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कर्म-विभाग-वर्ण-व्यवस्था

पद-परिचय-सोपान कर्म-विभाग-वर्ण-व्यवस्था कर्मों के सात्विक , राजसिक , तामसिक निर्धारण के विचार में , वैदिक कर्मों को जिसमें समस्त अग्नि-होत्र यज्ञ और समाज में शास्त्रों का अध्ययन और उनके समुचित शिक्षण को सात्विक निर्धारित किया जाता है । उपरोक्त समस्त ब्राम्हण-कर्म-विभाग है । समस्त सामाजिक सेवा , रज़स की श्रेणी में वर्गीकृत किया जाता है । उपरोक्त क्षत्रिय-कर्म-विभाग है । समस्त वित्त-व्यवसाय-वृत्तियाँ जो कि हानि-लाभ से आच्छादित हैं वह वैश्य-कर्म-विभाग हैं । समस्त परीश्रम योगदान जो कि अर्ध-तकनीकी और अशिक्षित दोनों को आच्छादित करती है , तमस के वर्ग में रखे जाते हैं , यह शूद्र-कर्म-विभाग है । ..... क्रमश:

गुण-विभाग-वर्ण-व्यवस्था

पद-परिचय-सोपान गुण-विभाग-वर्ण-व्यवस्था जब भी समाज के वर्ग का विभाजन व्यक्ति के गुणों पर किया जायेगा , उसे वर्ग-विभाग पद से वर्णन किया जाता है । गुणों के विचार में सात्विक गुण सदैव निर्विवादित सर्वोपरि हैं । सात्विक-गुण ज्ञान को निरूपित करता है । उपरोक्त कथित निश्कर्ष से , एकान्तवासी स्वभाव , स्वाभाविक सन्यास का भाव , चिन्तन-मनन में संलग्नता , अध्ययन अध्यापन में रुचि यह सात्विक-विभाग है । अत: यह ब्राम्हण-विभाग है । समाज को गतिशील बनाना , रज़ो-गुण का क्षेत्र है , जिसे कि उपरोक्त-कथित वर्ग-विभाजन के विचार में द्वितीय वरीयता का माना जाता है । उपरोक्त-कथित रजो-गुण पर आधारित विभाजन को दो खण्डों में नामत: नि:स्वार्थ उद्यम और स्वार्थ-आधारित-उद्यम में विभक्त किया जाता है । उपरोक्त कथित नि:स्वार्थ-उद्यम-विभाग को क्षत्रीय पद प्रदान किया जाता है । उपरोक्त कथित स्वार्थ-आधारित-उद्यम-विभाग को वैश्य पद प्रदान किया जाता है । तमो-गुण जो कि प्रमाद का प्रतीक है वह शूद्र वर्ग के पद नाम से विख्यात है । विचाराधीन गुण-विभाग पुष्टतम् एवं स्वस्थ विभाजन आधार है । ..... क्रमश:     

वर्ण-व्यवस्था

पद-परिचय-सोपान वर्ण-व्यवस्था यह समाज को , लक्षित पुरुषार्थ की प्राप्ति के लिये , एक आदर्श साधन-युक्त ढाँचा प्रदान करने के उद्देष्य से प्रेरित , वेदों में आदेशित व्यवस्था है । उपरोक्त कथित व्यवस्था के अनुसार चार वर्ण नामत: ब्राम्हण , क्षत्रीय , वैश्य , सूद्र का निर्धारण किया गया है । विचार की स्वाभाविक प्रक्रिया में , जब भी वर्ग-विभाजन का विचार सम्मुख होता है तो , एक नैसर्गिक प्रश्न उपस्थित हो जाता है कि , विभाजन का आधार क्या है ? मीमांसक विद्वान आचार्य उपरोक्त कथित विभाजन के तीन सुदृढ नामत: गुण-विभाग , कर्म-विभाग , जाति-विभाग को आधार बताते हैं । उपरोक्त कथित प्रत्येक तीन विभाजन के आधारों का परिचयात्मक उल्लेख आगे के तीन अंको में प्रस्तुत किया जायेगा । ..... क्रमश:

