मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 49


पद-परिचय-सोपान
मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 49 ज्ञान अर्थात् आत्मस्वरूप का ज्ञान की ग्राह्यता सदैव एक रूप में ही ग्राह्य होना सम्भव है अहम् आत्मा जिसका अभिप्राय है अहम् ब्रम्हास्मि क्योंकि आत्मा और ब्रम्ह एक है । उपरोक्त कथन का अभिप्राय और व्यवहारिक स्वरूप क्या है ? आत्मा ज्ञानस्वरूप है । आत्मा द्वारा ही ज्ञान सम्भव होता है । मैं हूँ । यह ज्ञान है । इस ज्ञान के लिये किसी अन्य ज्ञान की अपेक्षा नहीं होती है । यह स्वयं प्रकाशित ज्ञान है । यह प्रत्येक व्यक्ति को उसके जन्म से ही होता है । परन्तु इस ज्ञान की वृत्ति क्या है ? मस्तिष्क वृत्तिज्ञान को ही ज्ञान जानता है, यथा घट-ज्ञान अथवा पट-ज्ञान, अर्थात् घटज्ञान यथा घट-वृत्ति-ज्ञान, पट ज्ञान यथा पट-वृत्ति-ज्ञान है, तो उपरोक्त दृष्टान्त के आलोक में मस्तिष्क को मैं हूँ की ग्राह्यता के लिये मस्तिष्क को इस संदर्भित ज्ञान अर्थात् मैं हूँ के ज्ञान बोध के लिये मैं हूँ की वृत्ति की अपेक्षा होती है । आत्मा की वृत्ति, शास्त्र उपदेश करते हैं, अहम् ब्रम्हास्मि है । अब उपरोक्त संदर्भित प्रश्न का स्वरूप बनता है कि मस्तिष्क को वृत्ति अहम् ब्रम्हास्मि को, आत्मा की वृत्ति के रूप में ग्रहण करना है । इस ग्राह्यता का व्यवहारिक स्वरूप यह है कि व्यक्ति ब्रम्ह में जीवन यापन करे, अर्थात् ब्रम्ह के रूप में जीवन को व्यव्हृत करे, ब्रम्ह असंग है, अनन्त है, सर्वविभू: है, इस अनुभूति को अपनी अनुभूति के रूप में व्यव्हृत करे, यह स्वरूप को व्यापक बनाना है, यह स्वरूप को सर्वभौम बनाना है.......क्रमश:

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