मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 50
पद-परिचय-सोपान
मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 50 आत्मा ज्ञान स्वरूप है । उपरोक्त अभिव्यक्ति का स्वरूप ज्ञान इस प्रकार
है । मैं हूँ इस ज्ञान बोध के लिये किसी भी व्यक्ति को किसी अन्य
ज्ञान-श्रोत की आवश्यकता नहीं होती है । सूर्य के प्रकाश के बोध के लिये किसी अन्य
प्रकाश-श्रोत की आवश्यकता नहीं होती है । उपरोक्त अभिव्यक्तियों में निहित भाव यह
है कि कंचिद अंधकार में कोई वस्तु रखी हुई है तो उसे देखा नहीं जा सकता है । उस
अंधकार में रखी वस्तु को देखने के लिये कोई बाह्य प्रकाश श्रोत के अवलम्ब से ही वह
देखी जा सकती है । परन्तु सूर्य को देखने के लिये कोई अन्य प्रकाश श्रोत अपेक्षित
नहीं है । आत्मा के प्रकरण में, कोई भी वस्तु-रूप-ज्ञान मस्तिष्क को तभी
सम्भव होता है जब उस वस्तु-रूप की वृत्ति जो कि स्वयं जड होती है, में आत्मा का चैतन्य वेध करता है । परन्तु आत्मा के ज्ञान के लिये किसी
अन्य चैतन्य सिद्धान्त का आश्रय अपेक्षित नहीं होता है । आत्मा स्वयं अपने को सभी
को ज्ञान करा देती है । प्रति-बोध विदितं, यह शास्त्रीय अभिव्यक्ति है । किस रूप
में ? उत्तर है, “मैं हूँ” के रूप में, मैं हूँ के अभिव्यक्ति में
व्यक्ति किसकी उपस्थिति को स्वीकार रहा है ? उत्तर है, अपने स्वरूप को
अर्थात् अपनी आत्मा को व्यक्ति स्वीकार रहा है.......क्रमश:
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