भाष्य-ग्रन्थ

पद-परिचय-सोपान भाष्य-ग्रन्थ भाष्य-ग्रन्थ भी वेद-मन्त्रों का ही विस्तृत व्याख्या हैं । भाष्य-ग्रन्थों के आश्रय द्वारा ही वेद-मन्त्रों का ज्ञान सम्भव होता है । ज्ञातव्य है कि वेद-मन्त्रों का अर्थ आहरित करने के लिये विद्वानों द्वारा सर्व-सम्मति से नियमावली बनायी गयी है । किसी भी भाष्यकार को भाष्य लिखने में उपरोक्त कथित नियमों की परिधि में ही व्याख्या करनी होती है । विद्वान आचार्य आदि शन्कर ने दस उपनिषदों की व्याख्या की है । पुन: उप-व्याख्याकारों ने उपरोक्त कथित आदिशंकर के भाष्य की व्याख्या की है । पुन: उप-उप-व्याख्याकारों ने उपरोक्त कथित उप-व्याख्याओं की व्याख्या की है । उपरोक्त समस्त उल्लेख से विदित है कि संस्कृत ग्रन्थो की विशाल सम्पदा हम वैदिक-संस्कृत अनुयायियों को उपलब्ध है । ...... क्रमश:  

इतिहास-ग्रन्थ

पद-परिचय-सोपान इतिहास-ग्रन्थ इतिहास शब्द का विच्छेद है , इति अर्थात् एवम् , ह् अर्थात निश्चय ही , हास अर्थात् घटित हुआ है । दीर्घ-विगत काल में , निश्चयपूर्वक घटित सत्य का निरूपण , इतिहास है । इतिहास ग्रन्थों में रामायण और महाभारत सर्वाधिक ख्याति-प्राप्त हैं । रामायण के रचयिता बाल्मीकि ऋषि है और इसमें चौबीस हज़ार श्लोक हैं । महाभारत के रचयिता वेदव्यास ऋषि हैं और इसमें एक लाख से भी अधिक श्लोक हैं । इतिहास ग्रन्थों में व्यक्ति के गुणों और दुर्गुणों को वैयक्तिक पात्र के रूप में प्रस्तुत किया गया है , यथा दस-शीस का रावण एक असुर जिसमें दस दुर्गुण पूर्ण-आयाम में निहित हैं । ..... क्रमश:  

पुराण-ग्रन्थ

पद-परिचय-सोपान पुराण-ग्रन्थ पुराणों में भी विषय वेदों के ही लिये गये हैं , परन्तु उपदेशों और आदेशों का विस्तार अति-वृहद् किया गया है । यथा , वेद उपदेश है , “ सत्यम् वद् ” और इस वेद आदेश का विस्तार सम्पूर्ण “हरिश्चन्द्र पुराण” है । उपरोक्तानुसार ही अन्य अट्ठारह पुराणों में भी वेद के उपदेशों और आदेशों का विस्तार निहित है । समस्त अट्ठारह पुराणों में “भागवद्-पुराण” की ख्याति सर्वाधिक है । पुराणों के विषय में कहा जाता है कि यह प्राचीनतम ग्रन्थ है , फिरभी इनमें निहित उपदेशों की सार्थकता आज़ के ईक्कीसवीं सदी में भी उतनी ही प्रभावी और सत्य पायी जाती हैं जितना कि अनादिकाल में थी । उपरोक्त कथित गुणवत्ता , उन पुराणों के रचयिता ऋषियों की अद्भुद् मानसिक क्षमता का परिचायक है । पुराणों में भी वेद उपदेशों को ही वर्गीकृत किया गया है और उनका प्रचुर विस्तार भी किया गया है । ..... क्रमश:  

स्मृति-ग्रन्थ

पद-परिचय-सोपान स्मृति-ग्रन्थ स्मृति-ग्रन्थों में भी विषय अपौरुषेय वेद-ग्रन्थ से ही है , परन्तु इनका संकलन पौरुषेय है । इन ग्रन्थों में भी विषयों के वर्गीकरण को आधार बनाया गया है और उनकी व्याख्या विस्तार को , सूत्र-ग्रन्थों की अपेक्षा अधिक विस्तार से श्लोकों के रूप में प्रस्तुत किया गया है । व्याख्या उन वेद अंशो की लक्ष्य की गई है जिन अंशो में उपदेश परस्पर विरोधिता प्रदर्शित करने वाले पाये गये थे । इनका उच्चारण भी गायन रूप में किया जाता है । इनमें गायन सुरों का प्रयोग किया जाता है । मनु-स्मृति , पारशर-स्मृति आदि विख्यात स्मृति ग्रन्थ हैं । भगवद्गीता भी स्मृति-ग्रन्थ है । ...... क्रमश:  

