मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 42
पद-परिचय-सोपान
मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 42 कार्य-कार्यफल यह वृहद प्रकरण है । श्रुतियों में प्रत्येक कर्म-आदेश के
साथ ही उस कर्म के सम्पादन द्वारा आहरित होने वाले कर्म-फल को भी बताया गया है ।
कर्म-फल दो प्रकार के होते हैं, पहला व्यक्त कर्म-फल, दूसरा अ-व्यक्त कर्म-फल होते हैं । व्यक्त-कर्म-फल लौकिक जगत् की
व्यवहारिक उपलब्धियों यथा अर्थ, यश आदि के क्षेत्र के होते हैं, और अ-व्यक्त-कर्म-फल अध्यात्मिक जगत् के यथा पुण्य-पाप आदि के क्षेत्र
के होते हैं । परन्तु एक बडा मौलिक प्रश्न है जो कि कर्म की आवश्यकता से सम्बन्धित
है । कर्म की आवश्यकता क्यों हैं ? जीव की उत्पत्ति को शास्त्र उपदेश करते
हैं कि उसके पूर्व के संचित कर्म-फलों के भोग के निमित्त है । ऐसे जीव को कर्म की
आवश्यकता ही क्यों है ? सृष्टि का विधान है कि कर्ता प्रकृति है
। जीव क्या है ? जीव प्रकृति का अंश है । ऐसी स्थिति में
जीव का कर्तव्य होता है कि वह प्रकृति की अपेक्षानुसार कर्म करे । यदि कंचिद जीव
उपरोक्त वर्णित विधान की अपेक्षानुसार कर्म करता है तो उस कर्म के फल का भोग उस
जीव के लिये बाध्यता नहीं होगी । तो प्रश्न उठता हैं कि वह कर्म-फल जिन्हे भोगने
के लिये जीव का सृजन अथवा उत्पत्ति प्रकृति ने की है वह कर्म कौन से थे ? उत्तर है कि जिन कर्मों को जीव ने प्रकृति की अपेक्षा के विरुद्ध अपनी
इन्द्रीय वासना वृत्तियों की पूर्ति हेतु किया है, यह उन कर्मों के
फल हैं जिसे उसे भोगना है । अब यदि अन्वेषण को और आगे बढाया जाय कि जीव ने अपनी
वासना वृत्तियों की पूर्ति हेतु कर्म क्यों किये ? उत्तर निकलता है, अज्ञान-वश । किसका अज्ञान ? सत्य का अज्ञान, उत्तर है । सत्य क्या है ? उसका अपना स्वरूप उसकी अपनी आत्मा सत्य
है, जिससे जीव अपरिचित है..........क्रमश:
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