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प्रजा की उत्पत्ति

माया-कल्पित-जगत्-सोपान प्रजा की उत्पत्ति मिथुनम् हिरण्यगर्भ के लिये प्रजा की उत्पत्ति सम्भव बनायेगा , और प्रजापति जो कि हिरण्यगर्भ का ही दूसरा नाम है , इस जगत् के पितामह कहे जाते है । प्रजा अर्थात् सम्पूर्ण जीव जगत् है । पंच स्तरीय सृष्टि प्रक्रिया का प्रजा अन्तिम अवयव है । मिथुनम् समस्त पांच स्तर नामत: मिथुन , लोक , काल , अन्न और प्रजा के सृजन का आधार है । मिथुनम् ही सापेक्ष का आधार है । मिथुनम् के प्रत्येक दो अवयव रयि और प्राण एक दूसरे से विरुद्ध स्वभाव के होते हुये भी , दोनो मिलकर ही एक पूर्ण का सृजन करते हैं । ..... क्रमश:

चन्द्र-सृष्टि और सूर्य-सृष्टि

माया-कल्पित-जगत्-सोपान चन्द्र-सृष्टि और सूर्य-सृष्टि सूर्य-चन्द्र यह लोक-सृष्टि के प्रथम मिथुनम् हैं । स्मरणीय है कि , पंच-स्तरीय हिरण्यगर्भीय सृष्टि प्रक्रिया में, लोक-सृष्टि द्वितीय स्तर है । पूर्व वर्णित मिथुथनम् ही , हिरण्यगर्भीय माया-कल्पित-लोक के प्रत्येक स्तर में व्याप्त व्यवस्था है । चन्द्रमा स्वर्ग-लोक का प्रतिनिधित्व करता है । सूर्य ब्रम्ह-लोक का प्रतिनिधित्व करता है । उपरोक्त कथित पद्धति , शास्त्रो में शिक्षण की सर्वमान्य पद्धति है । स्वर्गलोक कर्म की उपलब्धि सीमा है । ब्रम्हलोक उपासन की उपलब्धि सीमा है । ज्ञान उपरोक्त कथित दोनो से विलक्षण है । हिरण्यगर्भ पर्यन्त प्रत्येक माया-कल्पित-जगत् का अवयव जीवन-मृत्यु के चक्र में है , काल से आच्छादित है । ...... क्रमश:

रयि-प्राण मिलकर एक पूर्ण

माया-कल्पित-जगत्-सोपान रयि-प्राण मिलकर एक पूर्ण रात-दिन मिलकर एक पूर्ण है । परीश्रम-विश्राम मिलकर एक पूर्ण है । उत्तरायण-दक्षिणायन मिलकर एक पूर्ण है । जन्म-मृत्यु मिलकर एक पूर्ण है । प्रादुर्भाव-प्रलय मिलकर एक पूर्ण है । पुरुष-नारी मिलकर एक पूर्ण है । उदय-अस्त मिलकर एक पूर्ण है । व्यक्त-अव्यक्त मिलकर एक पूर्ण है । माया-कल्पित-जगत् का प्रत्येक अवयव सापेक्ष है क्योंकि रयि-प्राण से सृजित है । यद्यपि कि रयि-प्राण की प्रत्येक जोडी के दोनो घटक विपरीत स्वभाव के हैं , फिरभी दोनो मिलकर ही एक पूर्ण हैं । ...... क्रमश:    

व्यक्त और अव्यक्त

माया-कल्पित-जगत्-सोपान व्यक्त और अव्यक्त व्यक्त जगत् और अव्यक्त जगत् दोनो रयि-प्राण हैं । व्यक्त जगत् को रयि कहा जाता है । अव्यक्त जगत् को प्राण कहा जाता है । सम्पूर्ण व्यक्त जगत् भी हिरण्यगर्भ हैं । समस्त अव्यक्त जगत् भी हिरण्यगर्भ हैं । रयि और प्राण केवल लोकव्यवहार में प्रचलित दो नाम मात्र हैं । एक पूर्ण की अभिव्यक्ति के दो पहलू हैं । व्यक्त दशा है और अव्यक्त दशा है । कार्य-कारण अवस्थायें हैं । यह माया कल्पित जगत् की आधार शिला रयि-प्राण का परिचय मात्र है । एक सापेक्ष अनुभूति का आधार है । यह माया कल्पित जगत ब्रम्ह की अभिव्यक्ति है , जिसमें ब्रम्ह आच्छादित है , व्यक्त भ्रामक है , मिथ्या है । स्मरणीय है कि , जगत् कारण ईश्वर , जो कि माया सहित ब्रम्ह है , की छाया हिरण्यगर्भ है , हिरण्यगर्भ ही व्यक्त स्थूल जगत् भी है , हिरण्यगर्भ ही अव्यक्त सूक्ष्म जगत् भी है , और छाया सदैव मिथ्या है । ...... क्रमश:

पौराणिक अभिव्यक्ति

माया-कल्पित-जगत्-सोपान पौराणिक अभिव्यक्ति पुराणों में वर्णित ब्रम्हाजी , जो कि हिरण्यगर्भ हैं । हिरण्यगर्भ की अर्ध-नारीश्वर अभिव्यक्ति का उल्लेख वर्णित है । यह अर्ध-नारीश्वर अभिव्यक्ति भी रयि-प्राण अभिव्यक्ति ही है । पुरुष और नारी दोनो मिलकर ही एक पूर्ण है । पुरुष भी अपूर्ण है । नारी भी अपूर्ण है । पुरुष में भी नारी है । नारी में भी पुरुष है । यह माया कल्पित जगत् है । जगत् भी केवल अभिव्यक्ति मात्र है । जगत् की अभिव्यक्ति का सत्यत्व हिरण्यगर्भ है । इस स्थल पर विशेष ज्ञेय है कि , हिरण्यगर्भ स्वयॅं भी , जगत्-कारण ईश्वर की , छाया-सदृष्य उत्पत्ति हैं । ...... क्रमश:

रयि-प्राण

माया-कल्पित-जगत्-सोपान रयि-प्राण यह दो नाम मात्र लोक-व्यवहार के लिये हैं । उपरोक्त दोनो नामों का सत्यत्व हिरण्यगर्भ हैं । हिरण्यगर्भ ने अपने को रयि और प्राण के रूप में प्रगट किया है । उपरोक्त अभिव्यक्ति को ग्राह्य कराने हेतु वाष्प , बर्फ का दृष्टान्त दिया जाता है । वाष्प और बर्फ दोनो की ही वास्तविकता जल ही है । वाष्प और बर्फ व्यवहार के लिये , दो अलग स्थितियों को व्यक्त करने के लिये , दो भिन्न नाम मात्र हैं । उपरोक्त दृष्टान्त के दो नामों की सत्यता जल है । उपरोक्त दृष्टान्त सदृष्य ही , रयि और प्राण दोनो की ही सत्यता , हिरण्यगर्भ ही हैं । ...... क्रमश

मिथुन-सृष्टि

माया-कल्पित-जगत्-सोपान मिथुन-सृष्टि रयि-प्राण जो कि दो सिद्धान्त हैं , जो कि दोनो-प्रत्येक एक दूसरे के विपरीत स्वभाव के हैं , परन्तु दोनो मिलकर एक पूर्ण होते हैं । उदाहरण दिन-रात , जन्म-मृत्यु , उतरायणम्-दक्षिणायनम् , सृष्टि-प्रलयम् , स्त्री-पुरुष आदि । सम्पूर्ण सृष्टि उपरोक्त वर्णित मिथुनम् द्वारा सृजित हैं । उपरोक्त कथित मिथुनम् के अंग रयि और प्राण वास्तविकता में हिरण्यगर्भ की ही अभिव्यक्ति हैं । हिरण्यगर्भ नें , उपरोक्त कथित मिथुनम् के सृजन द्वारा , अपने को ही सृष्टि के रूप में विस्तृत करने को लक्षित करके किया है । उपरोक्त वर्णित मिथुनम् माया कल्पित जगत् की आधार-शिला है । उपरोक्त कथित मिथुनम् ही इस जगत् के विषय-वस्तु हैं । उपरोक्त कथित मिथुनम् ही इस जगत् के सापेक्ष अस्तित्व के आधार स्तम्भ हैं । उपरोक्त कथित मिथुनम् ही इस जगत् के प्रत्येक अवयव का उद्गम् हैं । हिरण्यगर्भ नें संकल्प किया कि , उपरोक्त कथित मिथुनम् ही , इस जगत् की सृष्टि प्रक्रिया में प्रजा का सृजन करेंगे , जो कि भोज्य जगत् के भोक्ता हैं । अत: प्रजा का सृजन ही , मिथुनम् के सृजन का प्रयोजन है । ....... क...

अपरा-विद्या

माया-कल्पित-जगत्-सोपान अपरा-विद्या जो व्यक्ति केवल कर्म करता है , वह कृष्ण गति द्वारा स्वर्ग-लोक को जाता है । जो व्यक्ति कर्म-उपासना करता है , वह शुक्ल गति द्वारा ब्रम्ह-लोक को जाता है । सृष्टि-प्रक्रिया का अध्ययन करने में प्रश्न उत्पन्न होता है कि उपरोक्त कथित सृष्टि प्रक्रिया के अध्ययन द्वारा व्यक्ति के किस प्रयोजन की पूर्ति सम्भव है । वेद उपदेश सदैव स-प्रयोजन होते हैं , इसलिये ही प्रामाणिक हैं । विद्वान आत्मज्ञानी आचार्य आदि-शंकर उपरोक्त वर्णित प्रयोजन का निर्धारण करते हैं कि जीव और जगत् के मध्य भोक्ता-भोज्य सम्बन्ध है , विषय-वस्तु का सम्बन्ध है , इसलिये जीव को स्पष्ट ज्ञान होता है कि , केवल कर्म का फल और कर्म-उपासना-समुच्चय का फल , व्यक्ति को मुक्ति नहीं प्रदान कर सकता है । विद्वान आचार्य के मत , यथा वर्णित उपरोक्त की व्याख्या करते हुये विद्वान आचार्य आनन्दगिरी कहते हैं कि , वैराग्य सिद्धर्थम् शास्त्र उपदेश का प्रयोजन है । ........ क्रमश:

पाँच-स्तरीय-जगत्

माया-कल्पित-जगत्-सोपान पाँच-स्तरीय-जगत् हिरण्यगर्भ , ईश्वर के मन:-संकल्प को साकार-रूप प्रदान करने का लक्ष्य मस्तिष्क में धारण कर , तप करते हैं । उपरोक्त कथित तप की प्रक्रिया में , उनके सम्मुख कारण-अवस्था में समस्त जीवों कें संचित कर्म-फलों का भण्डार है , विगत् सृष्टि की उत्पत्ति प्रक्रिया का दृष्टान्त है , सृष्टि-प्रक्रिया में प्रयुक्त होने वाली शक्तियों और उनके नियन्त्रक देवताओं का समूह है , और हिरण्यगर्भ को तपोबल द्वारा उपरोक्त समस्त के प्रयोग द्वारा एक ऐसे जगत् का सृजन करना लक्ष्य है जिसमें उपरोक्त कथित समस्त संचित-कर्म-फलों का न्याय-पूर्ण भोग सम्भव हो सकता है । उपनिषद व्यक्त करते हैं कि हिरण्यगर्भ ने तप द्वारा उपरोक्त वर्णित जगत् की मानसिक कल्पना सृजित किया है , पुन: उस मानसिक योजित जगत् का प्रक्षेपण अद्भुद् विज्ञान के पथ से सफलता पूर्वक किया है , जो कि पंच-स्तरीय नामत: मिथुन-सृष्टि , लोक-सृष्टि , काल-सृष्टि , अन्न-सृष्टि , प्रजा-सृष्टि है । ...... क्रमश:

सोपान-परिचय

माया-कल्पित-जगत्-सोपान सोपान-परिचय शास्त्र सतत् उपदेश करते हैं कि यह दृष्य जगत् मिथ्या है । व्यक्ति का अनुभव , इस दृष्य जगत् को प्रतिपल व्यवहार में सत्य अनुभव कर रहा है । इसलिये उपरोक्त वर्णित शास्त्र उपदेश किसी भी व्यक्ति को सहज ग्राह्य नहीं हो पाते है । व्यक्ति का मस्तिष्क शास्त्र के उपदेशों के प्रति सम्मानित भाव संजोये हुये , उपरोक्त विरोधाभास की स्थिति का निराकरण खोजता है । माया अद्भुद् शक्ति है । यह माया शक्ति ब्रम्ह को इस दृष्य जगत् के रूप में कैसे प्रस्तुत करती है , कि सर्वत्र भ्रान्ति जगत् ही सत्यवद् अनुभवगम्य होता है , और सत्य ब्रम्ह अदृष्य और अनुभवातीत होकर , एक रहस्यमय शास्त्र उपदेश बनकर रह जाता है । वर्तमान सोपान में उपरोक्त वर्णित माया शक्ति द्वारा जगत् की संरचना में प्रयुक्त अद्भुद् विज्ञान का , यथा शास्त्र उपदेश , परिचयात्मक उल्लेख , प्रस्तुत करने का प्रयत्न लक्षित किया जा रहा है । ..... क्रमश:

विवेक और निर्णय

पद-परिचय-सोपान विवेक और निर्णय विचार द्वारा निर्णय किया जाना अपेक्षित होता है । विचार विवेक का क्षेत्र होता है । उचित और अनुचित का परीक्षण करते हुये उचित को अंगीकार करना है । शास्त्र एवं गुरू ज्ञान का उपदेश करते हैं । उपदेश विदित करता है कि हित क्या है । अपेक्षित क्या है । परन्तु इस माया-सृष्टि के जगत्-व्यवहार में रत् व्यक्ति को व्यवहार और हित के मध्य संतुलन करना है । व्यवहार उसका जीवन है । हित उसका अपेक्षित है । उपरोक्त संतुलन ही सबसे बडा पुरुषार्थ है । उपरोक्त संतुलन विकसित विवेक द्वारा ही सम्भव हो सकता है । उपरोक्त संतुलन के लिये अति-शान्त-दशा का मस्तिष्क की अपेक्षा होती है । उपरोक्त समस्त जुटाना ही सर्वोच्च पुरुषार्थ होता है । दृढ निष्ठा और गुरू के प्रति समर्पित सानिध्य द्वारा ज्ञान सम्भव होता है.........क्रमश:

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 53

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 53 ज्ञान विषयक उपदेश को व्यक्ति मस्तिष्क में ही धारण कर सकता है । इस आलोक में मस्तिष्क और मस्तिष्क के सन्सकार अति महत्वपूर्ण प्रकरण है । व्यक्ति का उत्थान इस मस्तिष्क के नियन्त्रित आचरण द्वारा ही सम्भव हो सकता है । यह मस्तिष्क अहंकार का भी स्थल है । यह प्रकृतीय अर्थात् माया की रचना का फल है । इसलिये मस्तिष्क के सन्सकार अति महत्वपूर्ण विषय है । उचित सन्सकार व्यक्ति के अपने प्रयत्न , और दैव कृपा दोनो के समन्वय द्वारा ही सम्भव हो सकते है । इसलिये शास्त्र उपदेश करता है कि प्रयत्न करते रहो ईश्वर कृपा की याचना करते रहो वाँक्षित फल अवश्य प्राप्त होगा.........क्रमश:

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 52

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 52 ज्ञान विषयक शास्त्र उपदेश व्यक्ति को धारण करने के उद्देष्य से गुरू उन्हे जिज्ञासु शिष्य को देता है । शास्त्रों के निर्देश व्यक्ति धारण कर यथा उपदेश जीवन यापन करेगा तभी उन उपदेशों में निहित ज्ञान तत्व के प्रसाद का भोग कर सकेगा यह शास्त्र का निर्णय है । अज्ञान के फल से यह सन्सार है । गुरू उपदेश करता है कि ज्ञान के प्रसाद से मुक्ति है । मुक्ति दो स्तरीय है । प्रथम जीवन के शेष संचित फल क्षीण होने पर्यन्त इस सन्सार से मुक्ति है । द्वितीय इस जीवन की यात्रा पूर्ण होने पर इस जन्म मृत्यु के चक्र से मुक्ति है.........क्रमश:

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 51

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 51 स्वभाव का आत्मा को समर्पण का अभिप्राय होता है कि व्यष्टि का सर्वस्य को समर्पण है । स्वभाव का सृजन सदैव व्यक्ति के पूर्व के संचित कर्मों की आधार पर होता है । संचित कर्म सदैव अज्ञान के फल से सम्पादित कर्म होते   हैं । आत्मा ज्ञान स्वरूप है । अज्ञान का ज्ञान को समर्पण है । ज्ञान का स्वभाव सर्वविभू: है । सर्वविभू: अर्थात् सर्वत्र व्याप्त है । इस सर्वविभू: ज्ञांनस्वरूप के प्रसाद से ही अज्ञान भी प्रकाशित होता है , अर्थात् अ-ज्ञानी होने का बोध भी व्यक्ति को ज्ञान के प्रसाद से ही सम्भव होता है । एक जड पदार्थ को तो यह बोध भी नहीं हो सकता है कि वह जड है , अज्ञानी है । इसलिये जब तक व्यक्ति अपने अज्ञान के फल से प्राप्त स्वभाव को ज्ञान को समर्पित नहीं करेगा तब तक उसे ज्ञान सम्भव नहीं हो सकता है......क्रमश:

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 50

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 50 आत्मा ज्ञान स्वरूप है । उपरोक्त अभिव्यक्ति का स्वरूप ज्ञान इस प्रकार है । मैं हूँ इस ज्ञान बोध के लिये किसी भी व्यक्ति को किसी अन्य ज्ञान-श्रोत की आवश्यकता नहीं होती है । सूर्य के प्रकाश के बोध के लिये किसी अन्य प्रकाश-श्रोत की आवश्यकता नहीं होती है । उपरोक्त अभिव्यक्तियों में निहित भाव यह है कि कंचिद अंधकार में कोई वस्तु रखी हुई है तो उसे देखा नहीं जा सकता है । उस अंधकार में रखी वस्तु को देखने के लिये कोई बाह्य प्रकाश श्रोत के अवलम्ब से ही वह देखी जा सकती है । परन्तु सूर्य को देखने के लिये कोई अन्य प्रकाश श्रोत अपेक्षित नहीं है । आत्मा के प्रकरण में , कोई भी वस्तु-रूप-ज्ञान मस्तिष्क को तभी सम्भव होता है जब उस वस्तु-रूप की वृत्ति जो कि स्वयं जड होती है , में आत्मा का चैतन्य वेध करता है । परन्तु आत्मा के ज्ञान के लिये किसी अन्य चैतन्य सिद्धान्त का आश्रय अपेक्षित नहीं होता है । आत्मा स्वयं अपने को सभी को ज्ञान करा देती है । प्रति-बोध विदितं , यह शास्त्रीय अभिव्यक्ति है । किस रूप में ? उत्तर है , “ मैं हूँ” के रूप में , मैं हूँ के...

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 49

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 49 ज्ञान अर्थात् आत्मस्वरूप का ज्ञान की ग्राह्यता सदैव एक रूप में ही ग्राह्य होना सम्भव है अहम् आत्मा जिसका अभिप्राय है अहम् ब्रम्हास्मि क्योंकि आत्मा और ब्रम्ह एक है । उपरोक्त कथन का अभिप्राय और व्यवहारिक स्वरूप क्या है ? आत्मा ज्ञानस्वरूप है । आत्मा द्वारा ही ज्ञान सम्भव होता है । मैं हूँ । यह ज्ञान है । इस ज्ञान के लिये किसी अन्य ज्ञान की अपेक्षा नहीं होती है । यह स्वयं प्रकाशित ज्ञान है । यह प्रत्येक व्यक्ति को उसके जन्म से ही होता है । परन्तु इस ज्ञान की वृत्ति क्या है ? मस्तिष्क वृत्तिज्ञान को ही ज्ञान जानता है , यथा घट-ज्ञान अथवा पट-ज्ञान , अर्थात् घटज्ञान यथा घट-वृत्ति-ज्ञान , पट ज्ञान यथा पट-वृत्ति-ज्ञान है , तो उपरोक्त दृष्टान्त के आलोक में मस्तिष्क को मैं हूँ की ग्राह्यता के लिये मस्तिष्क को इस संदर्भित ज्ञान अर्थात् मैं हूँ के ज्ञान बोध के लिये मैं हूँ की वृत्ति की अपेक्षा होती है । आत्मा की वृत्ति , शास्त्र उपदेश करते हैं , अहम् ब्रम्हास्मि है । अब उपरोक्त संदर्भित प्रश्न का स्वरूप बनता है कि मस्तिष्क को वृत्ति ...

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 48

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 48 परमात्मा को समर्पण का अभिप्राय क्या है ? परमात्मा और आत्मा एक ही सत्य के दो व्यवहारिक जगत् में प्रचलित नाम मात्र हैं । परमात्मा समष्टि है तो आत्मा व्यष्टि है । परमात्मा को समर्पण का अर्थ समष्टि को समर्पण है । उपरोक्त संदर्भित प्रश्न का मूल निहित है , कि किसका समर्पण ? यदि वाच्यार्थ से विचार किया जाय , तो आत्मा का समर्पण , परन्तु यह उचित सिद्ध नहीं होता , क्योंकि आत्मा और परमात्मा एक ही हैं । इसलिये लक्ष्यार्थ लिया जायेगा स्वभाव का समर्पण , स्वभाव व्यक्ति का पूर्व जन्मों के कर्मों से सृजित है , इसलिये इस स्वभाव का परमात्मा को समर्पण करने द्वारा व्यक्ति समष्टि को व्यष्टि का अर्पण कर रहा है । यह प्रकृति के नियम के अनुकूल है । व्यष्टि उपरोक्त कथित समर्पण द्वारा समष्टि में समाहित हो रहा है..........क्रमश:   

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 47

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 47 अज्ञान सदैव अनादिकालीन होता है । परन्तु ज्ञान की दशा में अज्ञान का अन्त होता है । अहंकार अनादिकालीन होता है । परन्तु सत्य अर्थात् आत्मा अर्थात् स्वरूप का ज्ञान की दशा में अहंकार का क्षय होता है । अहंकार माया सृष्टि का फल है । मस्तिष्क चेतनवद् कार्य करता है , तभी भोज्य जगत् का अनुभव जीव ग्रहण करता है । व्यवहारिक जगत् इसी रूप के आश्रय से गतिमान है । इसलिये सामान्य व्यक्ति जन्म से मृत्यु पर्यन्त इसी व्यवहारिक स्वरूप से ही सन्तुष्ट है । परन्तु यह व्यवहारिक रूप पारमार्थिक नहीं है । इसलिये व्यक्ति को अपने उत्थान के लिये विचार करना चाहिये , सत्य का विचार करना चाहिये । सत्य कहीं दूर नहीं है । सत्य प्रत्येक व्यक्ति का अपना स्वरूप है । अपने स्वरूप के ज्ञान की लालसा से जब व्यक्ति गुरू की शरण ग्रहण करता है , गुरू शास्त्र प्रमणों द्वारा व्यक्ति को उसके स्वरूप की क्षवि का दर्शन कराते हैं । व्यक्ति की आत्मा ही ब्रम्ह है । आत्मा जीव में विद्यमान शुद्ध चैतन्य है । अहंकार चैतन्य की मस्तिष्क में अभिव्यक्ति है । अभिव्यक्ति केवल भ्रम है । सत्य को जानना ज...

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 46

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 46 आत्मा ज्ञानस्वरूप है । यह ज्ञान एक ही रूप में ग्राह्य होना सम्भव है । ज्ञान मैं हूँ । शास्त्र दर्पण सदृष्य व्यक्ति को उसके अपने स्वरूप की क्षवि दर्शाते हैं । आत्मा ब्रम्ह-स्वरूप दोनो एक दूसरे के पर्याय हैं । आत्मा का ध्यान अथवा ज्ञान एक भ्रामक अभिव्यक्ति है । आत्मा सत्य निरूपण है , मैं हूँ है । मैं जब जन्मा था , तब भी रूप यही था , मैं हूँ , मैं युवा हुआ तब भी रूप यही था , मैं हूँ , मैं जब बृद्ध हो गया तब भी रूप यही है , मैं हूँ , । आत्मा को ग्रहण कर लेना ही आत्म-ज्ञान है । आत्मा में जीवन यापन करना ही आत्मा का आश्रय है । ब्रम्ह और आत्मा एक ही सत्य के दो नाम हैं । नाम जगत् ने दिया है । सत्य तो अ-निर्वचनीय है । भ्रामक अहंकार का जीवन यापन करते हुये उपरोक्त कथित क्षवि को ग्रहण कर पाना अत्यधिक दुष्कर प्रयत्न है । मस्तिष्क का शुद्धता के लिये संस्कार अपेक्षित होता है । वैदिक कर्म-काण्ड मस्तिष्क को शुद्धता प्रदान करते हैं । उपासना अभ्यास मस्तिष्क की ग्राह्य क्षमता का विस्तार करता है । शुद्ध-सात्विक-विकसित मस्तिष्क ही उपरोक्त कथित क्ष...

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 45

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 45 ब्रम्ह को असंग , निराकार , निर्विकार , अनन्त , आनन्द उपदेश किया गया है । पद नाम होता है । पदार्थ रूप होता है । किसी रूप को कोई नाम देकर उसे जगत् के व्यवहार में प्रयोग किया जाता है । जगत् रूप है इसलिये इसे नाम अर्थात् पद जगत् देकर व्यवहार में प्रचलित किया जाता है । इस जगत् पद का पदार्थ ब्रम्ह है । जब विचारक जगत् को एक सत्य मानने की चेष्टा करते हैं , तो जगत् को मिथ्या कह कर उनकी चेष्टा का निषेध किया जाता है । जब पदार्थ का निषेध कर दिया जाता है तब पद का औचित्य भी समाप्त हो जाता है । उपरोक्त मींमासा के आधार पर , जब द्वैत का प्रचार किया जाता है तो उस प्रचार का खण्डन करने के लिये अद्वैत कहा जाता है । परन्तु जब द्वैत का खण्डन हो गया तब अद्वैत का भी कोई अर्थ नहीं रह जाता है । इस प्रकार ब्रम्ह के लिये जो भी लक्षण निर्धारित किये जाते हैं वह सब केवल जगत् के व्यवहार में प्रचलित मानको के आधार पर व्यक्ति को ब्रम्ह की विलक्षणता का भास कराने के लिये किये जाते हैं । ब्रम्ह की अभिव्यक्ति केवल एक है , मौन ............क्रमश:

