द्वैत अपूर्णत्व


पद-परिचय-सोपान
द्वैत अपूर्णत्व आत्मा सर्वस्य है । उपरोक्त वर्णित वेद उपदेश आत्मा के आनन्द-स्वरूप की व्याख्या है । उपरोक्त कथित वेद उपदेश का विलोम, द्वैत दर्शन, स्वत: परिच्छिन्नता की अनुभूति का आधार है । उपरोक्त कथित द्वैत दर्शन को विद्वान आचार्य आदि-शंकर ज्ञान-जिज्ञासा अर्थात् मोक्ष-पुरुषार्थ के लिये अयोग्यता निर्धारित करते हैं । इदँ सर्वं यदयमात्मा यह सम्पूर्ण “मैं-आत्मा” हूँ । आत्मा की उपरोक्त अभिव्यक्ति, पर्याय है, 1- आत्मज्ञान द्वारा सर्वज्ञान सम्भव है, 2- आत्मज्ञान से सर्व-काम-प्राप्ति है, 3- सर्व-भाव की प्राप्ति है, 4- जगत् मिथ्यात्व का बोध है । अहंकार पोषित व्यक्ति को उपरोक्त उपदेश भी ग्राह्य नहीं हो पाता है, कारण कि वह आत्मा के उपरोक्त उपदेश को भी अपने स्थूल-सूक्ष्म शरीर की सीमा में सीमित करके ग्रहण करने की चेष्टा करता है, जबकि उपरोक्त उपरोक्त उपदेश आत्मा के अनन्त स्वरूप को निरूपित करने वाला है । ..... क्रमश:

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