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आत्मा-एक

पद-परिचय-सोपान आत्मा-एक जीवात्मा और परमात्मा दो शब्द मात्र हैं । आत्मा जब अपने को एक एकल सूक्ष्म-स्थूल-कारण-शरीर-जीव के माध्यम् से व्यक्त करता है , तो उसे आत्मा नाम दिया जाता है । आत्मा जब अपने को समस्त-अनात्मन-प्रपंच के माध्यम् से व्यक्त करता है , तब उसे परमात्मा नाम दिया जाता है । जब कंचिद आत्मा को उपरोक्त कथित अनात्मन सम्बन्धो से अलग विचार किया जाता है , तब आत्मा एक है । ..... क्रमश:

आत्मा-अनात्मा-सम्बन्ध

पद-परिचय-सोपान आत्मा-अनात्मा-सम्बन्ध चैतन्य का विचार जब एकाकी अनात्मन-स्थूल-सूक्ष्म-कारण-शरीर के प्रसंग में किया जाता है , तब उसे आत्मा शब्द द्वारा व्यक्त किया जाता है । चैतन्य का विचार जब समष्टि अनात्मन-प्रपंचों के प्रसंग में किया जाता है , तब उसे परमात्मा शब्द द्वारा व्यक्त किया जाता है । आत्मा और परमात्मा , लोकव्यवहार में प्रयुक्त दो अलग पद-नाम हैं , जो कि एक ही चैतन्य-तत्व के लिये दो अलग प्रसंगो में किये जाते हैं । एक ही चैतन्य-तत्व के आश्रय पर समस्त अनात्मन अस्तित्वमान हैं । चैतन्य-तत्व ही ज्ञान-स्वरूप है । ..... क्रमश:

आत्मा-ब्रम्ह-ऐक्यं

पद-परिचय-सोपान आत्मा-ब्रम्ह-ऐक्यं वेद उपदेश स्पष्ट निर्देश करते हैं कि आत्मा और ब्रम्ह एक ही तत्व के दो नाम हैं । व्यष्टि जीव के विचार में आत्मा कहा जाता है । समष्टि विचार में ब्रम्ह कहा जाता है । उपरोक्त कथित दो नाम लोकव्यवहार है परन्तु संदर्भित तत्व एक है । ब्रम्ह चैतन्य-स्वरूप है , ज्ञान-स्वरूप है । लोकव्यवहार जडता-माया क्षेत्र है । परन्तु अद्भुद माया-शक्ति ने जडता और चैतन्य को इतना समिश्रित कर दिया है कि अहंकार-पोषित जीव जडता-माया क्षेत्र में इतना उलझ गया है कि वह अपने चैतन्य-स्वरूप अपनी आत्म-स्वरूप से पूर्ण अज्ञान की दशा में जीवन यापन कर रहा है । ..... क्रमश:

निर्गुण-ब्रम्ह-सगुण-माया

पद-परिचय-सोपान निर्गुण-ब्रम्ह-सगुण-माया ब्रम्ह अनिर्वचनीय है । माया भी अनिर्वचनीय है । परन्तु ब्रम्ह और माया दोनो अनिर्वचनीय होते हुये भी पूर्णतया भिन्न हैं । ब्रम्ह चैतन्य-स्वरूप है , माया पदार्थ-रूप जडता है । ब्रम्ह निर्गुण है , माया सगुण है । ब्रम्ह निर्विकार है , माया सविकार है । ब्रम्ह निर्विकल्प है , माया सविकल्प है । उपरोक्त समस्त भेदों के रहते हुये भी , माया ब्रम्ह से अभिन्न प्रतीत होती है । माया अद्भुद विज्ञान है , ब्रम्ह की क्रिया-शक्ति है । ..... क्रमश:   

तमस्-स्थूल

पद-परिचय-सोपान तमस्-स्थूल जीव की स्थूल-काया समस्त पांच-पंच-महाभूतो के तमस् अंश द्वारा निर्मित होती है । तमस् पदार्थ रूप है । कारण अव्यक्त दशा है । सूक्ष्म अव्यवहार्य है । स्थूल पदार्थ रूप है । सत्व ज्ञान है । रज़स् क्रिया है । तमस् जडता है । समस्त व्यवहार तमस् क्षेत्र में है । ..... क्रमश: 

पंच-कर्म-इन्द्रियाँ

पद-परिचय-सोपान पंच-कर्म-इन्द्रियाँ  त्रिगुणात्मक-माया-कल्पित-जगत् का क्रिया अवयव जीव की कर्मेंन्द्रियाँ पंच-महाभूतों के रज़स्-गुण से निर्मित हैं , प्रत्येक एक ज्ञानेन्द्रि एक एक विलक्षण पंच-महाभूत के रज़स्-गुण से निर्मित हैं । जीव की प्राण-शक्ति समस्त पांच-पंच-महाभूतो के रज़स्-गुण से निर्मित है , इसलिये प्राण-शक्ति प्रत्येक पांच कर्मेन्द्रि को ऊर्जा पोषित करती है । ..... क्रमश:

पंच-ज्ञान-इन्द्रियाँ

पद-परिचय-सोपान पंच-ज्ञान-इन्द्रियाँ त्रिगुणात्मक-माया-कल्पित-जगत् का चेतन अवयव जीव की ज्ञानेन्द्रियाँ पंच-महाभूतों के सत्व-गुण से निर्मित हैं , इसलिये जीव के ज्ञान-प्रमाण हैं । प्रत्येक एक ज्ञानेन्द्रि एक एक विलक्षण पंच-महाभूत के सत्व-गुण से निर्मित हैं , यथा चक्षु अग्नि से , घ्राण पृथ्वी से , श्रवण आकाश से , स्पर्ष वायु से , स्वाद जल से हैं । मस्तिष्क समस्त पंच-महाभूतो के सत्व-गुण से निर्मित है , इसलिये ही यह समस्त पाँच ज्ञानेन्द्रियों के साथ व्यवहार करता है , जबकि प्रत्येक पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ परस्पर एक दूसरे से व्यवहार में सक्षम नहीं होती हैं । ..... क्रमश:  

सृष्टि-क्रम

पद-परिचय-सोपान सृष्टि-क्रम कारण-सूक्ष्म-स्थूल यह शास्त्रों में वर्णित सृष्टि-प्रक्रिया का क्रम है । कारण का सृजन अज्ञान से होता है । समष्टि-कारण-ईश्वर समष्टि-सूक्ष्म-हिरण्यगर्भ को व्यक्त-रूप प्रदान-करता है । समष्टि-सूक्ष्म-हिरण्यगर्भ समष्टि-स्थूल-विराट को व्यक्त-रूप प्रदान-करता है । व्यष्टि सदैव समष्टि का अंग है । व्यष्टि का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं होता है । समष्टि ही व्यष्टि के रूप में व्यक्त होता है । कार्य-कारण-सम्बन्ध माया-कल्पित-सृष्टि की मर्यादा है । ब्रम्ह सदैव कार्य-कारण-विलक्षण है । ..... क्रमश:

त्रिगुणात्मिका-माया

पद-परिचय-सोपान त्रिगुणात्मिका-माया अनिर्वचनीय माया तीन-गुणों से युक्त है । त्रिगुणों का विस्तार परिभाषित करते हुये शास्त्र उपदेश करते हैं , सत्व ज्ञान-शक्ति है , रज़स् क्रिया-शक्ति है , तमस् द्रव्य-शक्ति है । माया-कल्पित जगत् के प्रत्येक अवयव उपरोक्त-कथित त्रिगुणों से आच्छादित हैं । चेतन और जड यह दोनो माया-कल्पित जगत् के परस्पर क्रिया-प्रतिक्रिया के अवयव हैं । उपरोक्त कथित जड और चेतन एक दूसरे के आकर्षण और बन्धन हैं । त्रिगुणों के आच्छादन के फल से ही जीव ब्रम्ह की उपस्थिति से अनभिज्ञ है , अज्ञानी है । गुणातीत स्थिति ब्रम्ह है । ज्ञान की स्थिति है । ..... क्रमश:

सर्व-व्याप्त-ब्रम्ह

पद-परिचय-सोपान सर्व-व्याप्त-ब्रम्ह शास्त्रों में आत्मा की परिभाषा करते हुये कहा गया , आप्नोति सर्वम् इति आत्मा , जो सर्वत्र व्याप्त है वह आत्मा है । आत्मा और ब्रम्ह दोनो एक ही तत्व के दो नाम हैं । एक जीव के विचार में आत्मा कहा जाता है । समष्टि के विचार में ब्रम्ह कहा जाता है । आत्मा सर्व-विभू: है । आत्मा की व्याप्ति के फल से ही जीवत्व और सत्वत्व सम्भव होता है । आत्मा अनन्त है । आत्मा असीमित है । ..... क्रमश:

अव्यक्त-दशा-परिणय-लय

पद-परिचय-सोपान अव्यक्त-दशा-परिणय-लय माया-कल्पित-जगत् सदैव उत्पत्ति और लय की दशा का चक्र है । उत्पत्ति व्यक्त दशा है । लय अव्यक्त दशा में परिणय है । व्यक्त यह लोकव्यवहार का जगत् है । अव्यक्त सत्य ब्रम्ह है । व्यक्त अनुभवगम्यता है । अव्यक्त अनुभवातीत है । अनुभवगम्य भ्रान्ति है । अनुभवातीत अधिष्ठान है । अनुभवगम्य माया-कल्पित है । अनुभवातीत पारमार्थिक-सत्य है । अनुभवगम्य-प्रातिभासित है । ..... क्रमश:   

अभिव्यक्ति ही सृष्टि

पद-परिचय-सोपान अभिव्यक्ति ही सृष्टि व्यक्ति स्वप्न देखता है । जिस काल अवधि में व्यक्ति स्वप्न देखता है , उस काल अवधि में प्रत्येक व्यक्ति उस स्वप्न दृष्यों को सत्य के रूप में ही अनुभव करता है । उपरोक्त वर्णित स्वप्न-दशा ही , इस अनुभवगम्य व्यवहारिक जगत् के लिये भी ठीक-रूप में प्रभावी है । यह प्रत्येक व्यक्ति को अनुभवगम्य व्यवहारिक जगत् , ईश्वर का स्वप्नलोक है , जिसे माया-शक्ति प्रक्षेपित कर रही है । व्यष्टि , व्यक्ति का स्वप्न उस व्यक्ति की निद्रा-शक्ति प्रक्षेपित करती है । समष्टि , ईश्वर का स्वप्न माया-शक्ति प्रक्षेपित करती है । व्यष्टि , व्यक्ति जब स्वप्नकाल विगत हो जाता है , व्यक्ति जब जागृत-दशा को प्राप्त हो जाता है , स्वयं अनुभव करता है कि स्वप्न मिथ्या थे । जब व्यक्ति को आत्म-ज्ञान हो जाता है , ठीक उपरोक्त वर्णित दशा ही , इस अनुभवगम्य जगत् , के मिथ्यात्व के सम्बन्ध में सम्मुख होती है । ..... क्रमश:

माया-कारण-पदार्थ

पद-परिचय-सोपान माया-कारण-पदार्थ जब भी उत्पत्ति और लय का विचार किया जाता है , सदैव माया ही उत्पत्ति और लय का कारण-पदार्थ है । चिर-कालिक सत्य केवल ब्रम्ह है । उपरोक्त कथित चिर-कालिक-सत्य-ब्रम्ह ही माया-शक्ति की महिमा द्वारा व्यक्त-जगत् के रूप में भासित हो रहा है । जगत् जो कि लोक-व्यवहार के लिये उपलब्ध है । परन्तु अनुभवगम्य होते हुये भी , जगत् कोई सत्य अस्तित्व नहीं है । यह केवल माया-शक्ति द्वारा प्रक्षेपित , एक अनुभवगम्य भ्रान्ति मात्र है । उपरोक्त समस्त शास्त्र उपदेशित सत्य ज्ञान किसी भी व्यक्ति के लिये अति गूढ पहेली है । परन्तु व्यक्ति को आत्म-ज्ञान की दशा में उपरोक्त वर्णित समस्त ज्ञान उल्लेख एक सत्य अभिव्यक्ति है । ...... क्रमश:

उत्पत्ति और लय

पद-परिचय-सोपान उत्पत्ति और लय व्यक्त-दशा और अव्यक्त-दशा का चक्र ही उत्पत्ति और लय के रूप में उपदेशित किया जाता है । न ही किसी पदार्थ की उत्पत्ति ही सम्भव है और न ही किसी पदार्थ का क्षय ही सम्भव है । उत्पत्ति और क्षय दोनो ही भ्रान्तिकारक शब्द हैं । उत्पत्ति और क्षय दोनो ही शब्दों को व्यवहार में प्रयोग करने में , व्यक्ति के मस्तिष्क में उपरोक्त कथित भ्रान्ति का स्मरण सदैव विद्यमान रहना अनिवार्य है । न ही कोई उत्पत्ति होती है और न ही क्षय होता है , अपितु जब कोई भी वस्तु-रूप इन्द्रीयगोचर व्यवहार्य दशा में व्यक्त हो जाता है , उसे उस वस्तु-रूप की उत्पत्ति कहा जाता है । उपरोक्त कथित उत्पत्ति की विलोम प्रक्रिया अर्थात् जब कोई भी वस्तु-रूप इन्द्रीयगोचर व्यवहार्य व्यक्त दशा से , अव्यवहार्य अव्यक्त कारण दशा में पर्णित होकर इन्द्रीयगोचर नहीं रह जाता है , को लय कहा जाता है । ..... क्रमश:

सृष्टि-प्रक्रिया

पद-परिचय-सोपान सृष्टि-प्रक्रिया अनुभवगम्य सृष्टि का यथा स्वरूप उदय और कालान्तर में सृष्टि का प्रलय एक चक्रीय व्यवस्था है । सृष्टि के सृजन का कारण जहाँ जीवों के संचित कर्म-फलों का भोग , शास्त्रों द्वारा उपदेशित किया गया है , वहीं सृष्टि के प्रलय का कारण निर्धारित करते हुये शास्त्र उपदेश करते हैं कि , माया-कल्पित जगत् काल की सीमा से आच्छादित होने के कारण , काल की पूर्णता पर सृष्टि का विलय अ-परिहार्य बाध्यता है । व्यष्टि स्तर पर प्रत्येक जन्म लेने वाले शिशु का   कालान्तर से बालक-युवा-वयस्क में परिणय और अन्त में मृत्यु अ-परिहार बाध्यता है । जगत् के प्रत्येक अवयव के लिये उपरोक्त कथित नियम प्रभावी है । ..... क्रमश:

श्रेय:

पद-परिचय-सोपान श्रेय: पूर्व-कथित मोक्ष दशा के जीवन को श्रेय: कहा जाता है । श्रेय: प्रेय: के सापेक्ष उत्कृष्ठ दशा है । तनाव-मुक्त दशा है । श्रेय: का लक्ष्य मनुष्य जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है । मनुष्य जीवन , स्वामित्व के रूप में , यापन करना श्रेय: है । मनुष्य जीवन , दासिता के रूप में , यापन प्रेय: है । ..... क्रमश:    

मोक्ष-पुरुषार्थ

पद-परिचय-सोपान मोक्ष-पुरुषार्थ पूर्व-वर्णित प्रेय:-पुरुषार्थ दो रूपों में व्यक्ति को दास बनाते हैं । प्रेय: का आभाव , शून्यता मानसिक वेदना कारक होती है । प्रेय: की उपलब्धि भी मानसिक तनाव की स्थिति-कारक होती है । नवयुवक की शादी नहीं हो रही है । उसे जीवन-साथी के अभाव की वेदना सताती है । व्यक्ति की शादी हुई है , बच्चे हैं , परन्तु अनुशाशित नहीं हैं । व्यक्ति को बच्चों की उपस्थिति का तनाव वेदना कारक है । उपरोक्त कथित प्रेय: की दासता से मुक्त जीवन मोक्ष है । आत्म-स्वामित्व का जीवन मोक्ष है । मोक्ष की दशा में , प्रेय: की शून्यता भी कष्टकारक नहीं है , प्रेय: की पूर्ति भी तनाव कारक नहीं है । ऐसी आत्म-स्वामित्व की दशा मोक्ष है । यह सर्वोच्च दशा है । यह आदर्श दशा है । इस मोक्ष की दशा के व्यक्ति के पास यदि सकल माया का अभाव है तो भी उसे कोई मानसिक क्षोभ नहीं है , और कंचिद माया सम्पदा ओत्-प्रोत् है , तो भी वह किसी मानसिक उत्कर्ष की अनुभूति नहीं करता है । उपरोक्त वर्णित मुक्त दशा की उपलब्धि मनुष्य जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है , मोक्ष है । ..... क्रमश:

प्रेय:

पद-परिचय-सोपान प्रेय: पूर्व-वर्णित धर्म-अर्थ-काम-पुरुषार्थो में कुछ उभयनिष्ठ स्थितियाँ पायी जाती हैं । असुरक्षा-अपूर्णता की अनुभूति व्यक्ति को मानसिक क्लेष जनित करने वाली होती हैं । उपरोक्त कथित असुरक्षा-अपूर्णता को पुरुषार्थ द्वारा प्राप्त होने पर उनके संचय का भय मानसिक क्लेष का कारण बनता है । उपरोक्त कथित तीनो ही पुरुषार्थ व्यक्ति के भौतिक श्रम द्वारा प्राप्त होते है । उपरोक्त कथित सम स्थितियों के आधार पर , उपरोक्त कथित तीनो ही पुरुषार्थों को एक उभयनिष्ठ नाम प्रेय: के पद से ख्याति की जाती है । ..... क्रमश:

काम-पुरुषार्थ

पद-परिचय-सोपान काम-पुरुषार्थ मनुष्य जब अर्थ पुरुषार्थ से आगे बढता है तो उसे इन्द्रीय-वासनाओं की पूर्ति , शारीरिक-सुख और आराम की कामना-पूर्ति हेतु पुरुषार्थ की पारी आती है , इन्द्रीय-वासनाओं की पूर्ति , शारीरिक-सुख और आराम की कामना-पूर्ति हेतु किये जाने वाले प्रयत्नों को काम-पुरुषार्थ के वर्ग में रखा जाता है । उपरोक्त कथित काम-पुरुषार्थ अन्तविहीन होते हैं । एक की पूर्ति होने के साथ ही दूसरे की इच्छा सृजित होती जाती है । जीवन के अन्त पर्यन्त काम-पुरुषार्थ की पूर्ति नहीं हो पाती है । ..... क्रमश:   

अर्थ-पुरुषार्थ

पद-परिचय-सोपान अर्थ-पुरुषार्थ प्रत्येक जीव बाह्य जगत् से अपने को असुरक्षित अनुभव करता है । अपने पुरुषार्थ क्षमता के कारण , मनुष्य अन्य-जीव से विलक्षण है । अत: मनुष्य अभय स्थिति प्राप्त करने के लिये पुरुषार्थ करता है । सुरक्षित रहने के लिये मकान का निर्माण करता है । पुन: मकान को असुरक्षित अनुभव करता है , तो मकान की सुरक्षा के लिये “सुरक्षा-कर्मी” को प्रयोग करता है । उपरोक्त क्रम का विस्तार करता जाता है । मनुष्य धन से सुरक्षा अर्जित करने का पुरुषार्थ करता है । पुन: उसे अर्जित धन के क्षय का भय होता है । पुन: मनुष्य अर्जित धन की सुरक्षा का पुरुषार्थ करता है । उपरोक्त समस्त एवं अन्य सादृष्य पुरुषार्थ को अर्थ-पुरुषार्थ की श्रेणी में वर्गीकृत किया जाता है । ..... क्रमश:      

धर्म-पुरुषार्थ

पद-परिचय-सोपान धर्म-पुरुषार्थ प्रत्येक व्यक्ति के पास अव्यक्त संचित पुरुषार्थ होते हैं , जिनका सम्बन्ध पूर्व के जन्म के पुरुषार्थ से होता है , उन्हे धर्म-पुरुषार्थ कहा जाता है । ऐसे धर्म-पुरुषार्थ व्यक्ति के वर्तमान जन्म के साथ साथ भविष्य के जन्मों को भी प्रभावित करने वाला होता है । व्यक्ति की प्रौढावस्था का सृजन उसके बाल्यावस्था के सृजन के आधार पर होता है । बाल्यावस्था का सृजन व्यक्ति के माता-पिता के प्रयत्नों के आधार पर होता है । माता-पिता का चयन व्यक्ति का अपना चयन नहीं होता है । भविष्य के जन्म में व्यक्ति के माता-पिता का निर्धारण व्यक्ति के संचित धर्म-पुरुषार्थ के आधार पर होता है । ..... क्रमश:

पुरुषार्थ

पद-परिचय-सोपान पुरुषार्थ पुरुष शब्द का सामान्य अर्थ , पुलिंग-मनुष्य होता है । परन्तु शास्त्रो में पुरुष शब्द का अर्थ मनुष्य-जाति जिसमें पुलिंग और स्त्री-लिंग दोनो सम्मलित है , के विषेस अर्थ में किया जाता है । अर्थ शब्द के बहुत सारे अर्थ किये जाते हैं । अर्थ का सामान्य अर्थ , शब्द-अर्थ होता है । अर्थ वित्त के लिये भी प्रयोग किया   जाता है । अर्थ शब्द का प्रयोग लक्ष्य के लिये भी किया जाता है । उपरोक्त वर्णित दोनो शब्दों के अर्थों को संयुक्त करते हुये , पुरुषार्थ का शब्द-अर्थ , मनुष्य के लिये लक्ष्य के रूप में ग्रहण किया जाना उचित अर्थ है । पुरुषार्थ का अर्थ विशिष्ट संदर्भो में स्वतन्त्र अधिकार के रूप में किया जाता है । पुरुषार्थ का अर्थ अन्य विशिष्ट संदर्भो में व्यक्ति का चुनाव के रूप में किया जाता है । पुरुषार्थ का अर्थ अन्य विशिष्ट सन्दर्भों में , मनुष्य के प्रयत्न के रूप में भी किया जाता है । उपरोक्त वर्णित मनुष्य के प्रयत्न के विचार में , मनुष्य के प्रयत्नों का शास्त्र में चार वर्ग का उल्लेख मिलता है । उपरोक्त कथित मनुष्य के प्रयत्नों के प्रत्येक चार वर्ग का उल्लेख आ...

अधिष्ठान

पद-परिचय-सोपान   अधिष्ठान सत्य अपने सत्यत्व को , किसी अन्य को , जो कि सत्य नहीं है , देता है , जिसके फल से दूसरा भी सत्यवद् हो जाता है । उपरोक्त प्रक्रिया में जो सत्य अपने सत्यत्व को दूसरे को दे रहा है , उसे सत्यवद् हो जाने वाले दूसरे का अधिष्ठान कहा जाता है । अधिष्ठान का अज्ञान ही भ्रान्ति का कारण बनता है । स्वर्ण अपने सत्यत्व को , मिथ्या रूप-नाम आभूषण को प्रदान करता है । उपरोक्त वर्णित दृष्टान्त में स्वर्ण का सत्यत्व ग्रहण कर रूप-नाम-आभूषण अस्तित्वमान हो जाते हैं , सत्यवद् हो जाते हैं । उपरोक्त दृष्टान्त प्रकरण में , आभूषणों के सत्यत्व का अधिष्ठान स्वर्ण है । ...... क्रमश:

आत्म-बोध

पद-परिचय-सोपान   आत्म-बोध आत्मा ज्ञान-स्वरूप है । बोध शब्द का अर्थ भी ज्ञान होता है । इसलिये जब आत्म-बोध शब्द का विचार सम्मुख होता है , तो एक विलक्षण प्रश्न पहले ही उपस्थित हो जाता है , कि उपरोक्त वर्णन के अनुसार दो-दो ज्ञान-बोधक शब्दों का प्रयोग एक साथ करने का अभिप्राय क्या है ? उपरोक्त वर्णित प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है । किसी भी वस्तु-रूप-ज्ञान का विश्लेषण करने पर उसमें दो प्रक्रियायें मिल कर ज्ञान-अनुभव के नाम से विख्यात होती हैं । प्रक्रिया एक के रूप में मस्तिष्क में एक वृत्ति-व्याप्ति होती है । प्रक्रिया दो के रूप में उपरोक्त वर्णित ज्ञान-वृत्ति में सर्व-विभू:-चैतन्य की व्याप्ति होती है । उपरोक्त वर्णित दोनो प्रक्रियाँओं की पूर्णता पर ज्ञान का उदय होता है । विचाराधीन आत्म-बोध के प्रकरण-विषेस में आत्मा के वृत्ति-बोध को आत्म-बोध कहा जाता है । ....... क्रमश:  

शासक

पद-परिचय-सोपान   शासक शास्त्रों के अध्ययन में शासक उस सिद्धान्त को कहा जाता है जिसके प्रसाद से वह विचाराधीन अवयव सम्भव होता है । व्यक्ति के वस्तु-रूप-ज्ञान के प्रकरण में शासक उसकी आत्मा होती है । व्यक्ति के कर्म के प्रकरण में शासक उसकी प्रकृति होती है । उपरोक्त कथित निर्णय शास्त्र-सम्मत उपदेश-निर्णय हैं । वर्तमान में उपरोक्त कथित निर्णयों को यथा वर्णित उपरोक्त ग्रहण करना ही श्रेयस्कर है । आगे की यात्रा में उपरोक्त निर्णायक निर्णयों का विस्तृत विश्लेषणात्मक उल्लेख भी प्राप्त कराया जायेगा । ...... क्रमश:  

क्षेत्रज्ञ

पद-परिचय-सोपान   क्षेत्रज्ञ क्षेत्र के ज्ञाता को क्षेत्रज्ञ कहा जाता है । क्षेत्र अर्थात् चौबीस अवयव सिद्धान्त द्वारा निरूपित व्यक्ति होता है । उपरोक्त वर्णित व्यक्ति समस्त लोक-व्यवहार में सम्मलित होता है । समस्त लोक-व्यवहार ही जगत् का स्वरूप है । उपरोक्त वर्णित व्यक्ति ही जगत् का ज्ञाता होता है । प्रश्न उठता है कि उपरोक्त वर्णित व्यक्ति का ज्ञाता कौन है ? उत्तर है , उपरोक्त कथित व्यक्ति के समस्त-वस्तु-रूप-ज्ञान का शासक उसकी आत्मा होती है । उपरोक्त कथित आत्मा ही क्षेत्रज्ञ होती है । ....... क्रमश

क्षेत्र

पद-परिचय-सोपान क्षेत्र शास्त्रो के अध्ययन में व्यक्ति की शरीर को क्षेत्र के रूप में व्यक्त किया गया है । शरीर की पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ , पाँच कर्मेन्द्रियाँ , पँच-महाभूत जिनसे शरीर सृजित हुई है , पँच ज्ञानेन्द्रियों के पाँच अनुभव-क्षेत्र , मस्तिष्क का प्रकृति द्वारा शासित प्रभाग जिसे शास्त्रीय अध्ययन में “मन” कहा जाता है , अहंकार , और वासना-वृत्तियाँ कुल योग चौबीस अवयव प्रभावी भूमिका के निर्धारित किये जाते हैं । व्यक्ति को केन्द्र मानने के दो व्यक्त कारण होते हैं । पहला व्यक्ति ही जगत् के व्यवहार का प्रथम-एक-बचन एकाकी विषय होता है । दूसरा प्रथम-एक-बचन एकाकी व्यक्ति ही ज्ञान का जिज्ञासु भी होता है । उपरोक्त कथित कारणों के आधार पर शास्त्र व्यक्ति को क्षेत्र निर्धारित करते हैं । ...... क्रमश:  