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 44

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 44 ब्रम्ह शाश्वत् ज्ञानस्वरूप है । माया उसकी बौद्धिक कौशल है । ब्रम्ह और माया भिन्न नहीं हैं । माया ब्रम्ह को ही इस जगत् के नाम-रूप-कर्म के रूप में प्रक्षेपित कर प्रस्तुत की है । ब्रम्ह और जगत् दो भिन्न अस्तित्व नहीं है । ब्रम्ह ही जगत् के रूप में भासित हो रहा है । जीव जिसमें मनुष्य भी सम्मलित है , इस जगत् का ही अवयव है । माया समष्टि जगत् का संचालन करती है । जगत् के व्यवहार चेतन जीव और अ-चेतन प्रपंचों के मध्य परस्पर क्रिया-प्रतिक्रिया है । जीव का मस्तिष्क एक सीमित यन्त्र है । इस सीमित मस्तिष्क के लिये समष्टि विचार ही पहले तो एक बडा लक्ष्य बन जाता है । फिर अनन्त ब्रम्ह की कल्पना तो उस सीमित मस्तिष्क के लिये असाध्य लक्ष्य के समान हो जाता है । इसलिये मस्तिष्क को उस ब्रम्ह को ही समर्पित करने का उपदेश शास्त्र करते हैं.........क्रमश:

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 43

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 43 कर्म की उत्पत्ति अज्ञान से है । इसलिये विद्वान आत्मज्ञानी आचार्य आदि-शंकर बताते हैं कि मुक्ति ज्ञान से है । कर्म और मुक्ति में क्या सम्बन्ध है ? कर्म बन्धन है , पाप-पुण्य का बन्धन है , जीवन-मृत्यु का बन्धन है । मुक्ति अमृतत्व की प्राप्ति है । अमृत ब्रह है । ज्ञान ब्रम्हस्वरूप है । ज्ञान द्वारा ब्रम्ह का बोध होता है । आत्मा ब्रम्हस्वरूप है । आत्मस्वरूप जीव का स्वरूप है । जीव को अपने स्वरूप का ज्ञान नहीं है । वह अहंकार को अपना स्वरूप समझता है । इस मरण-धर्मा स्थूल शरीर को अपना परिचय मानता है । इसलिये वह परिच्छिन्न है । इसलिये वह असुरक्षित है । वह सदैव काल से भयभीत है । अपनी परिच्छिन्नता की पूर्ति के लिये वह कर्म करता है । अप्राप्त को प्राप्त करने की इच्छा करता है । वह बन्धन के पथ का पथिक है । यह माया सृष्टी के जीव की स्वच्छ क्षवि है । जब तक यह परिच्छिन्न जीव यह नहीं विचार करेगा कि , मैं कौन हूँ ? तब तक वह बन्धन पथ पर ही चलता जायेगा , इसका कोई अन्यथा विकल्प नहीं है । जिस दिन वह विचार करना शुरू कर देगा कि मैं कौन हूँ ? उसके मुक्ति क...

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 42

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 42 कार्य-कार्यफल यह वृहद प्रकरण है । श्रुतियों में प्रत्येक कर्म-आदेश के साथ ही उस कर्म के सम्पादन द्वारा आहरित होने वाले कर्म-फल को भी बताया गया है । कर्म-फल दो प्रकार के होते हैं , पहला व्यक्त कर्म-फल , दूसरा अ-व्यक्त कर्म-फल होते हैं । व्यक्त-कर्म-फल लौकिक जगत् की व्यवहारिक उपलब्धियों यथा अर्थ , यश आदि के क्षेत्र के होते हैं , और अ-व्यक्त-कर्म-फल अध्यात्मिक जगत् के यथा पुण्य-पाप आदि के क्षेत्र के होते हैं । परन्तु एक बडा मौलिक प्रश्न है जो कि कर्म की आवश्यकता से सम्बन्धित है । कर्म की आवश्यकता क्यों हैं ? जीव की उत्पत्ति को शास्त्र उपदेश करते हैं कि उसके पूर्व के संचित कर्म-फलों के भोग के निमित्त है । ऐसे जीव को कर्म की आवश्यकता ही क्यों है ? सृष्टि का विधान है कि कर्ता प्रकृति है । जीव क्या है ? जीव प्रकृति का अंश है । ऐसी स्थिति में जीव का कर्तव्य होता है कि वह प्रकृति की अपेक्षानुसार कर्म करे । यदि कंचिद जीव उपरोक्त वर्णित विधान की अपेक्षानुसार कर्म करता है तो उस कर्म के फल का भोग उस जीव के लिये बाध्यता नहीं होगी । तो प्रश्न...

