मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 39
पद-परिचय-सोपान
मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 39 आत्मस्वरूप जो कि स्वयं ज्ञानस्वरूप है, का ज्ञान ग्रहण
करना है, मस्तिष्क को जो कि स्वयं अहंकार से
संचालित हो रहा है । इसलिये उपरोक्त ज्ञान प्रक्रिया गूढ विषय होता है । विषय को
विषय का ज्ञान करना है । सामान्य व्यवहार में जगत् के स्थूल नाम-रूपों के ज्ञान की
प्रक्रिया में मस्तिष्क को ज्ञान आत्मस्वरूप के आश्रय से सम्भव होता है । तो
प्रश्न उठता है कि स्वयं आत्मस्वरूप का ज्ञान मस्तिष्क में किसके आश्रय से सम्भव
हो सकता है ? उत्तर है उसी आत्मस्वरूप के ही आश्रय से
ही यह आत्मज्ञान भी सम्भव है । इसलिये यह ज्ञान प्रक्रिया गूढ विषय है । उपरोक्त
कथन का विस्तार इस प्रकार है । आत्मज्ञान की वृत्ति बोध जब मस्तिष्क में व्याप्त
हो जायेगा तो, स्वयं उसी आत्मस्वरूप के आश्रय द्वारा ही
वह वृत्ति व्याप्ति भी आत्मज्ञान में पर्णित होती है । इस प्रकार आत्मज्ञान की
प्रक्रिया में समस्त प्रयत्न केवल आत्मा की वृत्ति-बोध पर्यन्त ही है । आत्मा सदैव
असंग निर्विकार अनन्त तत्व है । इसलिये यह किसी भी प्रमाण का किसी भी दशा में
प्रमेय नहीं बन सकता है । इसलिये शास्त्र प्रमाण दर्पण के समान व्यक्ति को उसकी
आत्मा की क्षवि उसके अपने स्वरूप के रूप में बोध कराते हैं । व्यक्ति के मस्तिष्क
में विद्यमान शुद्ध चैतन्य जो कि मस्तिष्क से असंग है, जो कि
मस्तिष्क में व्याप्त वृत्तियों का साक्षी है, वह व्यक्ति की
आत्मा है, जो कि ब्रम्हस्वरूप है । इस रूप में आत्मज्ञान की
वृत्ति है अहम् ब्रम्हास्मि । इस वृत्ति की व्याप्ति मात्र अज्ञान का नाशक
होती है । अज्ञान का क्षय मात्र ही ज्ञान की प्राप्ति है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति
का स्वरूप सदैव नित्य ब्रम्हस्वरूप है । मात्र उपरोक्त ज्ञान के अभाव मात्र से वह
सन्सारी जीव है, इसलिये आत्माज्ञान की कही जाने वाली
प्राप्ति केवल आत्मस्वरूप के अज्ञान का निवारण है..........क्रमश:
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