दस-निर्देश

पद-परिचय-सोपान दस-निर्देश ज्ञान-जिज्ञासु के लिये वेद के दस-निर्देश , (1) हिंसा-वर्जनम् तीनो विधि भौतिक , मानसिक एवं वाक् द्वारा हिंसा का निषेध (2) असत्य-वर्जनम् असत्य-वादन का निषेध (3) अस्तेयम् वर्जनम् अनधिकृत स्वामित्व का निषेध (4) मैथुन-वर्जनम् अनुपयुक्त लैंगिक सम्बन्ध का निषेध (5) परिग्रह-वर्जनम् अप-संचय का निषेध । उपरोक्त वर्णित पाँच निषेध-निर्देशों को एक शब्द यम: द्वारा व्यक्त किया जाता है । (1) शौचम् पवित्रता (2) सन्तोष: जो भी ईश्वर प्रदान करे उसमें सन्तुष्ट रहना (3) तप: आत्म-ज्ञान की प्राप्ति के लिये स्वेच्छा द्वारा अपनी आवश्यक-वाँक्षनाओं का त्याग (4) स्वाध्याय: आत्म-ज्ञान के लिये शास्त्रो का अध्ययन (5) ईश्वर प्रणिधानम् अपने को ईश्वर को अर्पित करना । उपरोक्त वर्णित उत्तरार्ध के पांच सकारत्मक आदेशो को एक शब्द नियम: द्वारा व्यक्त किया जाता है । ..... क्रमश:    

मनोनिग्रह

पद-परिचय-सोपान   मनोनिग्रह मस्तिष्क का नियन्त्रण मनोनिग्रह कहा जाता है । नियन्त्रण में दो भाग सम्मलित है । पहला सम्भावित विक्षेपों को अंकुश करना है , दूसरा अपेक्षित क्रियान्वन के लिये मस्तिष्क के प्रत्येक प्रभाग को अनुशासित समन्वय के साथ सन्चालित करना है । विशेष ज्ञेय है कि मस्तिष्क का अपेक्षित नियन्त्रण , मस्तिष्क के माध्यम् द्वारा , मस्तिष्क की शक्ति के अवलम्ब से , मस्तिष्क की विवेक क्षमता द्वारा , मस्तिष्क के लिये ही सम्भव करना है । यह अत्यन्त सूक्ष्म और संवेदनशील प्रकरण है । आत्म-ज्ञान की जिज्ञासा के प्रसंग में अत्यधिक अपेक्षित वांक्षना है । प्रत्येक परिस्थिति में , शान्त मस्तिष्क ही अपेक्षित लक्ष्य है । ..... क्रमश:   

शमादिषटसम्पत्ति

पद-परिचय-सोपान   शमादिषटसम्पत्ति (क) शम: मस्तिष्क में गति करने वाली वृत्तियों का नियंत्रण (ख) दम: - इंद्रीय नियंत्रण , ज्ञातव्य है कि इन्द्रीय-वासना-वृत्तियाँ मस्तिष्क को अशान्त बनाती है , इसलिये शान्त मस्तिष्क की अपेक्षा की पूर्ति के लिये इन्द्रीय-वासना का नियन्त्रण अपेक्षित होता है ।   (ग) उपरति: - मस्तिष्क के नियंत्रण को स्थायी बनाना उपरति कहा जाता है । (घ) तितीक्षा - सुख और दु:ख आदि में समान भाव से मस्तिष्क को शांत दशा में रहना तितीक्षा कहा जाता है । (च) श्रद्धा – गुरू और शास्त्र में विश्वास की मानसिक वृत्ति श्रद्धा कही जाती है । (छ) समाधानम् – चित्त की एकाग्रता को समाधानम् कहा जाता है । उपरोक्त छ: मस्तिष्क के धर्मों को शमादिषटसम्पत्ति कहा जाता है । उपरोक्त वर्णित छ: धर्मों को एक शब्द मानसिक-अनुशासन द्वारा भी व्यक्त किया जा सकता है । ज्ञान-प्रक्रिया मस्तिष्क द्वारा सम्भव होती है , मस्तिष्क में सम्भव होती है , मस्तिष्क द्वारा होती है । इसलिये मस्तिष्क का अनुशासन ज्ञान-जिज्ञासु के लिये सर्वोच्च महत्व का होता है । ..... क्रमश: