मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 43


पद-परिचय-सोपान
मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 43 कर्म की उत्पत्ति अज्ञान से है । इसलिये विद्वान आत्मज्ञानी आचार्य आदि-शंकर बताते हैं कि मुक्ति ज्ञान से है । कर्म और मुक्ति में क्या सम्बन्ध है ? कर्म बन्धन है, पाप-पुण्य का बन्धन है, जीवन-मृत्यु का बन्धन है । मुक्ति अमृतत्व की प्राप्ति है । अमृत ब्रह है । ज्ञान ब्रम्हस्वरूप है । ज्ञान द्वारा ब्रम्ह का बोध होता है । आत्मा ब्रम्हस्वरूप है । आत्मस्वरूप जीव का स्वरूप है । जीव को अपने स्वरूप का ज्ञान नहीं है । वह अहंकार को अपना स्वरूप समझता है । इस मरण-धर्मा स्थूल शरीर को अपना परिचय मानता है । इसलिये वह परिच्छिन्न है । इसलिये वह असुरक्षित है । वह सदैव काल से भयभीत है । अपनी परिच्छिन्नता की पूर्ति के लिये वह कर्म करता है । अप्राप्त को प्राप्त करने की इच्छा करता है । वह बन्धन के पथ का पथिक है । यह माया सृष्टी के जीव की स्वच्छ क्षवि है । जब तक यह परिच्छिन्न जीव यह नहीं विचार करेगा कि, मैं कौन हूँ ? तब तक वह बन्धन पथ पर ही चलता जायेगा, इसका कोई अन्यथा विकल्प नहीं है । जिस दिन वह विचार करना शुरू कर देगा कि मैं कौन हूँ ? उसके मुक्ति की सम्भावाओं का जन्म सम्भावित हो जायेगा.........क्रमश: 

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