मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 41
पद-परिचय-सोपान
मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 41 प्रत्येक जीव की वर्तमान शरीर, उसे अपने पूर्व के जन्मों के संचित
कर्म-फलों के भोग के लिये मिली है, ऐसा उपदेश शास्त्र प्रमाणों में निहित है
। इस स्थल पर दो प्रश्न उठते हैं ? पहला कि यदि वर्तमान स्थूल शरीर को फल
भोग साधन बताया जा रहा है, तो जीव कौन है ? दूसरा उसे अपने पूर्व के जन्मों के संचित कर्म-फलों के भोग के लिये मिली
है, इस नियम का औचित्य क्या है ? दोनो ही उत्तम प्रश्न हैं । प्रश्न एक का
उत्तर गत अंक 41 में था, और दूसरे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है, सृष्टि की संचालक प्रकृति को बताया गया है । वर्तमान संदर्भ में, प्रकृति अर्थात् समष्टि के रूप में लिया जाना औचित्यपूर्ण है । व्यष्टि
अर्थात् जीव कोई भी कार्य बिना समष्टि के योगदान के नहीं सम्भव बना सकता है ।
कार्य छोटे से छोटा हो अथवा बडे से बडा है, व्यष्टि बिना समष्टि के सम्मलित हुये उस
कार्य को सम्पादित नहीं कर सकता है । यह नित्य का व्यवहार का अनुभव भी है । यह
सृष्टि का नियम भी है । यद्यपि कि यह जीव के अहंकार के विरुद्ध है । इस कारण सहसा
इस नियम को जीव स्वीकार नहीं करता है । परन्तु नियम दृढ है । भले ही प्रारम्भिक
अवस्था में किसी को यह अस्वीकार्य प्रतीत होवे, परन्तु इस नियम का अपवाद नहीं है । कारण
कि प्रत्येक व्यष्टि समष्टि का अंग है । संचालन समष्टि का होता है । व्यष्टि केवल
समष्टि का प्रतिनिधि है । इसे ग्राह्य बनाना बुद्धिमत्ता है । इसलिये उपरोक्त नियम
का पालन प्रत्येक जीव की बाध्यता होती है । उपरोक्त नियम के उलंघन द्वारा ही
पाप-पुण्य सृजित होते हैं । इन्ही अर्जित पाप-पुण्यों को भोगने के लिये ही
पुनर्जन्म होता है.......क्रमश:
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