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 41

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 41 प्रत्येक जीव की वर्तमान शरीर , उसे अपने पूर्व के जन्मों के संचित कर्म-फलों के भोग के लिये मिली है , ऐसा उपदेश शास्त्र प्रमाणों में निहित है । इस स्थल पर दो प्रश्न उठते हैं ? पहला कि यदि वर्तमान स्थूल शरीर को फल भोग साधन बताया जा रहा है , तो जीव कौन है ? दूसरा उसे अपने पूर्व के जन्मों के संचित कर्म-फलों के भोग के लिये मिली है , इस नियम का औचित्य क्या है ? दोनो ही उत्तम प्रश्न हैं । प्रश्न एक का उत्तर गत अंक 41 में था , और दूसरे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है , सृष्टि की संचालक प्रकृति को बताया गया है । वर्तमान संदर्भ में , प्रकृति अर्थात् समष्टि के रूप में लिया जाना औचित्यपूर्ण है । व्यष्टि अर्थात् जीव कोई भी कार्य बिना समष्टि के योगदान के नहीं सम्भव बना सकता है । कार्य छोटे से छोटा हो अथवा बडे से बडा है , व्यष्टि बिना समष्टि के सम्मलित हुये उस कार्य को सम्पादित नहीं कर सकता है । यह नित्य का व्यवहार का अनुभव भी है । यह सृष्टि का नियम भी है । यद्यपि कि यह जीव के अहंकार के विरुद्ध है । इस कारण सहसा इस नियम को जीव स्वीकार नहीं करता...

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 40

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 40 प्रत्येक जीव की वर्तमान शरीर , उसे अपने पूर्व के जन्मों के संचित कर्म-फलों के भोग के लिये मिली है , ऐसा उपदेश शास्त्र प्रमाणों में निहित है । इस स्थल पर दो प्रश्न उठते हैं ? पहला कि यदि वर्तमान स्थूल शरीर को फल भोग साधन बताया जा रहा है , तो जीव कौन है ? दूसरा उसे अपने पूर्व के जन्मों के संचित कर्म-फलों के भोग के लिये मिली है , इस नियम का औचित्य क्या है ? दोनो ही उत्तम प्रश्न हैं । पहले प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है , जीव की तीन शरीरों का उल्लेख मिलता है , स्थूल-शरीर , सूक्ष्म-शरीर , कारण-शरीर होती है । जैसा की नाम से ही विदित है , कारण-शरीर कारण है और सूक्ष्म-शरीर और स्थूल-शरीर उसके कार्य हैं । कारण-शरीर समस्त अव्यक्त नामत: अव्यक्त कर्म-फल , अव्यक्त-मस्तिष्क , अव्यक्त-अवस्था की धारक होती है । अव्यक्त कर्म-फल पूर्व जन्मों के संचित कर्म-फल होते हैं जिनका भोग अभी शेष है । अव्यक्त-मस्तिष्क जीव के प्रतिदिन की सुशुप्ति-दशा में होता है । अव्यक्त-अवस्था और व्यक्त-अवस्था यह सृष्टि का संचालन क्रम है । स्थूल-शरीर के माध्यम से जीव जगत्...

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 39

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 39 आत्मस्वरूप जो कि स्वयं ज्ञानस्वरूप है , का ज्ञान ग्रहण करना है , मस्तिष्क को जो कि स्वयं अहंकार से संचालित हो रहा है । इसलिये उपरोक्त ज्ञान प्रक्रिया गूढ विषय होता है । विषय को विषय का ज्ञान करना है । सामान्य व्यवहार में जगत् के स्थूल नाम-रूपों के ज्ञान की प्रक्रिया में मस्तिष्क को ज्ञान आत्मस्वरूप के आश्रय से सम्भव होता है । तो प्रश्न उठता है कि स्वयं आत्मस्वरूप का ज्ञान मस्तिष्क में किसके आश्रय से सम्भव हो सकता है ? उत्तर है उसी आत्मस्वरूप के ही आश्रय से ही यह आत्मज्ञान भी सम्भव है । इसलिये यह ज्ञान प्रक्रिया गूढ विषय है । उपरोक्त कथन का विस्तार इस प्रकार है । आत्मज्ञान की वृत्ति बोध जब मस्तिष्क में व्याप्त हो जायेगा तो , स्वयं उसी आत्मस्वरूप के आश्रय द्वारा ही वह वृत्ति व्याप्ति भी आत्मज्ञान में पर्णित होती है । इस प्रकार आत्मज्ञान की प्रक्रिया में समस्त प्रयत्न केवल आत्मा की वृत्ति-बोध पर्यन्त ही है । आत्मा सदैव असंग निर्विकार अनन्त तत्व है । इसलिये यह किसी भी प्रमाण का किसी भी दशा में प्रमेय नहीं बन सकता है । इसलिये शास्त्र प्र...

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 38

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 38 यदि ब्रम्ह जगत् का कारण है तो जगत् ब्रम्ह का कार्य है । कारण ही कार्य में विद्यमान रहता है । प्रत्येक स्वर्णा आभूषण में कारण स्वर्ण विद्यमान है । जगत् के प्रत्येक नाम-रूप में ब्रम्ह विद्यमान है । माया ब्रम्ह की बौद्धिक शक्ति है । जगत् के सम्पादन समस्त गति की कर्ता प्रकृति है । प्रकृति और माया पर्याय हैं । जगत् के कर्मों और गति के प्रकरण में जीव भी प्रकृति के प्रतिनिधि रूप में हैं । इस क्रम में यदि जीव प्रकृति की अपेक्षानुसार कर्म कर रहा है , तो उसका उचित कर्म है । उचित कर्म का पुण्य पर्याय है । उपरोक्त के विपरीत प्रकृति की अपेक्षा के विरुद्ध किया गया कर्म सम्पादन अनुचित है । अनुचित कर्म पाप का पर्याय है । जीव का इच्छाजनित कर्म अनुचित कर्म है । कर्मफल की अपेक्षा से किया गया कर्म अनुचित कर्म है । पुण्य और पाप अदृष्य कार्य-फल होते हैं । परन्तु इनका संचय ही जीव के पुनर्जन्म का निमित्त बनता है.........क्रमश:  

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 37

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 37 आत्मा ज्ञान-स्वरूप है । जीव के मस्तिष्क में जगत् के वस्तु-नाम-रूपों की वृत्तियां इन्द्रियों के माध्यम से आहरित होती है । उपरोक्त कथित जड वृत्तियों मे जब आत्मा का सर्व-विभू: चैतन्य व्याप्त होता है तो उपरोक्त कथित नाम-रूप-वृत्तियाँ नाम-रूप-ज्ञान में पर्णित हो जाती हैं । इस प्रकार मस्तिष्क में घटित होने वाले समस्त ज्ञान बोध , ज्ञान-स्वरूप आत्मा के आश्रय पर ही सम्भव होते हैं । परन्तु माया उपरोक्त वर्णित ज्ञान-बोध प्रक्रिया को जीव के सज्ञान से आवृत्त करती है , ढक देती है । सत्य को जब ढक दिया जाता है तब सदैव प्रतिफल के रूप में भ्रान्ति का उदय होता है । उपरोक्त वर्णित ज्ञान प्रक्रिया को जब माया जीव के सज्ञान से ढकती है तो अहंकार नामक भ्रान्ति का उदय होता है । जीव अपने को प्रमाता जानने लगता है । फिर तो इस प्रमाता द्वारा एक लम्बी श्रंखला ही सृजित कर ली जाती है , वह प्रमाता जीव कर्ता बन जाता है भोक्ता बन जाता है......और सन्सार चल पडता है.........पाप-पुण्य चल पडते हैं.........जन्म-मृत्यु का चक्र चल पडता है । ......... क्रमश: 

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 36

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 36 जीव वह यन्त्र है जिसे माया ने सृजित किया है । यह जड पदार्थो से निर्मित है जो कि शुद्ध चैतन्य की उपस्थिति में , मस्तिष्क में चैतन्य की व्याप्ति के फल से चेतनवद् व्यवहार करता है । इसके मस्तिष्क में उपलब्ध क्षमता के अनुसार इसमें स्वतन्त्र कर्म करने की क्षमता भी है । परन्तु इस उपलब्ध स्वतन्त्र कर्म करने की क्षमता का प्रयोग करके किये गये कर्मों के द्वारा सृजित कर्म-फलों का भोग उसके लिये अपरिहार्य बाध्यता होती है । जब कि जीव के रचना की , मौलिक कल्पना , माया ने करते हुये , इसकी उत्पत्ति का हेतु के रूप में , माया ने इसे , अपने योजित कर्मो के सम्पादन की प्रक्रिया में अपने कर्म-प्रतिनिधि के रूप में प्रयोग करने के उद्देष्य से किया है । उपरोक्त वर्णन के अनुसार सृजनकर्ता माया की सृजन की मंशा और जीव द्वारा कृत कर्म मे भेद की स्थिति ही , त्रासदाओं को निमन्त्रित करने वाली होती है । कारण कि माया का समस्त कर्म न्याय पर आधारित होता है । ....... क्रमश:   

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 35

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 35 यह माया कल्पित स्थूल-शरीर , सूक्ष्म-शरीर की संरचना एक यन्त्र के समान है । जिस प्रकार एक किसी विद्युत शक्ति से कार्य करने वाले यन्त्र की संरचना की जाती है , वह यन्त्र जब तक उसमें विद्युत का प्रवाह नहीं होता है अक्रिया-कारी रहता है , परन्तु उसी यन्त्र में जब विद्युत प्रवाह संचरित किया जाता है वह क्रियाकारी हो जाता है और यथा निर्माण-कला वह प्रकाश प्रसारित करने लगता है अथवा किसी प्रकार की पूर्व-निर्धारित गति करने लगता है आदि , उसी प्रकार यह माया कल्पित जड-शरीर चैतन्य के मस्तिष्क में व्याप्ति के फल से समस्त इन्द्रियों सहित चेतन-वद् व्यवहार करने लगता है । यह माया-कल्पित रोबोट इस माया-कल्पित मिथ्या जगत् के साथ व्यवहार करता है । उपरोक्त समस्त विवरण के अनुसार उपरोक्त वर्णित व्यवहार में जीव कहा जाने वाला रोबोट और जगत् के जड प्रपंच दोनो ही मिथ्या हैं , क्योंकि दोनो ही माया कल्पित हैं । इसलिये दोनो एक दूसरे को सत्य मानते हैं । जगत् जीव को और जीव जगत् को दोनो एक दूसरे को सत्य मानते है । परन्तु दोनो का सत्यत्व आश्रित है । उपरोक्त दोनो ही मिथ्या ...