सूत्र-ग्रन्थ

पद-परिचय-सोपान सूत्र-ग्रन्थ सूत्र अभिव्यक्ति , जो कि ढेर सारे विचारों को संक्षिप्त सूक्त-रूप में प्रस्तुति को कहा जाता है । सूत्र-ग्रन्थ भी पूर्व-वर्णित वेद-उपदेश की प्रस्तुति हैं , जिसमें उपदेश का विषय अ-पौरुषेय हैं , परन्तु इनका संकलन , पुरुषार्थ द्वारा , मानवीय हैं । वेद चूँकि श्रवण परम्परा से सम्भव हो रहे थे , इसलिये उन्हे कण्ठस्थ करने के विचार में , स्वर-नाद-उच्चारण , गायन , और सूत्र-अभिव्यक्ति यह सभी सहायक थे । धर्म-सूत्र जो कि व्यक्ति विषेस के रक्षक , ग्रस्य-सूत्र जो कि परिवार के रक्षक , और सौत्र-सूत्र जो कि समूचे मानव-समाज के रक्षक हैं । सूत्र ग्रन्थों में , वेद-मन्त्रो को विषय-वार , वर्गीकृत किया गया है और साथ ही जहाँ कहीं भी कोई उपदेशों की परस्पर विरोधी स्थिति की सम्भावना पायी गई थी , उनका निराकरण भी किया गया है । पाराशर-सूत्र , गौतम-सूत्र आदि अनेक सूत्र-ग्रन्थ हैं । ..... क्रमश:

वेद-मन्त्र

पद-परिचय-सोपान वेद-मन्त्र वेद मन्त्रो की व्याख्या , मननात् इति मन्त्र की जाती है । जिसका मनन करने से , व्यक्ति की रक्षा होती है । वेद-मन्त्र सदैव से थे । ऋषि उन महापुरुषों को कहा गया है , जिन्हे वेद-मन्त्रों की , दैवीय-ज्ञान-रूप-अनुभूति हुई है । मन्त्र-वेद अथर्वण के मन्त्रों को मुख्यत: अर्थव्-ऋषि और अंगीरस्-ऋषि ने , ज्ञान हेतु प्रगट किया है । विख्यात सावित्री-मन्त्र जिसे गायत्री-छन्द में गायन किया जाता है , के विदित-कर्ता ऋषि विश्वामित्र हैं । ऋषि अत्यन्तातिक सत्व के धारक होने के फल से किसी मन्त्र विषेस को प्रगट करने में समर्थ हुये हैं । ऋषियों की प्रस्तुति को आधुनिक युग के टी वी प्रसारण , जिसमें प्रसारित होने वाले प्रोग्राम आकाश में विद्यमान रहतें हैं और जिन्हे , टी वी सेट , किसी विषेस फ्रिक्वेन्सी की सेटिंग पर दृष्टिगोचर कराते हैं, से सादृष्य की जाती है । ...... क्रमश:

वेद

पद-परिचय-सोपान वेद यह प्राचीनतम् शास्त्र हैं । इनमें चार विभक्तियां नामत: ऋग-वेद , यजुर्वेद , साम-वेद , अथर्वण-वेद की गई हैं । ऋगवेद श्लोको में है , यजुर्वेद गद्य में है , सामवेद गायन प्रस्तुति है , अथर्वण-वेद मन्त्र प्रस्तुति है । वेदों के गद्य और मन्त्रों के उच्चारण के विशिष्ट स्वर-नाद हैं । वेदों के रचयिता के रूप में नारायण अर्थात् स्वयं ईश्वर को निर्धारित किया जाता हैं । प्राय: बीस हज़ार वेद-मन्त्र हैं । सदियों पर्यन्त वेद का ज्ञान मौखिक परम्परा द्वारा गुरू से शिष्य को संचरित होता रहा है । इसलिये इन्हे श्रुति ग्रन्थ भी कहा जाता है । वेद व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन तथा धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष पुरुषार्थो की रक्षा करते हैं । वेद मन्त्रों के उच्चारण मात्र से मनुष्य रक्षित होता है । भारत की संस्कृति वैदिक-संस्कृति है । ...... क्रमश:

शास्त्र

पद-परिचय-सोपान शास्त्र संस्कृत शब्द शास्त्र दो शब्दों , “शास्” तथा “स्त्र” की युति है । संस्कृत शब्द “शास्” के अनेक अर्थो में से एक अर्थ आदेश दूसरा अर्थ शिक्षण अथवा उपदेश होता है । संस्कृत शब्द “स्त्र” का अर्थ रक्षा करना होता है । उपरोक्त दोनो अर्थों को मिलाने से शास्त्र का अर्थ है , आदेश जो रक्षा करते हैं , उपदेश जो रक्षा करते हैं । किसकी रक्षा करते है ? व्यक्ति के पुरुषार्थ की रक्षा करते हैं । संस्कृत ग्रन्थ जिन्हे शास्त्र कहा जाता है , उनका छ: भागो में नामत: वेद , सूत्र , स्मृति , पुराण , इतिहास , भाष्य विभाजन किया जाता है । उपरोक्त कथित प्रत्येक छ: ग्रन्थ व्यक्ति के पुरुषार्थ की , प्रारम्भिक अवस्था में आदेशों द्वारा और विकसित अवस्था में उपदेश द्वारा शिक्षण द्वारा रक्षा करते हैं । उपरोक्त कथित प्रत्येक छ: शास्त्रों का परिचयात्मक उल्लेख आगे के छ: अंको में किया जाना है । ..... क्रमश:  

ज्ञान-यात्रा-मस्तिष्क-आश्रित

पद-परिचय-सोपान ज्ञान-यात्रा-मस्तिष्क-आश्रित सम्पूर्ण ज्ञान-यात्रा का मस्तिष्क आश्रय है । ज्ञान-बोध मस्तिष्क में ही होता है । मस्तिष्क ही लोक-व्यवहार में भी रत् है । इसलिये ज्ञान-यात्रा में मस्तिष्क का सन्सकार अति-महत्व-पूर्ण प्रकरण है ।   ज्ञान और अहंकार दोनो प्रकाश और अंधकार सदृष्य बिलकुल एक दूसरे से विलक्षण अवयव हैं । दोनो का आश्रय-स्थल मस्तिष्क ही है । इस आलोक में विवेक जो कि मस्तिष्क का धर्म है , की अति-महत्व-पूर्ण-भूमिका है । ज्ञान अहंकार दोनो का पोषण एक साथ नहीं सम्भव है । ज्ञान पारमार्थिक सत्य है । अहंकार मात्र भ्रान्ति है । अहंकार का कोई अस्तित्व नहीं होता है । अहंकार बन्धन है । ज्ञान मुक्ति है । अहंकार जन्म-मृत्यु का चक्र है । ज्ञान अमृत तत्व की प्राप्ति है । प्रत्येक व्यक्ति को उपरोक्त दो पहलुओं में चुनाव का स्वतन्त्र अधिकार है   | .........क्रमश:

पदार्थ मिथ्या

पद-परिचय-सोपान पदार्थ मिथ्या पदार्थ सदैव मिथ्या है । पदार्थ सदैव सापेक्ष है । पदार्थ सदैव आश्रित है । पदार्थ का अधिष्ठान आत्मा है । पदार्थ सदैव काल से परिच्छिन्न है । पदार्थ सदैव परिवर्तन के अधीन है । ..... क्रमश:

शाश्वत् चैतन्य आत्मा

पद-परिचय-सोपान शाश्वत् चैतन्य आत्मा चैतन्य अपने शाश्वत् स्वरूप में आत्मा है । चैतन्य जैसा कि मस्तिष्क की क्रिया में विख्यात है , अहंकार है । शाश्वत् स्वरूप असंग है । अपरिमित है । अद्वयम् है । ज्ञान-स्वरूप है । आनन्दस्वरूप है । पारमार्थिक सत्य है । ..... क्रमश:

अव्यवहार्य-आत्मा

पद-परिचय-सोपान अव्यवहार्य-आत्मा जगत् लोकव्यवहार है । आत्मा किसी भी दशा में व्यवहार में सम्मलित नहीं होती है । असंग-आत्मा सर्वत्र व्याप्त होते हुये भी , किसी से लिप्त नहीं है । शास्त्रों में आत्मा के लिये कहा गया है , “ आप्नोति इति आत्मा ” जो सर्वत्र व्याप्त है , वह आत्मा है । लोकव्यवहार माया क्षेत्र है । आत्मा का लोक-व्यवहार से कोई संसर्ग नहीं है । आकाश सर्वत्र है । परन्तु आकाश सदैव असंग है । ..... क्रमश:

अधिष्ठान-आत्मा-मिथ्या-जगत्

पद-परिचय-सोपान अधिष्ठान-आत्मा-मिथ्या-जगत् वस्तु-नाम-रूप-जगत् मिथ्या है , जिसका सत्यत्व सदैव अधिष्ठान आत्मा के सत्यत्व पर आश्रित है । आत्मा का सत्यत्व पारमार्थिक है , त्रिकालिक है । जगत् का सत्यत्व सदैव , उपरोक्त कथित पारमार्थिक सत्य आत्मा , के आश्रय पर है । आत्मा के अज्ञान के फल से , जगत् सत्य प्रतीत होता है । परन्तु जगत् के सत्यत्व की प्रतीति मात्र भ्रान्ति है । ..... क्रमश:  

आत्मा-शाश्वत्-तत्व

पद-परिचय-सोपान आत्मा-शाश्वत्-तत्व असंग-निराकार-निर्विकार आत्मा शाश्वत् तत्व है । माया-कल्पित-जगत् का प्रत्येक अवयव उपरोक्त कथित आत्म-तत्व की गुणमय अभिव्यक्ति है । गुण मोंह-कारक हैं । जीव का अहंकार भ्रान्ति है । भ्रान्ति-पोषित-जीव का मस्तिष्क गुणों के मोंह-जाल में लिप्त है । उपरोक्त कथित गुणों के बन्धन से उबर कर , शाश्वत् तत्व आत्मा पर्यन्त की ज्ञान-यात्रा गूढ है , परन्तु साध्य है , जिसके लिये दृढ-प्रतिज्ञ जिज्ञासु वाँक्षना है और साधन-चतुष्टय-सम्पत्ति , मनोनिग्रह , पंचकोष-विवेक पथ हैं । ..... क्रमश:

उपदेशों का महत्व

पद-परिचय-सोपान उपदेशों का महत्व साधन-चतुष्टय-सम्पत्ति , मनोनिग्रह , पंचकोष-विवेक आदि उपदेश जिनका परिचयात्मक उल्लेख पूर्व के अंको में किया गया है , महत्व-पूर्ण इसलिये हैं , क्योंकि आत्म-ज्ञान न ही उपदेश है , न ही शिक्षण है , अपितु आत्म-ज्ञान आत्म-स्वरूप में जीवन-यापन है , जो कि साधन-चतुष्टय-सम्पत्ति , मनोनिग्रह , पंचकोष-विवेक का जीवन-यापन-रूप में क्रियान्वन है । ज्ञान-स्वरूप ज्ञानी की अभिव्यक्ति होती है , “ शिवोहं ” “ शिवोहं ” “ शिवोहं ” , जो कि शाश्वत् आत्मा के स्वरूप में जीवन की अभिव्यक्ति है । ..... क्रमश:

ज्ञान-सम्भावना

पद-परिचय-सोपान ज्ञान-सम्भावना आत्म-ज्ञान की गूढता का साराँश यह है कि , आत्म-ज्ञान का केवल एक पथ है , कि व्यक्ति स्वयं को आत्म-स्वरूप में अनुभव-बोध कर सके , जिसका अभिप्राय है , आत्म-स्वरूप में जीवन-यापन है । इस माया-कल्पित-जगत् के व्यवहार को निरूपित करने वाले शब्द , उपरोक्त वर्णित स्थिति को यथा-स्वरूप व्यक्त करने में अक्षम हैं । वेद भी उपरोक्त स्थिति को केवल इंगित करते हैं । वेद उपदेश भी “ अहम् ब्रम्हास्मि ” “ तत् त्वं असि ” जैसी अभिक्तियों द्वारा आत्म-ज्ञान की वृत्ति-बोध कराते हैं । ..... क्रमश:

