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संकल्प-विकल्प-निवारण चरण 2

पद-परिचय-सोपान संकल्प-विकल्प-निवारण चरण 2 मनुष्य का मस्तिष्क ही उसका मित्र भी होता है और उसका शत्रु भी होता है । एक वृत्ति परम्परा जन्म से संचरित हो रही है । समय विषेस पर उपरोक्त कथित वृत्ति परम्परा को अनुपयुक्त पाये जाने पर , उसे निर्मूल कर , एक भिन्न वृत्ति की स्थापना का अवसर उपस्थित होता है । उपरोक्त कथित स्थिति में , पूर्व से व्यव्हृत-वृत्ति-परम्परा और नवीन प्रस्तावित वृत्ति के मध्य , एक परस्पर द्वंद की स्थिति , व्यक्ति के मस्तिष्क में क्रियाशील हो जाती है । उपरोक्त कथित द्वंद की स्थिति का , मानसिक-चिन्तन और विवेक की मध्यस्थता द्वारा , शमन करना ज्ञान प्रक्रिया का द्वितीय चरण है । ...... क्रमश:  

स्व-स्वरूप-धारण चरण 1

पद-परिचय-सोपान स्व-स्वरूप-धारण चरण 1 ज्ञान सम्भावना का केवल एक पथ , ज्ञान को स्व-स्वरूप में धारण करना , है । अज्ञान का निवारण , शास्त्र उपदेश को , दीर्घ अवधि पर्यन्त , क्रमिक शिक्षा-पद्धति द्वारा , गुरू के सानिध्य में रहकर , निष्ठापूर्ण श्रवण द्वारा होता है । अज्ञान के निवारण मात्र से व्यक्ति को ज्ञान का शाश्वत् स्वरूप बोध , व्यक्ति में व्याप्ति-बोध के रूप में उदय होती है । उपरोक्त वर्णित स्थिति स्व-स्वरूप-धारण का प्रथम चरण मात्र है । ...... क्रमश:

ज्ञान-प्राप्ति

पद-परिचय-सोपान ज्ञान-प्राप्ति ज्ञान व्यक्ति का स्वरूप है । इसलिये ज्ञान-प्राप्ति एक भ्रामक अभिव्यक्ति है । यह कोई उपलब्धि अथवा अवसर नहीं है । व्यक्ति अपने स्वरूप से अनभिज्ञ है । व्यक्ति की अपने स्वरूप की अनभिज्ञता का निवारण ही ज्ञान है । अत: ज्ञान अर्थात् आत्म-स्वरूप को स्व के रूप में धारण करना ही ज्ञान है । उपरोक्त वर्णित ज्ञान को स्व-स्वरूप धारण करने की प्रक्रिया को , विद्वान आचार्य-गणों ने तीन चरणों में विभक्त करके जिज्ञासु को ग्राह्य कराने की चेष्टा करते हैं । उपरोक्त कथित प्रत्येक तीन चरण का परिचयात्मक उल्लेख आगे के तीन अंको में प्रस्तुत किया जायेगा , अनुसरण निवेदित है । ..... क्रमश:

तीनो योग आवश्यक

पद-परिचय-सोपान तीनो योग आवश्यक किसी भी ज्ञान-जिज्ञासु के लिये तीनो ही योग नामत: कर्म-योग , उपासन-योग , ज्ञान-योग का अभ्यास अनिवार्य है । अधिक स्पष्ट करते हुये , तीनो योग वैकल्पिक नहीं हैं अपितु तीनो ही मिलकर एक पूर्ण स्थिति हैं । प्रथम दो कर्म-योग और उपासन-योग तैयारी है , अन्तिम ज्ञान-योग उपलब्धि है । ज्ञान-प्रक्रिया मस्तिष्क की उत्कृष्ट दशा की प्राप्ति है । इसलिये मस्तिष्क के परिमार्जन से प्रारम्भ करके विकसित दशा से मार्गी होते हुये उत्कृष्ट पर्यन्त की यात्रा है । अज्ञान भ्रमित मस्तिष्क की दशा है । ज्ञान शाश्वत् उत्कृष्ट सक्षम विकसित मस्तिष्क की दशा है । ..... क्रमश:

तीन धर्म का विनय

पद-परिचय-सोपान तीन धर्म का विनय आत्म-ज्ञान का जिज्ञासु ईश्वर से तीन मानसिक धर्म की याचना करता है । एक , हे ईश्वर मुझे इस जगत् की जो अ-परिवर्तनीय स्थितियाँ हैं , उन्हे यथा स्वरूप स्वीकार करने की मानसिक क्षमता प्रदान करें प्रभूजी । दो , इस जगत् में जो कुछ परिवर्तित होने योग्य स्थितियाँ है , उन्हे परिवर्तित करने का साहस दो प्रभूजी । तीन , इस जगत् में क्या अपरिवर्तनीय स्थितियाँ हैं , और क्या परिवर्तनीय स्थितियाँ है , इनका भेद जानने का विवेक दें प्रभूजी । ...... क्रमश

गूढता का रहस्य

पद-परिचय-सोपान गूढता का रहस्य आत्मा सूक्ष्म तत्व है । व्यक्ति को अनुभव-ज्ञान के लिये उपलब्ध पांच ज्ञानेन्द्रियां केवल बाह्य जगत् के वस्तु-रूप-ज्ञान के लिये योग्य प्रमाण हैं । आत्मा ज्ञान-विषय है । आत्मा किसी भी दशा में प्रमेय नहीं बन सकता है । इसलिये आत्मा की प्रमा , ज्ञानेन्द्री प्रमाण द्वारा सम्भव नहीं हो सकती है । उपरोक्त कथित कारण से आत्म-ज्ञान-गूढ है । जिस प्रकार आँखे समस्त बाह्य जगत् को देख सकती हैं परन्तु स्वयं अपने को नहीं देख सकती हैं । उसी प्रकार प्रमाता समस्त बाह्य जगत् का अनुभव करता है परन्तु स्वयं अपने स्वरूप का अनुभव नहीं कर सकता है । स्वयं अपनी आँखों को देखने के लिये एक बाह्य सिद्धान्त , दर्पण का आश्रय लेना पडता है । उसी प्रकार आत्मा के ज्ञान के लिये शास्त्र प्रमाण , जो कि दर्पण का कार्य करते हैं , के आश्रय से ही सम्भव हो सकता है । ..... क्रमश:

आत्म-ज्ञान

पद-परिचय-सोपान आत्म-ज्ञान शास्त्र समस्त अनुभवगम्य जगत् को अनात्मन कह कर निषेध करते हैं । प्रश्न उत्पन्न होता है कि , अनुभवगम्य से परे क्या है ? उत्तर है , स्वयं अनुभवकर्ता अनुभवातीत है । अनुभवकर्ता को बाह्य जगत् का अनुभव सम्भव है परन्तु स्वयं अपना अनुभव वह अनुभवकर्ता नही कर सकता है । यह माया-कल्पित सृष्टि की मौलिक सीमा है । माया सृष्टि की विलक्षणता है । पुन: प्रश्न सृजित होता है कि आत्म-ज्ञान क्या है ? प्रारम्भिक अवस्था में , अज्ञान के निवारण , को आत्म-ज्ञान के रूप में ग्रहण करना है । आत्मज्ञान सूक्ष्म-गूढ विषय है । क्रमिक दीर्घ-कालीन शिक्षण द्वारा सम्भव होता है । ..... क्रमश:

बन्धन

पद-परिचय-सोपान बन्धन प्रेय: पुरुषार्थों में दो प्रकृति जन्य दोष होते हैं । प्रेय: का आभाव मानसिक क्लेष-कारक होता है । दूसरा , प्रेय: की उपलब्धि भार होती है , जो कि मानसिक तनाव-कारक होती है । उपरोक्त कथित दोनो स्थितियाँ व्यक्ति का बन्धन हैं । उपरोक्त कथित बन्धन से मुक्ति का केवल एक पथ है । पथ , व्यक्ति को अपने स्वरूप का ज्ञान है । आत्म-ज्ञान बन्धन से मुक्ति का उपाय है । आत्म-ज्ञान मोक्ष है । उपरोक्त कथित बन्धन प्रकृति जन्य है । अपरिहार्य है । अनादिकालीन है । परन्तु उपरोक्त का अन्त ज्ञान द्वारा सम्भव है । ..... क्रमश:

ज्ञान-योग

पद-परिचय-सोपान ज्ञान-योग ज्ञान प्राप्ति के लक्ष्य से किये गये पुरुषार्थ को ज्ञान-योग कहा जाता है । व्यक्ति के अपने स्वरूप का ज्ञान , को ज्ञान कहा जाता है । व्यक्ति का स्वरूप उसकी आत्मा है । आप्नोति इति आत्मा । जो सर्वत्र व्याप्त है , उसे आत्मा कहा जाता है । उपरोक्त समस्त अभिव्यक्ति कंचिद विस्मयकारक है । व्यक्ति अपनी स्थूल शरीर को , अपने मस्तिष्क को अपना परिचय जानता है । परन्तु उपरोक्त वर्णित अनुभवगम्य परिचय भ्रामक है , अज्ञान है । अनेक प्रश्न विचारणीय हो जाते हैं , यथा आत्मा क्या है ? आत्म-ज्ञान की आवश्यकता क्यों है ? अज्ञान क्यों है ? अज्ञान के लिये दोषी कौन है ? ज्ञान प्राप्ति का पथ क्या है ? आदि अन्य और भी । उपरोक्त वर्णित जिज्ञासाओं पर विचार किया जाता है । ..... क्रमश:  

नियमितता अभ्यास

पद-परिचय-सोपान नियमितता अभ्यास संकल्पित कार्य का सही समय पर सम्पादित करने का अभ्यास , मस्तिष्क नियन्त्रण के विचार में , एक प्रभावी औजार है । व्यक्ति किसी को समय देता है , कंचिद दिये गये समय पर , वह सत्य रूप में उसे , सत्य प्रमाणित करता है , तो यह उसके मानसिक दक्षता का प्रतीक है । अन्यथा की स्थिति सर्वत्र देखी जाती है । व्यक्ति समय देता है कि दस बजे आयेंगे , परन्तु क्रियान्वन के समय , दस तीस हो गया है , व्यक्ति की अभी भी आने की प्रतीक्षा है । उपरोक्त वर्णित नियमितता का अभ्यास , दक्ष व्यक्तित्व का स्वरूप है । यह समाधि-योग का एक विलक्षण पथ है । अभ्यास अपेक्षित है । ..... क्रमश

विचारशीलता विस्तार

पद-परिचय-सोपान विचारशीलता विस्तार सामान्य रूप के लोकव्यवहार में , व्यक्ति का अहंकार-बोध , व्यक्ति को अपने स्वत: को , सर्वोच्च के रूप में अनुभूति कराता है । परन्तु , कंचिद व्यक्ति समष्टि अर्थात् विराट-देवता का विचार करे , तो   पायेगा कि विराट के सापेक्ष उसके अपने स्वत: एक अस्तित्व का क्या सामर्थ्य अनुपात है ? उत्तर कंचिद शून्य होगा । उपरोक्त कथित विचार के अभ्यास , समष्टि को प्राथमिक महत्वपूर्ण अवयव के रूप में स्वीकारना , व्यक्ति के अपने विचारशीलता के विस्तार के रूप में प्रमाणित होता है । उपरोक्त वर्णित मस्तिष्क की विचारशक्ति का विस्तार , मस्तिष्क के नियन्त्रण के विचार में , अत्यन्त प्रभावी विधि है । यह समाधि-योग का एक विलक्षण पथ है । अभ्यास अपेक्षित है । ..... क्रमश:

केन्द्रीकरण दक्षता

पद-परिचय-सोपान केन्द्रीकरण दक्षता मस्तिष्क का नियन्त्रण , मस्तिष्क की गुणात्मक दक्षता के द्वारा , यह विलक्षण विधि है । किसी विशिष्ट विचार , किसी विशिष्ट वस्तु-रूप , किसी विशिष्ट अवसर के ऊपर मस्तिष्क को केन्द्रित करना एक विशिष्ट दक्षता है । यह मस्तिष्क को केन्द्रित करने की क्षमता जितनी ही प्रखर होगी , मस्तिष्क की कार्य-शक्ति उतनी ही विलक्षण प्रमाणित होती है । मस्तिष्क को केन्द्रित करने का सामर्थ्य , मस्तिष्क के नियन्त्रण के विचार में सर्वोच्च प्रभावी अंकुश है । वर्तमान समय में , विविध पथ इसकी उपलब्धि के लिये सुझाये जाते हैं । पथ कोई भी अपनाया जाय , परन्तु अन्तिम निष्कर्श केन्द्रीकरण क्षमता की उपलब्धि अद्भुद प्रभावी प्रमाणित होता है । यह समाधि-योग का एक विलक्षण पथ है । अभ्यास अपेक्षित है । ..... क्रमश:

दक्ष कार्य शैली

पद-परिचय-सोपान दक्ष कार्य शैली मस्तिष्क का नियन्त्रण , मस्तिष्क की स्वस्थ्य कार्य शैली के पथ से , दक्ष चिन्तन विधि है । किसी काल विषेस पर , मस्तिष्क में गति करने वाली वृत्तियाँ , सन्चालित किये जा रहे कर्म से सम्बन्धित होती हैं । कालान्तर से सन्चालित किये जा रहे कार्य में यथा परिस्थिति परिवर्तन होता है । तत् समय विगत कार्य की वृत्तियाँ भी क्षीण हो जाना अपेक्षित है । परन्तु व्यवहारिक अनुभव व्यक्त करता है कि , विगत कार्य की वृत्तियाँ क्षीण नहीं होती हैं । फलत: मस्तिष्क में अधिक वृत्तियों की गति की स्थिति , मस्तिष्क में अव्यवहारिक तनाव की स्थिति सृजित करती हैं । यह अ-वाँक्षित स्थिति है । स्वस्थ्य कार्य शैली का आभाव उपरोक्त वर्णित अ-वाँक्षित स्थिति का कारण है । समाधि-योग , उपरोक्त वर्णित अ-वाँक्षित स्थिति को , स्वस्थ्य कार्य शैली को अंगीकार कर कार्य सम्पादन करने का पथ निर्देश करते है । यह समाधि-योग का एक विलक्षण पथ है । अभ्यास अपेक्षित है । ..... क्रमश:   

हितम्-लक्षित-वाक्

पद-परिचय-सोपान हितम्-लक्षित-वाक् सदैव अगले श्रोता व्यक्ति के हित का विचार , आप वक्ता , अपने मस्तिष्क में करें , ऐसा उपदेश आदेश है ! उपरोक्त कथित उपदेश का फल होगा कि आप वक्ता सदैव अगले श्रोता का हित ही भाषित करेंगे ! आपके बोले वचन निश्चयात्मक अगले व्यक्ति को प्रिय अनुभूति संचरित करने वाले हैं ! सदैव सद्भाव सम्भावना है । सदैव समन्वय है ! सदैव शान्ति है । अनुशासन है ! अभ्यास अपेक्षित है ! ..... क्रमश:  

प्रियम्-वद्

पद-परिचय-सोपान प्रियम्-वद् वैदिक पुरुष ! एक अनुशासित व्यक्ति ! एक व्यक्ति जिसके प्रत्येक कर्म अनुशासित हैं ! उस व्यक्ति के मस्तिष्क में गति करने वाली वृत्तियाँ अनुशासित हैं ! ऐसे अनुशासित वैदिक पुरुष के वचन , श्रोता व्यक्ति को सदैव प्रिय अनुभूति संचरित करने वाले होने ही होने है ! वेद आदेश करते हैं , प्रियम् वद् ! विचार करें , कोई भी अगला व्यक्ति प्रिय मृदुल वचन का वक्ता है , आप स्वयं श्रोता हैं , आपके मस्तिष्क में उपरोक्त कथित वचनो को सुनने पर किस प्रकार की अनुभूतियाँ गति करेंगी ? आपका निश्चयात्मक उत्तर है , सुखद ! वेद आदेशों की यह मंशा है ! एक उत्कृष्ट समाज , जिसमें प्रत्येक व्यक्ति , हर दूसरे व्यक्ति के प्रति सहज है , मृदुल है , शुभ है ! यह वैदिक समाज की क्षवि-दर्शन है । प्रयत्न अपेक्षित है । ...... क्रमश:  

सत्यम्-वद्

पद-परिचय-सोपान सत्यम्-वद् वेद उपदेश का आदेश है , सदैव सत्य वचन बोलना है । सच बोलने वाले व्यक्ति के विचार , विचार-अभिव्यक्ति उसके वचन और उसके कर्म तीनो ही एक समन्वय में होते हैं । ऐसे व्यक्ति का आचरण सदैव सरल रहता है । ऐसा व्यक्ति जो मस्तिस्क में सोचेगा , जो मुँह से बोलेगा , जो कर्म करेगा तीनो एक ही होंगे इसलिये वह सरल व्यक्ति है । उपरोक्त वर्णित स्थिति , वाक् अनुशासन का दूसरा लक्षण है । लक्षित गन्तव्य सतत् स्मरणीय है । अनुशासित मस्तिष्क लक्ष्य है । अनुशासित वाक् पथ मात्र है । अभ्यास अपेक्षित है । अभ्यास ही तपस है । ..... क्रमश:

अन-उद्वेग-वाक्

पद-परिचय-सोपान अन-उद्वेग-वाक् अनुशासन का उद्देष्य सतत् स्मरण रखना निवेदित है । मस्तिष्क का अनुशासन लक्ष्य है । मस्तिष्क सूक्ष्म होने के कारण प्रत्यक्ष के लिये उपलब्ध नहीं है । लक्ष्य साधना मस्तिष्क के अधीनस्थ कार्यरत् कर्म-स्थल स्थूल-शरीर और कर्मेंन्द्री वाक् के पथ से करना है । विदित हैं कि साधन-रूप शरीर और वाक् को अनुशासित रखकर ही , उपरोक्त कथित लक्षित ध्येय की प्राप्ति सम्भव है । अनुशासित वाक् का पहला लक्षण अन्-उद्वेग-वाक् है । अन-उद्वेग की स्थिति श्रोता को लक्षित है । ऐसी वाक् अभिव्यक्ति जिसे सुन कर श्रोता व्यक्ति को किसी प्रकार उद्विग्नता की अनुभूति नहीं सम्भव है । ज्ञातव्य है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वाभिमान को उत्कृष्टतम मानता है । यदि कोई भी व्यक्ति किसी भी व्यक्ति के आत्म-सम्मान को आघात पहुँचाने वाला वचन बोलेगा तो श्रोता व्यक्ति उसे बर्दास्त नहीं कर सकता है । उपरोक्त वर्णित अभिव्यक्ति हिंसा सदृष्य है । अत: मस्तिष्क के नियन्त्रण के विचार में अन्-उद्वेग-वाक् महत्वपूर्ण वाँक्षना है । अभ्यास अपेक्षित है । ..... क्रमश:  

अनुशासित-वाक्

पद-परिचय-सोपान अनुशासित-वाक् ज्ञान-जिज्ञासु की तपस-साधना के लिये , अनुशासित वाक् को अति-महत्वपूर्ण , उद्देष्य निर्धारित किया गया है । अनुशासन एक व्यापक-अर्थ-धारक शब्द है । वर्तमान विचाराधीन प्रकरण में , अनुशासन को चार चरणों नामत: अन-द्वेग-वाक् , सत्य-वचन , प्रिय-वचन , हित्-लक्षित-वाक में विभाजित कर वाँक्षित समाधि-योग की प्राप्ति का पथ प्रस्तुत किया जा रहा है । मस्तिष्क नियन्त्रण के विचार में वाक् का तात्विक योगदान है । विचार-वाक्-कर्म यह त्रिकुटी है । विचार-स्थल मस्तिषक होता है , विचार-उद्घोष वाक् द्वारा होता है , विचार का क्रिया-स्थल स्थूल-शरीर होती है । उपरोक्त वर्णित विस्तार से विदित है कि अनुशासन के विचार में अनुशासित वाक् अनिवार्य वाँक्षना है । ..... क्रमश:

स्वस्थ-शरीर

पद-परिचय-सोपान स्वस्थ-शरीर ज्ञान-जिज्ञासा अर्थात् साधना-तपस करने के लिये स्वस्थ्य शरीर की वाँक्षना सहज समझ में आने वाली है । उपरोक्त की अभिव्यक्ति विभिन्न विद्वान विलक्षण प्रकार से करते हैं । यदि व्यक्ति अपनी स्थूल-शरीर को स्वस्थ्य रखने के लिये , सज्ञान-पूर्वक नियमित चेष्टा नहीं करेगा , तो उसे बाध्य होकर रोग-बाधाओं के निवारण के लिये अनियन्त्रित समय व्यय करना अ-परिहार्य है । उपनिषदों की स्तुतियों में भी स्वस्थ शरीर की प्रार्थना की जाती है । स्थूल-शरीर ही तपस का आधार स्थल है । स्थूल-शरीर को नियमित-सज्ञान-चेष्टाओं द्वारा स्वथ्य रखना , समाधि-योग का पहला चरण है । ..... क्रमश:

उपासन-योग

पद-परिचय-सोपान उपासन-योग विद्वान-आचार्य आदि-शंकर इसे समाधि-योग कहते हैं । शास्त्रों के शिक्षण का उद्देष्य व्यक्ति के मानसिक-विकास हेतु हैं । व्यक्ति का मस्तिष्क सूक्ष्म अवयव है । व्यक्ति को अपने मस्तिष्क का साक्षात् सम्भव नहीं है । व्यक्ति की समस्त ज्ञानेन्द्रियाँ मस्तिष्क के आश्रय द्वारा क्रियाशील हैं । उपरोक्त समस्त स्थिति के विद्यमान रहते मनोनिग्रह अति-सूक्ष्म प्रयत्न है । उपासन-योग अर्थात् समाधि-योग अर्थात् मनोनिग्रह अर्थात् सूक्ष्म ज्ञान की चेष्टा , उपरोक्त समस्त पर्याय अभिव्यक्तियाँ हैं । व्यक्तित्व का विभाजन विभिन्न आधारों पर किया जाता है , यथा स्थूल-शरीर , सूक्ष्म-शरीर , कारण-शरीर , पंच-कोष-विवेक आदि , परन्तु वर्तमान विचाराधीन प्रकरण को ग्राह्य कराने के लिये विद्वान-आचार्य आदि-शंकर व्यक्तित्व को तीन स्तर नामत: काया , वाक् , मस्तिष्क में करते हैं । उपरोक्त कथित तीनो ही स्तरों के अनुशासन के लिये विस्तृत व्याख्या आगे के अंको में खण्डों में प्रस्तुत करने का प्रयत्न है । ..... क्रमश:

निषिद्ध-कर्म

पद-परिचय-सोपान निषिद्ध-कर्म व्यक्ति के जिस भी कर्म से , अगले किसी भी जीव को क्लेष की प्राप्ति होती है , वह तामसिक-निषिद्ध कर्म है । शास्त्र उपदेश , निषिद्ध कर्मों को , नहीं करने के , आदेश करते है । निषिद्ध पाप-कर्मों के करने से व्यक्ति के संचित-पुण्य क्षीण होते है । व्यक्ति पतन को उन्मुख होता है । ..... क्रमश:

निष्काम-कर्म

पद-परिचय-सोपान निष्काम-कर्म उत्तम-कर्म , सात्विक-कर्म , पुण्य-कर्म सभी पर्याय अभिव्यक्तियाँ हैं । शास्त्र उपदेश व्यक्ति के मस्तिष्क को शुद्ध बनाने हेतु पुण्य-सात्विक-कर्मों को ईश्वर अर्पण भाव से करने का पथ निर्दिष्ट करते हैं । सात्विक कर्म का एक सरल लक्षण , पर-उपकार है । व्यक्ति के कृत , जिस भी कर्म द्वारा किसी दूसरे प्राणी को सुख मिले , वह पुण्य-सात्विक-कर्म है । सात्विक कर्म के अभ्यास द्वारा व्यक्ति के मस्तिष्क में विद्यमान अज्ञान के दु:विचारों का शमन होता है । मस्तिष्क पवित्र होने से व्यक्ति उत्तम-ज्ञान को ग्राह्य करने में सक्षम बनता है । ..... क्रमश:  

समुचित मानसिकता

पद-परिचय-सोपान समुचित मानसिकता व्यक्ति जब भी , किसी भी कर्म को करता है , सम्पादन पूर्ण होते ही , वह कर्म ईश्वर के क्षेत्र में हो जाता है । ईश्वर , कृत-कर्मों का , प्रकृति के संविधान द्वारा , उनका परीक्षण परिणाम प्राप्त करते हैं । ईश्वर , उपरोक्त वर्णन अनुसार प्राप्त हुये प्रकृति-संविधान-शोधित परीक्षण परिणामों को , कर्ता व्यक्ति को , कर्म-फल के रूप में , प्रत्यावर्तित करते हैं । उपरोक्त वर्णित समस्त प्रक्रिया में , व्यक्ति की मानसिक-दशा , एक- व्यक्ति द्वारा कर्म करने की अवधि में , और ईश्वर द्वारा प्रत्यावर्तित प्रकृति-संविधान-शोधित कर्म-फलो को ग्रहण करने में , दोनो ही महत्वपूर्ण हैं । कर्म-सम्पादन अवधि में , ईश्वर को सेवा-अर्पण की मानसिक-दशा , और ईश्वर द्वारा प्रत्यावर्तित प्रकृति-संविधान-शोधित कर्म-फलो को ग्रहण करने में , ईश्वर के प्रसाद की मानसिक-दशा को समुचित बताया जाता है । ..... क्रमश:         

उत्तम-कर्म

पद-परिचय-सोपान उत्तम-कर्म पंच-महा-यज्ञो को वेदों में उत्तम-कर्म बताया गया है । पंच महा-यज्ञ , देव-यज्ञ , पितृ-यज्ञ , ब्रम्ह-यज्ञ , मनुष्य-यज्ञ , भूत-यज्ञ होते हैं । कृतज्ञतापूर्ण सेवा को यज्ञ कहा जाता है । देव अर्थात् समष्टि है । पितृ उन समस्त पूर्वजो को कहा जाता है जो दिवंगत हो चुके हैं । वर्तमान संदर्भ में ब्रम्ह अर्थात् वेद हैं । भूत अर्थात् मनुष्य से व्यतिरिक्त समस्त जीव-कोटि है । उत्तम कर्म यथा उपरोक्त व्यक्त , यह व्यक्त करते हैं कि व्यक्ति को समष्टि , दिवंगत-पूर्वज , वेद , समूचे मनुष्य समुदाय , और समूचे जीव-कोटि के प्रति कृतज्ञता के भाव से युक्त सेवा को अर्पित करने का मानसिक संकल्प होना चाहिये । उपरोक्त कथित मानसिक संकल्प एक वैदिक व्यक्ति का लक्षण है । ..... क्रमश:    

कर्म-योग

पद-परिचय-सोपान कर्म-योग दो शब्दों , कर्म और योग की युति कर्म-योग है । कर्म ही जीव की उत्पत्ति का निमित्त है । कर्म जो कि व्यक्ति को श्रेय: प्राप्ति में सहायक होते हैं , उन्हे उत्तम कर्म कहा जाता है । मध्यम कर्म , या तो श्रेय: प्राप्ति में सहायक नहीं होते हैं अथवा आंशिक या अल्प सहायक होते हैं । अधम कर्म निषिद्ध कर्म होते हैं । अधम कर्म व्यक्ति के श्रेय: प्रयत्नों को क्षीण करने वाले होते हैं । उपरोक्त कथित कर्म-श्रेणियों के आधार पर , समुचित कर्म को चयनित करते हुये , समुचित सम्पादन मानसिकता धारण करते हुये , कर्म-सम्पादन को कर्म-योग कहा जाता है । कर्म-योग , उत्तम-कर्म का समुचित मानसिक-स्थित में सम्पादन , साधक-साध्यम्-युति , सिद्धि , का पथ है । ..... क्रमश:

साधना

पद-परिचय-सोपान साधना पुरुषार्थ द्वारा लक्ष्य प्राप्ति को साधना कहा जाता है । साधना के लक्ष्य को साध्यम् कहा जाता है । साधना करने वाले व्यक्ति को साधक कहा जाता है । साधना के लक्ष्य की प्राप्ति की स्थिति को सिद्ध कहा जाता है । साधक और साध्यम् की युति को योग कहा जाता है । पुरुषार्थ चार नामत: धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष होते हैं । धर्म-अर्थ-काम-पुरुषर्थ अर्थात् प्रेय: , अज्ञान के आच्छादन द्वारा सम्भव होते हैं । मोक्ष-पुरुषार्थ अर्थात् श्रेय: ही योग्य साधना होती है । ..... क्रमश:      

श्रेय: प्राप्ति लक्ष्य

पद-परिचय-सोपान श्रेय: प्राप्ति लक्ष्य वेदों में प्रेय: का उल्लेख तो इसलिये है कि यह प्रत्येक व्यक्ति का नित्य लोकव्यवहार का ज्ञात पुरुषार्थ हैं । वास्तविक लक्ष्य तो प्रेय: प्राप्ति ही होती है । श्रेय: स्वतन्त्रता की स्थिति है । प्रेय: प्रयत्न तो अज्ञान के आच्छादन के कारण होते हैं । श्रेय: की प्राप्ति ज्ञान है । ..... क्रमश:

गुरू-शास्त्र-निष्ठा

पद-परिचय-सोपान गुरू-शास्त्र-निष्ठा ज्ञान-यात्रा सदैव व्यक्ति की गुरू और शास्त्र के प्रति समर्पित निष्ठा के आश्रित है । दीर्घ-कालीन समर्पित सन्लग्नता अपेक्षित है । सूक्ष्म-तात्विक-ज्ञान गूढ है । मस्तिष्क सान्सारिक लोक-व्यवहार में संलग्न है । उपरोक्त कथित दोनो स्थितियाँ एक दूसरे के विरुद्ध स्वभाव की हैं । ज्ञान-सम्भावना का स्थल मस्तिष्क है । मस्तिष्क का नियन्त्रण सर्वोपरि महत्व का है । गुरू और शास्त्र के प्रति निष्ठा-पूर्वक समर्पण के फल से ही मस्तिष्क का नियन्त्रण सम्भव हो पाता है । ..... क्रमश:

आश्रम-व्यवस्था

पद-परिचय-सोपान आश्रम-व्यवस्था समष्टि विचार में , जो स्थान वर्ण-व्यवस्था का है , वही स्थान , व्यष्टि विचार में , आश्रम-व्यवस्था का है । वेदों में चार आश्रम नामत: ब्रम्हचारी , गृहस्थ , वाणप्रस्थ , सन्यास का उल्लेख है । ब्रम्हचारी आश्रम पठन शिक्षण ग्रहण करने का , जीवन में प्रवेष का भाग है । गृहस्थ आश्रम जीविका अर्जन और पारिवार-धर्म के निर्वाह का भाग है । वाणप्रस्थ में व्यक्ति अपने को गृहस्थ जीवन से समेटता है और शास्त्रीय अध्ययन और वैराग्य की ओर अग्रसर होता है । सन्यास पूर्ण रूप से तटस्थ जीवन का भाग है । उपरोक्त कथित आश्रम व्यवस्था का उद्देष्य भी प्रेय: और श्रेय: की प्राप्ति के लक्ष्य प्राप्ति के उद्देष्य से है । ...... क्रमश:

जाति-विभाग-वर्ण-व्यवस्था

पद-परिचय-सोपान जाति-विभाग-वर्ण-व्यवस्था जन्म के कुल पर आधारित विभाजन को जाति-वर्ण-विभाग कहा जाता है । इस वर्गीकरण में ब्राम्हण वंश परम्परा के परिवार में जन्मा व्यक्ति ब्राम्हण है । क्षत्रीय वंश परम्परा के परिवार में जन्मा व्यक्ति क्षत्रीय है । वैश्य वंश परम्परा के परिवार में जन्मा व्यक्ति वैश्य है । शूद्र वंश परम्परा के परिवार में जन्मा व्यक्ति शूद्र है । ...... क्रमश: