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मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 3

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 3 मस्तिष्क में विद्यमान चैतन्य की क्षवि एक का स्पष्ट और विलक्षण स्मरण रखते हुये , यात्रा के चरण तीन में प्रवेष करते है । मस्तिष्क की क्रिया पद्धति की ओर ध्यान निवेदित है । मस्तिष्क चैतन्य की क्षवि एक के फल से प्रमाता स्वरूप में क्रियाकारी दशा में है । इस मस्तिष्क में घट-वृत्ति के फल से घट-स्वरूप का ज्ञान बोध होता है , और पट-वृत्ति के फल से उसे पट-रूप का ज्ञान बोध होता है , इसी क्रम का विस्तार करते हुये उपरोक्त कथित प्रमाता मस्तिष्क को अब मस्तिष्क में विद्यमान चैतन्य की क्षवि दो का ज्ञान-बोध करना है , तो कैसे होगा ? उत्तर होगा कि चैतन्य की क्षवि-दो के वृत्ति-बोध द्वारा सम्भव होगा , उचित उत्तर है । अब नया प्रश्न सृजित होता है कि चैतन्य की क्षवि दो तो निराकार है इसलिये इसकी वृत्ति क्या है ? इस प्रश्न को समझने पर्यन्त ही मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 3 की इति है | ....... क्रमश:  

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 2

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 2 मस्तिष्क में विद्यमान चैतन्य की दोनो क्षवियों को स्पष्ट और विलक्षण दो स्वरूपों में अनुभव करते हुये , लक्ष्य भेद के चरण दो में प्रवेष कर रहें हैं । यात्रा में पहले हम उपरोक्त कथित दो क्षवियों में से पहले , क्षवि एक का विस्तृत अवलोकन करते हैं । यह क्षवि मस्तिष्क के तीन अवस्थाओं यथा जागृत-स्वप्न-सुशुप्ति प्रत्येक तीन में विद्यमान और प्रभावी रूप से क्रियाशील होती है । जागृत-दशा में इसके प्रभाव से मस्तिष्क बाह्य जगत् के स्थूल नाम-रूप-कार्य के साथ व्यवहार करता है , स्वप्न-दशा में इसके प्रभाव से मस्तिष्क अपने ही अन्दर विद्यमान वासना वृत्तियों के साथ व्यवहार करता है , और सुशुप्ति दशा में मस्तिष्क स्वयं , चूँकी लय की दशा में होता है , इसलिये इसका कोई व्यवहार नहीं होता है , परन्तु विचारगत्-चैतन्य विद्यमान और क्रियाशील दशा में रहता है । चैतन्य की पहली क्षवि को , यथा वर्णित उपरोक्त को आत्मसात् करने पर्यन्त ही , चरण 2 की इति है ।...........क्रमश:   

मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 1

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के सन्सकार : चरण 1 जैसा कि संस्कार का परिचय गत अंक में कराया गया , उसकी पुनरावृत्ति न करते हुये , सबसे पहले तो विचार इस बात का करना है कि , वह कौन सी वृत्तियाँ हैं जिनकी मस्तिष्क में गति को , मस्तिष्क का सामान्य अभ्यास बनाना है । उपरोक्त कथन को सरल ढंग से कहा जा सकता है कि मस्तिष्क के संस्कार का लक्षित विषय क्या है ? उत्तर है , आत्मस्वरूप । अब प्रश्न और पीछे चला जाता है , कि आत्मस्वरूप क्या है ? इस उत्तर से यात्रा का चरण 1 शुरू हो रहा है , मस्तिष्क के पटल पर चैतन्य की दो क्षवियाँ विद्यमान हैं , एक चैतन्य जो मस्तिष्क में परिलक्षित हो रहा है जिसके फल से यह जड-वस्तु-निर्मित-मस्तिष्क चेतन हो गया है , दो चैतन्य जो मात्र मस्तिष्क में गति कर रही वृत्तियों का साक्षी है । मस्तिष्क के संस्कार प्रकरण का पहला चरण , उपरोक्त वर्णित चैतन्य की यथा-वर्णित-उपरोक्त को स्पष्ट और विलक्षण दो क्षवियों के रूप में निर्धारण और स्मरण है । ...........क्रमश:  

मस्तिष्क का सन्सकार

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क का सन्सकार मस्तिष्क के सन्चालन के नियंत्रण , का सन्सकार अर्थात् सामान्य अभ्यास बन जाना है । मस्तिष्क वृत्तियों के प्रवाह के स्थल का नाम है । इस प्रकार मस्तिष्क का संचालन के नियंत्रण का सन्सकार अर्थात् मस्तिष्क में गति करने वाली वृत्तियों का नियन्त्रण है । गति करने वाली वृत्तियां अत सूक्ष्म होती हैं । इसलिये ही यह विषय गूढ बताया जाता है । एक काल विषेस में , विषेस प्रकार की वृत्तियाँ ही मस्तिष्क में गति करे , यह मस्तिष्क का सन्सकार है । उपरोक्त कथित सन्सकार , नियन्त्रण के फल से सम्भव है । यह नियन्त्रण जब मस्तिष्क का सामान्य अभ्यास बन जाय तब यह मस्तिष्क का सन्सकार है । उपरोक्त समस्त विवरण से स्पष्ट है कि यह प्रकरण सूक्ष्म और गूढ है । कोई चिन्ता की बात नहीं है । कार्य कितना भी गूढ क्यों न हो , उचित विधि और दृढ निष्ठा द्वारा सम्भव हो जाता है । इसलिये विषय में प्रवेष के उपरान्त अब विषय को खण्डो में विभक्त करके एक एक चरण आगे के अंको में इसका निराकरण और लक्ष्य की उपलब्धि पर्यन्त की यात्रा प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया जा रहा है | ........ क्रमश:

निरुपाधिक-प्रेम

पद-परिचय-सोपान निरुपाधिक-प्रेम शास्त्रॉ का स्पष्ट आदेश है कि , प्रत्येक व्यक्ति केवल अपनी आत्मा से ही प्रेम करता है । समस्त अनात्मन के प्रति प्रेम केवल व्यक्ति दिखावा के लिये करता है । दिखावा किसी अन्य को भ्रम में रखने के लिये करता है । अनात्मन के प्रति व्यक्ति का प्रेम किसी विशेष परिस्थिति अथवा किसी अन्य प्रयोजन की पूर्ति हेतु करता है । उपरोक्त के विपरीत व्यक्ति का अपनी आत्मा के प्रति प्रेम सर्वकालिक होता है , प्रत्येक परिस्थिति में होता है । अनात्मन के प्रति प्रेम का दिखावा भी व्यक्ति अपनी आत्मा के प्रति प्रेम के लिये ही करता है । ..... क्रमश:

जगत्-अधिष्ठान-ईश्वर

पद-परिचय-सोपान जगत्-अधिष्ठान-ईश्वर समस्त वस्तु-रूप के सत्यत्व का आधार निराकार ईश्वर , यह भक्ति की चर्मोत्कर्ष स्थिति है । यह अद्वैत वेदान्त का निरूपण है । यही कारण है कि अद्वैत वेदान्ती सहर्ष एक-रूप ईश्वर और बहुरूप ईश्वर की भी उपासना करता है । प्रेम के समर्पण के लिये उच्च सिद्धान्त ईश्वर की मानसिक ग्राह्यता के आधार पर विभाजन , भक्ति की श्रेणी के रूप में जाना जाता है । जगत् के सत्यत्व के अधिष्ठान रूप में ईश्वर का स्वरूप , यह भक्ति की पराकाष्ठा स्थिति है । ..... क्रमश:

जगत्-कारण-ईश्वर

पद-परिचय-सोपान जगत्-कारण-ईश्वर जब भी जगत्-कर्ता ईश्वर का विचार किया जाता है , तत्-समय जगत् के उपादान कारण का विचार सम्मुख हो जाता है । जगत् के उपादान कारण के रूप में भी ईश्वर को ही निर्धारित किया जाता है । यह बहुरूप जगत् ईश्वर की ही अभिव्यक्ति है । बहु-रूप ईश्वर , यह भक्ति का उत्तरोत्तर उच्च मानसिक ग्राह्यता की स्थिति है । सर्व-रूप-जगत् अर्थात् विराट , सर्वजीव-जगत्-प्रपंच-हिरण्यगर्भ , सर्व-कारण-रूप ईश्वर विष्णु की अभिव्यक्ति है । बहुरूप ईश्वर भक्ति है । ..... क्रमश:    

जगत्-कर्ता-ईश्वर

पद-परिचय-सोपान जगत्-कर्ता-ईश्वर उच्च सिद्धान्त के रूप में , ईश्वर को , साधक की मानसिक अवस्था के आधार पर , अलग अलग रूपों में ग्रहण किया जाता है । इतना सुनियोजित सुन्दर जगत् , निश्चय ही किसी कुशल और बुद्धिमत्तापूर्ण सिद्धान्त द्वारा ही सम्भव हुआ है । यह ईश्वर का जगत्-कर्ता रूप है । आराध्य ईश्वर वह कुशल बुद्धि सिद्धान्त है , जिसके बौद्धिक कौशल से यह जगत् अपने रूप में स्थिर है । ऐसे जगत्-कर्ता ईश्वर का कोई निश्चित स्वरूप , यह प्रारम्भिक अवस्था की भक्ति है । एक-रूप भक्ति है । .... क्रमश:

भक्ति-योग

पद-परिचय-सोपान भक्ति-योग सामान्यतया , व्यक्ति ईश्वर को अपनी सान्सारिक इच्छाओं की पूर्ति के उद्देष्य से ही प्रेम करता है , यह मन्द भक्ति है । दूसरे अधिक मानसिक रूप से विकसित लोग , ईश्वर को सुरक्षा , हर्ष , और शान्ति की प्राप्ति की कामना से प्रेम करते हैं , यह मध्यम भक्ति है । तीसरा सर्वोच्च स्तर है , जिसमें कि व्यक्ति ईश्वर को अपनी आत्मा के रूप में ग्रहण करता है , यह उत्तम भक्ति है । भक्ति को , कंचिद सर्वोच्च लक्ष्य अर्थात् आत्मा-ईश्वर-ऐक्यं प्राप्त करने के लिये , साधन के रूप में प्रयोग किया जाय , तब इसे भक्ति-योग कहा जाता है । इस प्रकार कर्म-भक्ती-योग , उपासन-भक्ति-योग , ज्ञान-भक्ति-योग यह तीन चरण हैं । ..... क्रमश:

प्रेम का समर्पण

पद-परिचय-सोपान प्रेम का समर्पण प्रेम का अर्पण , केवल तीन को सम्भव है । पहला उस लक्ष्य को जिसे व्यक्ति प्राप्त करना चाहता है । दूसरा उन साधनों को जिनके माध्यम से वह अपने लक्ष्यों को प्राप्त कर सकता है । तीसरा परन्तु उपरोक्त वर्णित दोनो अर्थात् एक और दो से सशक्त , प्रत्येक व्यक्ति केवल अपनी आत्मा को प्रेम समर्पित कर सकता है । यहाँ तक कि व्यक्ति किसी भी अनात्मन को , केवल अपनी आत्मा की तुष्टि के लिये ही प्रेम करता है । ... क्रमश:

भक्ति

पद-परिचय-सोपान भक्ति किसी उच्च सिद्धान्त के प्रति श्रद्धा-पूर्ण प्रेम को भक्ति कहा जाता है । उच्च सिद्धान्त के रूप में सामान्यत: ईश्वर को ग्रहण किया जाता है । प्रेम का समर्पण किसके प्रति सम्भव हो सकता है ? उत्तर , 1- प्रेम किसी संकल्पित लक्ष्य के प्रति , 2- प्रेम संकल्पित लक्ष्य की प्राप्ति के साधन के प्रति , 3- प्रेम स्वयं अपने प्रति , ही सम्भव होता है , ऐसा निर्धारण शास्त्र करते हैं । उपरोक्त वर्गीकरण के आधार पर प्रेम के तीन स्तर नामत: मन्द प्रेम , मध्यम् प्रेम , उत्तम प्रेम निर्धारित किये जाते हैं । स्वयं के प्रति प्रेम उत्तम-प्रेम , संकल्पित लक्ष्य के प्रति प्रेम मध्यम-प्रेम और लक्ष्य के साधन के प्रति प्रेम मंद-प्रेम , कहा जाता है ।..... क्रमश:

द्वैत अपूर्णत्व

पद-परिचय-सोपान द्वैत अपूर्णत्व आत्मा सर्वस्य है । उपरोक्त वर्णित वेद उपदेश आत्मा के आनन्द-स्वरूप की व्याख्या है । उपरोक्त कथित वेद उपदेश का विलोम , द्वैत दर्शन , स्वत: परिच्छिन्नता की अनुभूति का आधार है । उपरोक्त कथित द्वैत दर्शन को विद्वान आचार्य आदि-शंकर ज्ञान-जिज्ञासा अर्थात् मोक्ष-पुरुषार्थ के लिये अयोग्यता निर्धारित करते हैं । इदँ सर्वं यदयमात्मा यह सम्पूर्ण “मैं-आत्मा” हूँ । आत्मा की उपरोक्त अभिव्यक्ति , पर्याय है , 1- आत्मज्ञान द्वारा सर्वज्ञान सम्भव है , 2- आत्मज्ञान से सर्व-काम-प्राप्ति है , 3- सर्व-भाव की प्राप्ति है , 4- जगत् मिथ्यात्व का बोध है । अहंकार पोषित व्यक्ति को उपरोक्त उपदेश भी ग्राह्य नहीं हो पाता है , कारण कि वह आत्मा के उपरोक्त उपदेश को भी अपने स्थूल-सूक्ष्म शरीर की सीमा में सीमित करके ग्रहण करने की चेष्टा करता है , जबकि उपरोक्त उपरोक्त उपदेश आत्मा के अनन्त स्वरूप को निरूपित करने वाला है । ..... क्रमश:

असंगत्व

पद-परिचय-सोपान असंगत्व पारलौकिक तत्व आत्मा के सम्बन्ध में कुछ भी व्यक्त करने के लिये , लौकिक व्यवहारिक शब्दों का प्रयोग किया जाता है , कतिपय धर्मों का आश्रय लिया जाता है । असंग शब्द भी लोकव्यवहार में प्रयोज्य , वस्तु-रूपात्मक जगत् के वस्तु-रूपों के धर्म को निरूपित करने में समर्थ पाया जाने वाला है । परन्तु संदर्भ-वश जब असंग शब्द का प्रयोग आत्मा के लिये किया जाता है , तब यह स्वयं ही प्रश्न-वाचक बन जाता है , क्योंकि आत्मा के संदर्भ में किसी धर्म का निषेध भी अति-वचनीयता है   । आत्मा को वेद , असंग-निराकार-निर्विकार उपदेश करते हैं । संग तो सजातीय में ही होता है । आत्मा का सजातीय कोई अन्य तत्व नहीं है । इसलिये असंग का उपदेश है । परन्तु आत्मा समस्त ज्ञान का आश्रय होते हुये भी वह किसी विशिष्ट-ज्ञान से सम्बद्ध नहीं है , इसलिये असंग का उपदेश आत्मा के लिये है । ....... क्रमश:      

व्याप्ति-ही-व्यापकता

पद-परिचय-सोपान व्याप्ति-ही-व्यापकता आत्मा और ब्रम्ह एक ही तत्व के दो नाम हैं । वेद ब्रम्ह का उपदेश करते हुये , सत्-चित्-आनन्द बताते है । सत् जो कि जड-प्रपंचो के अस्तित्व के रूप में व्यक्त होता है , चित् जो कि जीव-प्रपंचों में चैतन्य के रूप में व्यक्त होता है , आनन्द जो कि अनन्त का पर्याय है , सर्वत्र जीव-जड में आवृत्त है । उपरोक्त कथित आवृत्त अंश ही , अज्ञान का अधिष्ठान है । आवृत्त अनन्तत्व के फल से ही भ्रान्ति जगत् और अहंकारी जीव दोनों सात्यवद् लोकव्यवहार में रत् हैं । उपरोक्त वर्णित तथ्यात्मक छवि ही माया-कल्पित जगत् का स्वरूप है । ..... क्रमश:

एक-पक्षीय-व्याप्ति

पद-परिचय-सोपान एक-पक्षीय-व्याप्ति सर्व-विभू: आत्मा कण-कण में व्याप्त है । परन्तु आत्मा में अन्य किसी की व्याप्ति सम्भव नहीं है । उपरोक्त कथित एक-पक्षीय व्याप्ति का कारण , आत्मा का सूक्ष्मतम् होना है । आत्मा ही समस्त अन्य का अधिष्ठान है । आत्मा के सत्यत्व के आश्रय द्वारा ही , सम्पूर्ण अन्य अनात्मन अस्तित्वमान है । चेतन-प्रपंचों में अधिष्ठान आत्मा अपने को चैतन्य के रूप में व्यक्त करती है । जड-प्रपंचों में अधिष्ठान आत्मा अपने को अस्तित्व के रूप में व्यक्त करती है । आत्मा का अनन्तत्व , जड और चेतन दोनो में , माया-शक्ति द्वारा आवृत्त है । ..... क्रमश:

बौद्धिक-स्थिति

पद-परिचय-सोपान बौद्धिक-स्थिति ज्ञान की दशा एक विलक्षण बौद्धिक-स्थिति है । बौद्धिक-स्थिति जिसमें , मस्तिष्क केवल आत्म-स्वरूप की वृत्ति को ही धारण करता है , पोषित करता है , संचित करता है । यह निश्चयात्मक दृढ-प्रतिज्ञता की दशा है । मस्तिष्क जो पूर्ण-रूप से आत्म-विषयक उपदेश से संतुष्ट है , आत्म-स्वरूप के सत्यत्व से ओत्-प्रोत् है , आत्म-स्वरूप की वृत्ति में ही समाधिष्ट है , ऐसा विलक्षण मस्तिष्क , ज्ञान में स्थापित है । मस्तिष्क जिसकी आत्म-स्वरूप ही एकमात्र स्थिति है , अभिव्यक्ति है । ज्ञातव्य है कि ज्ञान सदैव विषय है । विषय का वृत्ति-वृतान्त , उपरोक्त वर्णित स्थिति है । ज्ञान की एक ही दशा सम्भव है । ...... क्रमश:

ज्ञान-दशा

पद-परिचय-सोपान ज्ञान-दशा अपने आत्म-स्वरूप में सतत् स्थापित रहना , यह ज्ञान की दशा है । ज्ञान की स्थापना स्थल मस्तिष्क है । मस्तिष्क का सतत् आत्म-स्वरूप में स्थिर रहना , ज्ञान की दशा है । मस्तिष्क में , आत्म-स्वरूप के व्यतिरिक्त किसी अन्य वृत्ति की गति-शून्यता की दशा , ज्ञान की दशा है । यद्यपि की व्यवहारिक जगत् के व्यवहार-रत् व्यक्ति के लिये , उपरोक्त कथित स्थिति , मात्र एक सैद्धान्तिक प्रतिपादन है , परन्तु मुमुक्षु ज्ञान-जिज्ञासु के लिये , उपरोक्त वर्णित दशा , साध्य ज्ञान-दशा है । ..... क्रमश:

आत्मज्ञान बौद्धिक उत्कर्ष

पद-परिचय-सोपान आत्मज्ञान बौद्धिक उत्कर्ष आत्मा अर्थात् व्यक्ति के अपने स्वरूप का ज्ञान , एक उत्कृष्ट मानसिक उपलब्धि है । मस्तिष्क जो कि माया-क्षेत्र का अवयव है , में मायातीत लोक का ज्ञान , मस्तिष्क के कर्म-सम्पादन के विचार में , एक विलक्षण उपलब्धि है । मस्तिष्क का कर्म-सम्पादन नैसर्गिक रूप से माया-लोक के लिये कल्पित है । उपरोक्त कथित मानसिक उत्कर्ष उपलब्धि , शास्त्र प्रमाण द्वारा सम्भव होती है । अति-सात्विक मानसिक दशा वाँक्षना होती है । आत्मज्ञानी व्यक्ति , लोकव्यवहार में सम्मलित रहते हुये भी विलक्षण होता है । आत्मज्ञान विलक्षण उपलब्धि है । यह उत्कृष्ट मानसिकता की स्थिति है । ..... क्रमश:  

मस्तिष्क के संस्कार

पद-परिचय-सोपान मस्तिष्क के संस्कार कर्म-योग , उपासन-योग , ज्ञान-योग समस्त तीनो ही स्तरों के तप का उभयनिष्ठ लक्ष्य , मस्तिष्क का संस्का र होता है । संस्कार अर्थात् मस्तिष्क जो कि लोकव्यवहार में संलग्न है , को व्यवहारिक स्तर से व्यवहारातीत ज्ञान-स्तर पर्यन्त का शोध है । व्यवहारिक वस्तु-रूप-ज्ञान मात्र लोकव्यवहार के लिये उपयोगी अनुभव है । यह माया-कल्पित जगत् की सीमा पर्यन्त ही प्रयोज्य है । आत्मज्ञान लोकातीत है । इसलिये मस्तिष्क का सन्स्कार महत्वपूर्ण अवयव है । समस्त ज्ञान-यात्रा परिमार्जित मस्तिष्क के आश्रय से ही सम्भव है । ..... क्रमश:  

ग्रहण-क्षमता

पद-परिचय-सोपान ग्रहण-क्षमता मस्तिष्क को व्यवहार , कर्म-योग , उपासन-योग , ज्ञान-योग , केन्द्रीकरण अभ्यास , के पथ से आत्मा के वृत्ति-बोध पर्यन्त विकास की स्थिति को ग्रहण करने के लिये तत्पर बनाना है । उपरोक्त वर्णित समस्त और प्रत्येक को , सतत् अभ्यास करते हुये , उपरोक्त वर्णित समस्त और प्रत्येक का नियमित संचालन , मस्तिष्क की आम क्रिया-पद्धति बन जाने की दशा , कुश ल-संलग्नता है । निष्ठा और तप अनिवार्य वाँक्षनायें हैं । लक्षित-उपलब्धि आत्म-ज्ञान है । उपरोक्त समस्त मस्तिष्क के नियंत्रित उपयोग और विस्तृत-दक्षता के आश्रय पर है । ..... क्रमश:

क्षमता-विस्तार

पद-परिचय-सोपान क्षमता-विस्तार कर्म-योग , उपासन-योग , ज्ञान-योग तीनो ही व्यक्ति की मानसिक-क्षमता के विस्तार के हेतु हैं और क्रमिक उत्थान के चरण हैं । ज्ञान चर्मोत्कर्ष स्थिति है । ज्ञान भी विकसित मानसिक दक्षता है । आत्मा ज्ञान-स्वरूप है । ज्ञान-स्वरूप का वृत्ति-बोध मस्तिष्क में होता है । मस्तिष्क ही जगत् के समस्त व्यवहार का संचालक भी है । मस्तिष्क स्वयं माया सृजित अवयव है । उपरोक्त वर्णित समस्त स्थितियाँ मिलकर एक गूढ पहेली हैं । उपरोक्त पहेली का विश्लेषण , और वेध मस्तिष्क द्वारा ही सम्भव होता है । कर्म-उपासन-ज्ञान वैकल्पिक नहीं हैं अपितु तीनो ही अनिवार्य है । सात्विक आचरण , संयमित प्रयत्न , दृढ-निष्ठा , तप यह सभी अनिवार्य वाँक्षना है । लक्षित उपलब्धि , आत्म-ज्ञान है । मस्तिष्क का विकास पथ है । ...... क्रमश:    

क्षमता

पद-परिचय-सोपान क्षमता व्यवहारिक जगत् के व्यक्ति के विचार में , क्षमता मुख्यत: भौतिक और मानसिक क्षेत्र में प्रभावी भूमिका की हैं । पुन: क्षमता को चिन्हित करना और उपलब्ध क्षमता का पूर्ण उपयोग करना यह व्यक्ति की कार्य-दक्षता के आंकलन के विचार में महत्व के अवयव हैं । भौतिक क्षमताओं की उपयोगिता सीमित परिमाप की हैं , जबकि मानसिक क्षमतायें व्यापक विस्तार की होती है । व्यक्ति की क्षमताओं के उपयोग से पूर्व उनका चिन्हित होना पहले महत्वपूर्ण है । कुछ क्षमतायें जन्म से उपलब्ध होती है और शेष अर्जित होती हैं । क्षमता उपरोक्त कथित किसी भी क्षेत्र की होवें , परन्तु उनका चिन्हित होना , उनका नियन्त्रित उपयोग सदैव मस्तिष्क द्वारा ही सम्भव है । उपरोक्त कथित विस्तृत विवेचना के आधार पर , मस्तिष्क ही व्यवहारिक व्यक्ति के उत्थान का आश्रय है । उत्थान , धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष पुरुषार्थ के क्षेत्र का है अथवा ज्ञान की जिज्ञासा के क्षेत्र का है , मस्तिष्क के आश्रित है । ..... क्रमश:    

अज्ञान-प्रादुर्भाव

पद-परिचय-सोपान अज्ञान-प्रादुर्भाव अज्ञान सदैव अनादिकालीन ही होता है । परन्तु अनादिकालीन होते हुये भी अज्ञान का अन्त होता है । ज्ञान की दशा ही अज्ञान का अन्त है । इसलिये अज्ञान के प्रादुर्भाव का विचार आधारविहीन है । व्यक्ति कार्य-कारण-सृष्टि की ही उत्पत्ति है । व्यक्ति यदि माया-उत्पत्ति का कार्य है , तो कारण उसके संचित-कर्म-फलों का भोग बताया जायेगा । संचित-कर्म-फलों की उत्पत्ति की खोज की जायेगी तो उत्तर मिलेगा , अज्ञान है । उपरोक्त खोज को करते हुये , पीछे चलते जाइये , अनन्त तक चले जाने पर भी उसकी उत्पत्ति नहीं मिलेगी । ऐसा क्यों ? क्योंकि वह अनादि-कालीन है । इसलिये अज्ञान की उत्पत्ति का शोध सार्थक प्रयत्न नहीं है । अज्ञान का निवारण सार्थक विचार है । प्रयत्न है । अज्ञान का एक बार निवारण का अर्थ है कि वह सदैव के लिये समाप्त हो जाता है । ....... क्रमश:

कार्य-कारण-क्यों

पद-परिचय-सोपान कार्य-कारण-क्यों माया कल्पित जगत् का मिथ्यात्व ही कार्य-कारण की उत्पत्ति का केन्द्र है । यदि कंचिद जगत् सत्य अस्तित्व होता तो , कोई कारण की खोज आवश्यक ही नहीं है । सत्य है , इस अभिव्यक्ति में कारण की खोज कहाँ आवश्यक है ? कैसे आवश्यक है ? नहीं आवश्यक है , क्योंकि जो है वह सत्य है , तो कारण का कहाँ स्थान है । कारण की खोज ही तभी आवश्यक हो जाती है , जब जो अनुभव-गम्य है वह सत्य नहीं है , अपितु मिथ्या है । इस मिथ्या अनुभव-गम्य जगत् का कारण क्या है ? व्यक्ति का अज्ञान कारण है । पुन: प्रश्न आयेगा , कि जगत् मिथ्या है तो , सत्य क्या है ? उत्तर है , अनुभव-कर्ता व्यक्ति का स्वरूप उसकी आत्मा , सत्य है । कारण-कार्य का निवारण , अर्थात् अज्ञान का निवारण , कैसे सम्भव है ? उत्तर है , ज्ञान द्वारा अर्थात् अपने स्वरूप-बोध द्वारा अर्थात् आत्म-ज्ञान द्वारा कार्य-कारण का निवारण है । क्यों ? इसलिये कि आत्मा-कार्य-कारण-विलक्षण है । ........ क्रमश:     

गुणातीत दशा मुक्ति

पद-परिचय-सोपान गुणातीत दशा मुक्ति व्यक्ति का मस्तिष्क अपने नैसर्गिक रचनागत स्वभाव में , गुणाशक्ति को उद्यत होता है । तप , मस्तिष्क की मौलिक दुर्बलता का निवारण करने में सक्षम होता है । तप से परिष्कृत मस्तिष्क गुणातीत ज्ञान की दशा का भोग करता है । उपरोक्त कथित भोग-दशा ही जीवन-मुक्ति है । मोक्ष ही आनन्द है । चिर-शान्ति है । सर्वोच्च उपलब्धि है । तप पथ है । ..... क्रमश:

गुण-आशक्ति

पद-परिचय-सोपान गुण-आशक्ति त्रिगुणात्मिका माया शक्ति , व्यक्ति के ज्ञान-आश्रय-स्थल मस्तिष्क को , आशक्ति के मोंह में बाँध देती है । मोहाशक्त व्यक्ति अपनी असहायता को आदत कहता है । उपरोक्त कथित आदत , मस्तिष्क की दुर्बलता का एक सौम्य पद मात्र है । उपरोक्त कथित मानसिक दुर्बलता का निवारण करने से ही ज्ञान-सम्भावना का उदय सम्भव होता है । मानसिक दुर्बलता केवल तप द्वारा क्षीण होती है । ज्ञान हेतु तप को निबिध्यासन पद प्रदान किया जाता है । ..... क्रमश

मनोवेग-जनित पीडाओं से मुक्ति

पद-परिचय-सोपान मनोवेग-जनित पीडाओं से मुक्ति मनोवेग व्यक्ति को मानसिक पीडा कारक होते हैं । मनोवेग अहंकार की सहज देन है । ज्ञान की दशा , अहंकार का निषेध है । उपरोक्त विश्लेषण द्वारा सहज निश्कर्ष निकलता है कि ज्ञानी के लिये मनोवेग केवल वस्तु-रूप दृष्य मात्र रह जाते हैं । जबकि अहंकार पोषित व्यक्ति के लिये मनोवेगों का सहज सम्बन्ध उसके स्व से है । मनोवेग ही समस्त त्रासदाओं का मूल होते हैं । व्यक्ति की परिच्छिन्नता की अनुभूति , उसके अज्ञान मात्र से है । व्यक्ति का मौलिक स्वरूप तो अनन्त है । व्यापक है । अनन्त स्वरूप आत्मा का धारक व्यक्ति , जब एक शरीर विषेस को अपना परिचय बना लेता है , तो परिच्छिन्नता तो उसने स्वयं ओढ ली है , न कि प्रकृति प्रदत्त है । व्यक्ति द्वारा अपनी व्यापक आत्मा का स्वरूप ज्ञान ही , उसकी अपनी परिच्छिनता का निवारण है , त्रासदाओं का समापन है , आनन्द-स्वरूप की स्थापना है । उपरोक्त समस्त मस्तिष्क की ग्राह्यता के अधीन है । ..... क्रमश:

स्वाभाविक अभिव्यक्ति

पद-परिचय-सोपान स्वाभाविक अभिव्यक्ति व्यक्ति का मनोवेगों के प्रति सामान्य प्रतिक्रिया की अभिव्यक्ति , उसके स्व की अनुभूति के आधार के आश्रित होती है । अहंकार के आधार से पोषित व्यक्ति की मनोवेगों के प्रतिक्रिया और आत्मा के आधार से पोषित व्यक्ति की मनोवेगो के प्रतिक्रिया में वृहद भेद पाया जाता है । सच्चे अर्थों में उपरोक्त कथित व्यक्ति की मनोवेगो के प्रतिक्रिया ही स्पष्ट लक्षण होते हैं , जिससे व्यक्ति में ज्ञान और अज्ञान के स्तर का मूल्याँकन सम्भव हो जाता है । ज्ञान की स्थिति मात्र स्वंभू: घोषणा नहीं है । ज्ञान व्यक्ति के आचरण में स्पष्ट प्रगट होता है । ज्ञान की दशा के व्यक्ति के लिये काम-क्रोध आदि उतने ही सहज हो जाते हैं जितना कि कोई भी सहज प्रवृत्ति होती है । ..... क्रमश

असंग-चैतन्य

पद-परिचय-सोपान असंग-चैतन्य व्यक्ति का परिचय , उसका स्व , उसका चैतन्य है , न कि उसकी जडता है । चैतन्य , आत्मा है , फिरभी वह स्थूल-सूक्ष्म-कारण-शरीर समुदाय से भिन्न है , और उपरोक्त से असंग है , विलक्षण है । स्थूल-सूक्ष्म-कारण-शरीर की चेतन-अभिव्यक्ति भ्रान्ति है , अहंकार है । असंग-चैतन्य की , स्व की अनुभूति , ज्ञान की दशा है । उपरोक्त वर्णित अनुभूति , माया-शक्ति द्वारा बाधित है । उपरोक्त वर्णित माया-बाधित अनुभूति की ग्राह्यता मोक्ष-पुरुषार्थ है । ..... क्रमश:

अहंकार-शून्यता

पद-परिचय-सोपान अहंकार-शून्यता स्व अर्थात् स्वरूप की अनुभूति , व्यवहारिक स्वरूप से ज्ञान-स्वरूप में अन्तरित हो जाने की दशा , अहंकार-शून्यता की दशा है । ज्ञान की दशा में , स्थूल-सूक्ष्म-कारण-शरीर समुदाय पूर्णतया एक भिन्न अवयव है जिसमें आत्मा की अभिव्यक्ति परिलक्षित हो रही है । यह पूर्णतया एक बौद्धिक धरणा-शक्ति है । स्थूल-सूक्ष्म-कारण-शरीर समुदाय पूर्ववत् कार्यकारी स्थिति में ही रहेगा , परन्तु एक भिन्न अस्तित्व है । वह स्व नहीं है । मात्र एक जीव है । एक प्रकृति-शासित जीव जो अपने संचित-कर्म-फलों का भोक्ता है । गतिशील है । स्व , मात्र उपरोक्त-कथित जीव का साक्षी है । ..... क्रमश:

दृढ-स्थापना चरण 3

पद-परिचय-सोपान दृढ-स्थापना चरण 3 स्व-स्वरूप-धारण अर्थात् ज्ञान , जब संकल्प-विकल्प की द्वंदात्मक परिधि से मुक्त होकर दृढ-विश्वास की परिधि में प्रवेष करता है , तब उपरोक्त कथित दृढ-निश्चयात्मक ज्ञान की , व्यक्ति के स्वभाव के अंग-स्वरूप स्थापना की पारी आती है । व्यक्ति का आचरण , उसके स्वभाव का निरूपण-स्वरूप में अपेक्षित होता है । व्यक्ति का आचरण , ज्ञान की अभिव्यक्ति हो जाय , यह ज्ञान-की-दृढ-स्थापना-दशा है । यह प्रयत्नपूर्वक ही सम्भव हो सकती है । इस दशा की प्राप्ति ही तीसरा चरण है । ..... क्रमश: