मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 36


पद-परिचय-सोपान
मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 36 जीव वह यन्त्र है जिसे माया ने सृजित किया है । यह जड पदार्थो से निर्मित है जो कि शुद्ध चैतन्य की उपस्थिति में, मस्तिष्क में चैतन्य की व्याप्ति के फल से चेतनवद् व्यवहार करता है । इसके मस्तिष्क में उपलब्ध क्षमता के अनुसार इसमें स्वतन्त्र कर्म करने की क्षमता भी है । परन्तु इस उपलब्ध स्वतन्त्र कर्म करने की क्षमता का प्रयोग करके किये गये कर्मों के द्वारा सृजित कर्म-फलों का भोग उसके लिये अपरिहार्य बाध्यता होती है । जब कि जीव के रचना की, मौलिक कल्पना, माया ने करते हुये, इसकी उत्पत्ति का हेतु के रूप में, माया ने इसे, अपने योजित कर्मो के सम्पादन की प्रक्रिया में अपने कर्म-प्रतिनिधि के रूप में प्रयोग करने के उद्देष्य से किया है । उपरोक्त वर्णन के अनुसार सृजनकर्ता माया की सृजन की मंशा और जीव द्वारा कृत कर्म मे भेद की स्थिति ही, त्रासदाओं को निमन्त्रित करने वाली होती है । कारण कि माया का समस्त कर्म न्याय पर आधारित होता है । ....... क्रमश:  

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