मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 12


पद-परिचय-सोपान
मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 12 शुद्ध चैतन्य के आश्रय से जीवन यापन ही ज्ञान की दशा का जीवन यापन है । उपरोक्त के विपरीत, व्यवहारिक जीवन, अहंकार के आश्रय से जीवन यापन है । व्यवहारिक जीवन का जन्म से अभ्यास है । शुद्ध चैतन्य के आश्रय का जीवन यापन एक ज्ञानी का ही हो सकता है । ज्ञानी वह है जो अहंकार और शुद्ध चैतन्य को दो अलग विलक्षण चैतन्य स्वरूप के रूप में चिन्हित कर सकता है और उन्हे अलग अलग व्यव्हृत कर सकता है । ऐसा क्यों कहा जा रहा है ? इसलिये कि ज्ञानी को भी अपने संचित कर्मों के क्षीण होने पर्यन्त इस व्यवहारिक जगत् में जीवन जीना है । मोक्ष का अभिप्राय कंचिद यह नही है कि व्यक्ति को ज्ञान हुआ कि वह किसी अन्य लोक में भेज दिया जायेगा अथवा किसी अन्य विलक्षण समाज में उसे स्थान मिल जायेगा, उसे भी इसी लोक-व्यवहार के समाज में रहना है । उसे भी भूख लगेगी, उसे भी वस्त्र चाहिये, उसे भी रहने को मकान चाहिये, इसलिये वह लोकव्यवहार को त्याग नहीं सकता है । यही समन्वय सबसे बडा और जटिल समीकरण होता है । ज्ञान प्राप्ति के पूर्व की स्थिति में भी और ज्ञान की दशा के उपरान्त की दशा में भी यह प्रभावी समीकरण है । इसीलिये कहा जाता है कि माया से उबरना इतना आसान नहीं है । परन्तु समस्या का अर्थ निराशा नहीं होता है । संघर्ष पथ होता है । दो विपरीत शक्तियों को एक साथ व्यव्हृत करना संघर्ष है । माया और ब्रम्ह एक दूसरे के विपरीत की परिस्थितियां प्रस्तुत करते हैं । इनमें रहते, इनके विपरीत स्वभाव को समझते, माया से पार निकल कर ब्रम्ह में समाहित होना मस्तिष्क के उचित संस्कार द्वारा साध्य है..........क्रमश:

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

साधन-चतुष्टय-सम्पत्ति

चिदाभास

निषिद्ध-कर्म