आत्म-ज्ञान-त्रिकुटी-रहित

पद-परिचय-सोपान आत्म-ज्ञान-त्रिकुटी-रहित वस्तु-रूप-ज्ञान में प्रमाता-प्रमाण-प्रमेय त्रिकुटी , ज्ञान-अनुभव को सम्भव कराते हैं । परन्तु उपरोक्त कथित ज्ञान-प्रक्रिया से विलक्षण , आत्म-ज्ञान के प्रकरण में , प्रमाता-प्रमाण-प्रमेय के तीनो अवयव स्वयं आत्मा ही होती है । उपरोक्त वर्णित स्थिति की मानसिक ग्राह्यता ही गूढ है । आत्मा ही , ज्ञान-विषय , ज्ञान-प्रमाण , ज्ञान-वस्तु तीनो अवयव स्वयं होती है । उपरोक्त उपदेश की विलक्षण प्रस्तुति वृहदारण्यक उपनिषद के पुरुषविधि ब्राम्हणम् में की गई है । ..... क्रमश:

आत्मा-ज्ञान-स्वरूप

पद-परिचय-सोपान आत्मा-ज्ञान-स्वरूप जड उत्पत्ति है । चेतन आधार है । जड जगत् का विस्तार है । चैतन्य आत्मा है । अहंकार भ्रान्ति है । माया-कल्पित-जगत् का जीव चेतन-वद् आचरण करने वाला यन्त्र मात्र है , जिसके चेतना की शासक उसकी आत्मा है और उसके गतियों की शासक प्रकृति है , जो कि स्वयं माया-शक्ति है । आत्मा-माया-शक्ति यह मिथ्या जगत् की अनुभूति कराते हैं । जगत् की अनुभूति मात्र प्रातिभासित हैं । उपरोक्त कथित अनुभवों में कोई सत्यत्व का आधार नहीं है । उपरोक्त कथित अनुभव स्वप्नवद् मिथ्या बोध हैं । उपरोक्त कथित मिथ्यात्व बोध , जागृत दशा की प्राप्ति पर ही सम्भव होती है । जागृत-दशा आत्म-ज्ञान की दशा है । ..... क्रमश: 

अ-पौरुषेय-शास्त्र-प्रमाण

पद-परिचय-सोपान अ-पौरुषेय-शास्त्र-प्रमाण वेद का उद्भव स्वयं नारायण के श्रीमुख से उपदेश द्वारा बताया जाता है । वेद अ-पौरुषेय हैं । वेद उपदेश , व्यक्ति की आत्मा की छवि को , उसे एक दर्पण के सदृष्य , बोध कराते हैं । व्यक्ति की आँखे , समस्त जगत् के वस्तु-रूप के रूप-रंग का ज्ञान-बोध कराती हैं , परन्तु स्वयं अपने रूप-रंग का ज्ञान-बोध नहीं करा सकती हैं । व्यक्ति को अपनी आँख का रूप-रंग बोध करने के लिये किसी बाह्य-उप-करण यथा दर्पण का प्रयोग , करने से ही , अपनी स्वयं की आँख का रूप-रंग बोध सम्भव होता है । उपरोक्त वर्णित दृष्टान्त के सदृष्य ही , व्यक्ति की आत्मा के प्रसाद द्वारा ही व्यक्ति को जगत् के समस्त-वस्तु-रूप-ज्ञान- बोध सम्भव होते हैं , फिर भी व्यक्ति अपनी आत्मा का ज्ञान-बोध नहीं कर सकता है । वेद के उपदेश , व्यक्ति की आत्मा का क्षवि-बोध एक दर्पण के समान कराते हैं । ..... क्रमश:  

द्वि-स्तरीय-वस्तु-रूप-ज्ञान

पद-परिचय-सोपान द्वि-स्तरीय-वस्तु-रूप-ज्ञान जगत् के समस्त वस्तु-रूप-ज्ञान के विचार में , व्यक्ति पुस्तकों से वस्तु की उपस्थिति का ज्ञान-बोध अर्जित करता है , यह प्रथम चरण है , पुन: प्रत्यक्ष द्वारा उपरोक्त प्रथम चरण के ज्ञान का सत्यापन द्वारा वस्तु-रूप-ज्ञान की बोध-प्रक्रिया पूर्ण होती है । उपरोक्त वर्णित वस्तु-रूप-ज्ञान-प्रक्रिया ही प्रत्येक व्यक्ति का नित्य का अनुभव है , नित्य का अभ्यास है , लोकव्यवहार है , व्यक्ति का ज्ञान-क्षेत्र है । परन्तु आत्म-ज्ञान उपरोक्त वर्णित ज्ञान-प्रक्रिया की परिधि से परे होता है । आत्मा का साक्षात् सम्भव नहीं है । शास्त्र-प्रमाण उपरोक्त वर्णित सामान्य ज्ञान-प्रक्रिया को लांघते हुये विलक्षण विधि से जिज्ञासु को उसकी आत्मा का ज्ञान-बोध कराते हैं । उपरोक्त कथित विलक्षण विधि ही गुरू के उपदेश का आधार होती है । ..... क्रमश:     

पंच-पौरुषेय-प्रमाण

पद-परिचय-सोपान पंच-पौरुषेय-प्रमाण  वस्तु-रूप-ज्ञान के विचार में व्यक्ति को , (1) प्रत्यक्ष (2) अनुमान (3) अर्थापत्ति (4) उपमान (5) अनुपलब्धि , यह पांच प्रमाण उपलब्ध है । व्यक्ति उपरोक्त प्रमाणों के माध्यम् से ही समस्त जगत् के वस्तु-रूप-ज्ञान ग्रहण करता है । वस्तु-रूप-ज्ञान प्रक्रिया में , जगत् वस्तु-रूप है , व्यक्ति विषय है । प्रमाता व्यक्ति विषय है , प्रमेय-जगत् वस्तु है । आत्म-ज्ञान के विचार में , विषय-आत्मा किसी भी दशा में प्रमेय नहीं बन सकती है , इसलिये उपरोक्त वर्णित पंच-पौरुषेय-प्रमाणों द्वारा ज्ञेय नही हो सकती है । ..... क्रमश:  

ज्ञान-स्वरूप

पद-परिचय-सोपान ज्ञान-स्वरूप सूर्य के प्रकाश को देखने के लिये किसी अतिरिक्त अन्य प्रकाश की आवश्यकता नहीं होती है । ज्ञान-स्वरूप आत्मा के ज्ञान-बोध के लिये किसी अन्य ज्ञान की आवश्यकता नहीं होती है । प्रत्येक व्यक्ति जन्म से ही यह जानता है कि , “मैं हूँ” । आत्मा स्वयं अपना ज्ञान-बोध कराती है । प्रश्न किया जायेगा कि फिर व्यक्ति को अज्ञानी क्यों कहा जाता है ? उत्तर है कि व्यक्ति की आत्मा “सत्-चित्-आनन्द” है , और व्यक्ति उपरोक्त कथित आत्मा के केवल चित् अंश को जानता है , तथा सत् अंश के रूप में भ्रान्ति ज्ञान अपनी स्थूल-सूक्ष्म-कारण-शरीर को जानता है , तथा आनन्द अंश से पूर्णतया अनभिज्ञ है । उपरोक्त वर्णित अनभिज्ञता और भ्रान्ति के कारण व्यक्ति अज्ञानी है । व्यक्ति को जगत् के वस्तु-रूप-ज्ञान-बोध भी वस्तु-रूप-वृत्ति में आत्मा के वेध के फल से ही सम्भव होती है । इसलिये आत्मा ज्ञान-स्वरूप है । ..... क्रमश:

मोक्ष

पद-परिचय-सोपान मोक्ष अज्ञान से आच्छादित व्यक्ति परिच्छिन्नता की अनुभूति से ग्रसित होता है । परिच्छिन्नता को पूर्ण बनाने के प्रयत्न में पुरुषार्थ करता है । अर्थ की प्राप्ति होने पर , अर्जित धन को असुरक्षित अनुभव करता है । उसे सुरक्षित करने का पुरुषार्थ करता है । परन्तु उपरोक्त वर्णित व्यक्ति के दोनो ही पुरुषार्थ , नामत: परिच्छिन्नता को पूर्णता में परिणय हेतु तथा असुरक्षित को रक्षित करने का पुरुषार्थ, मोंह-बन्धनकारी हैं । उपरोक्त के विपरीत ज्ञान की दशा पूर्णता की अनुभूति है । यदि अर्थ-काम का अभाव है , अथवा अर्थ-काम की प्रचुरता है , दोनो ही दशायें उसके लिये मोंह-बन्धन से परे हैं । यह स्वतन्त्रता की दशा है । यह पूर्णता की दशा है । यह समत्व की दशा है । यह मोक्ष है । ..... क्रमश:

जीवन-मुक्ति

पद-परिचय-सोपान जीवन-मुक्ति व्यक्ति का व्यवहारिक जीवन सदैव जगत् के विषयों के अधीन रहता है । परन्तु व्यक्ति के मानसिक क्लेष यद्यपि कि बाह्यतौर पर जगत् के विषयों से ही आहरित होते हैं , फिरभी उनका वास्तविक उद्गम व्यक्ति के अज्ञान के फल से होता है । इसलिये ज्ञान की दशा में , व्यक्ति के बौद्धिक उत्कर्ष द्वारा उसके मानसिक क्लेष की स्थिति का निवारण होता है । व्यक्ति के व्यवहारिक जीवन के आभाव , असुरक्षा उसके लिये मानसिक क्लेष का निमित्त नहीं रह जाते है । व्यक्ति जगत् की परिस्थितियों में रहते हुये भी , उन परिस्थितियों से जनित होने वाले मानसिक विक्षेपों से मुक्त जीवन यापन की दशा का भोग करता है । यह जीवन-मुक्ति है । ..... क्रमश:

ज्ञान-निष्ठा

पद-परिचय-सोपान ज्ञान-निष्ठा व्यक्ति अज्ञान के फल से परिच्छिन्न है । व्यक्ति का स्वरूप उसकी आत्मा पूर्ण है । परिच्छिन्नता की अनुभूति के फल से व्यक्ति अपने लोक-व्यवहार के जीवन में मानोवेगों यथा राग , द्वेष , काम , क्रोध की पीडाओं का भोक्ता होता है । ज्ञान की दशा एक बौद्धिक स्थिति है । ऐसी बौद्धिक स्थिति जिसमें व्यक्ति परिच्छिन्नता से ऊपर उठ पूर्णता की अनुभूति करता है । अत: ज्ञान की दशा में व्यक्ति का मस्तिष्क उपरोक्त कथित मनोवेगों से मुक्त दशा को प्राप्त होता है । इस रूप में यह मनोवेगों से स्वतन्त्र मस्तिष्क की दशा है । व्यक्ति के जीवन के क्लेष यथा आभाव , असुरक्षा उसके लिये मानसिक पीडा का निमित्त नहीं रह जाते है । उपरोक्त कथित अज्ञान जनित मानसिक मनोवेगों और उनके दु:प्रभाव से मुक्त , मानसिक स्वतन्त्रता की दशा ज्ञान-निष्ठा है । ..... क्रमश:  

मिथ्या-जगत्

पद-परिचय-सोपान मिथ्या-जगत् जगत् का अस्तित्व सदैव आत्मा के आश्रय पर है । जगत् अस्तित्वमान है , यह सिद्ध करने के लिये भी जीव के पंच-प्रमाणों की अपेक्षा होती है । अनात्मन जगत् के प्रत्येक अवयव क्रियाकारी भी आत्मा के आश्रय द्वारा होते हैं । उपरोक्त विवरण के अनुसार जगत् आश्रित होने के कारण मिथ्या है । ज्ञातव्य है कि आत्मा , जीव-अनात्मन के प्रसंग में अपने को जीव के चैतन्य के रूप में व्यक्त करता है और जड-प्रपंचों के प्रसंग में अपने को जड के अस्तित्व के रूप में व्यक्त करता है । ..... क्रमश:

आत्मा-सत्य

पद-परिचय-सोपान आत्मा-सत्य आत्मा ही सत्य है । आत्मा के सत्यत्व के प्रमाण द्वारा ही समस्त अनात्मन का अस्तित्व सिद्ध होता है । अनात्मन जगत् को अहंकार-पोषित प्रमाता जब अपनी पंच-इन्द्रीय-प्रमाणों के माध्यम द्वारा पुष्ट करता है , तभी जगत् का अस्तित्व सिद्ध होता है । आश्रित सत्यत्व का जगत् सदैव सत्य-आत्मा के आश्रय पर है । ..... क्रमश: