पदार्थ मिथ्या पदार्थ सदैव मिथ्या है । पदार्थ सदैव सापेक्ष है । पदार्थ सदैव आश्रित
है । पदार्थ का अधिष्ठान आत्मा है । पदार्थ सदैव काल से परिच्छिन्न है । पदार्थ
सदैव परिवर्तन के अधीन है । ..... क्रमश:
पद-परिचय-सोपान साधन-चतुष्टय-सम्पत्ति यह ज्ञान के जिज्ञासु के लिये आहर्ता है । साधन-चयुष्टय के अंग (1) विवेक – मस्तिष्क में स्पष्ट क्षवि कि हमें क्या चाहिये और क्या नहीं चाहिये । हमें पूर्णता चाहिये और हमें अपूर्णता नहीं चाहिये । (2) वैराग्य – पूर्णता और अपूर्णता दोनो एक दूसरे के विपरीत स्वभाव के हैं इसलिये एक ही व्यक्ति दोनो को उन्मुख नहीं हो सकता है इसलिये , पूर्णता का जो इक्षुक होगा उसे अपूर्णता से विमुख होना होगा , इसे वैराग्य कहा गया है (3) शमादि-षट-सम्पत्ति जिसमें , शम: व्यक्ति का गुण है । शम: की परिभाषा “मनोनिग्रह” है । मनोनिग्रह , मस्तिष्क का नियंत्रण है । मस्तिष्क के षट धर्म , शम: , दम: , उपरति , तितीक्षा , श्रद्धा , समाधानम् को मस्तिष्क की सम्पत्ति के रूप में धारक व्यक्ति को आत्मज्ञान के लिये उपयुक्त पात्र बताया गया है । (4) मुमुक्षु – “आत्मज्ञान” की प्रबल जिज्ञासा है । जिस व्यक्ति में उपरोक्त चार गुण विद्यमान हो उसे इस “आत्मज्ञान” के लिये योग्य अधिकारी कहा जायेगा । ...... क्रमश:
माया-कल्पित-जगत्-सोपान चिदाभास स्थूल-सूक्ष्म-शरीर के अंत:करण में परिलक्षित होने वाला चैतन्य अहंकार है । उपाधियुक्त आत्मा जीवात्मा है । आत्मा एक है जो कि निराकार है , असंग है , अनन्त है , सर्व-विभू: है । परन्तु अज्ञान के फल से जब उपरोक्त कथित सर्व-विभू: आत्मा को , अहंकार से अलंकृत किसी स्थूल-सूक्ष्म-शरीर विषेस के गुण-धर्मों के साथ जोडा जाता है , तब जीवात्मा शब्द का प्रादुर्भाव होता है । शास्त्रों में अहंकार जिसकी परिभाषा उपरोक्त वर्णित है , को चिदाभास शब्द द्वारा व्यक्त किया गया है । ...... क्रमश:
पद-परिचय-सोपान निषिद्ध-कर्म व्यक्ति के जिस भी कर्म से , अगले किसी भी जीव को क्लेष की प्राप्ति होती है , वह तामसिक-निषिद्ध कर्म है । शास्त्र उपदेश , निषिद्ध कर्मों को , नहीं करने के , आदेश करते है । निषिद्ध पाप-कर्मों के करने से व्यक्ति के संचित-पुण्य क्षीण होते है । व्यक्ति पतन को उन्मुख होता है । ..... क्रमश:
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