मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 37
पद-परिचय-सोपान
मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 37 आत्मा ज्ञान-स्वरूप है ।
जीव के मस्तिष्क में जगत् के वस्तु-नाम-रूपों की वृत्तियां इन्द्रियों के माध्यम
से आहरित होती है । उपरोक्त कथित जड वृत्तियों मे जब आत्मा का सर्व-विभू: चैतन्य
व्याप्त होता है तो उपरोक्त कथित नाम-रूप-वृत्तियाँ नाम-रूप-ज्ञान में पर्णित हो
जाती हैं । इस प्रकार मस्तिष्क में घटित होने वाले समस्त ज्ञान बोध, ज्ञान-स्वरूप आत्मा के आश्रय पर ही सम्भव होते हैं । परन्तु माया उपरोक्त
वर्णित ज्ञान-बोध प्रक्रिया को जीव के सज्ञान से आवृत्त करती है, ढक देती है । सत्य को जब ढक दिया जाता है तब सदैव प्रतिफल के रूप में
भ्रान्ति का उदय होता है । उपरोक्त वर्णित ज्ञान प्रक्रिया को जब माया जीव के
सज्ञान से ढकती है तो अहंकार नामक भ्रान्ति का उदय होता है । जीव अपने को प्रमाता जानने
लगता है । फिर तो इस प्रमाता द्वारा एक लम्बी श्रंखला ही सृजित कर ली जाती है, वह प्रमाता जीव कर्ता बन जाता है भोक्ता बन जाता है......और सन्सार चल पडता
है.........पाप-पुण्य चल पडते हैं.........जन्म-मृत्यु का चक्र चल पडता है । .........
क्रमश:
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