ्रान्ति है, वह सत्य निरूपण नहीं है । यह भ्रान्ति
कैसे सम्भव होती है ? उत्तर है माया के अद्भुद लीला का फल है
कि ईश्वर जगत् का कारण प्रतीत होता है । वास्तविकता में ईश्वर जगत् का कारण न ही
है और न ही हो सकता है । सत्य उपदेश जिसे श्रुतियाँ ग्राह्य करना चाहती हैं, वह है, कि यह जगत् मात्र भ्रान्ति है ।
इस जगत् की कोई उत्पत्ति नहीं है । यह एक बहुत बडा कडुआ सत्य है जिसे किसी भी
मनुष्य का मस्तिष्क आसानी से ग्राह्य नहीं कर सकता है । यह नित्य व्यवहार्य जगत्
भ्रान्ति है ? उत्तर है, हाँ यह मात्र
भ्रान्ति है । यह जगत् केवल नाम-रूप-कार्य का समुदाय है, जिसका सत्यत्व मात्र ब्रम्ह है । ...........क्रमश:
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