संदेश

जनवरी, 2019 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

माया का लक्षण काल

माया-कल्पित-जगत्-सोपान माया का लक्षण काल काल क्या है ? विद्वान काल का उद्भव श्रोत परिवर्तन बताते हैं । काल अर्थात् परिवर्तन है । परिवर्तनो का न ही ओर है , और न ही छोर है । जिसका न ओर है न छोर है , वह माया है । परिवर्तन माया है । अ-निर्वचनीय माया है । माया की प्रकृति परिवर्तन है । माया-लोक का प्रत्येक अवयव परिवर्तन से आक्रान्त है । जन्म है , मृत्यु है । दोनो ही परिवर्तन मात्र हैं । स्त्री के गर्भ में स्थित भ्रूण परिवर्तित होकर , शिशु है । शिशु ही परिवर्तनो के द्वारा किशोर , युवा , प्रौढ , वृद्ध और अन्तिम परिवर्तन मृत्यु है । यह सभी परिवर्तन मात्र माया है । उपरोक्त समस्त में तात्विक कुछ भी नहीं है । फिरभी लोक है , लोकव्यवहार है । यही माया-लोक है । माया की उत्पत्ति , आत्मा के संकल्प मात्र से हो जाती है । यह प्रत्येक व्यक्ति का नित्य का अनुभव है । केवल व्यक्ति अपने को और अपने लोक को , विश्लेषणात्मक ढंग से कभी विचार नहीं करता है । काल , माया का दूसरा लक्षण है । ..... क्रमश:

माया का लक्षण आकाश

माया-कल्पित-जगत्-सोपान माया का लक्षण आकाश आकाश क्या है ? विद्वान आकाश की परिभाषा करतें हैं , कि जो अवकाश देता है वह आकाश है । अवकाश अर्थात् रहने का स्थान है । आकाश सर्वत्र है । सम्पूर्ण जगत् आकाश में स्थिति है । जीव रहने के लिये घर बनाता है । घर क्या है ? आकाश है । आकाश में ही कुछ दीवारें बना लेता है । दीवारों के ऊपर छत बना लेता है और उसे ही घर कहता है । इन दीवारों के अन्दर और बाहर समस्त आकाश है । आकाश का न ही ओर है , न ही छोर है । यह माया है । जिसका न ओर है , न छोर है । आत्मा के संकल्प मात्र से , आकाश अर्थात् माया उपस्थित हो जाती है । पुन: इसी आकाश से आगे की समस्त सृष्टि यथा वायु-अग्नि-जल-पृथ्वी-औषधय:-अन्नं-प्रजा प्रगट हो जाते है । आकाश , यह माया लोक का प्रथम लक्षण है । ...... क्रमश:

संकल्प-सृष्टि

माया-कल्पित-जगत्-सोपान संकल्प-सृष्टि पूर्व में वर्णित क्रम-सृष्टि से विलक्षण , एक और सृष्टि नामत: संकल्प-सृष्टि होती है । आपका मस्तिष्क जब स्वप्न-लोक की रचना करता है , तब क्या होता है ? क्या उसमें कोई क्रम होता है ? नहीं , स्वप्न दृष्य तत्काल और सम्पूर्ण स्वप्न-लोक एक साथ उपस्थित हो जाता है । यह संकल्प सृष्टि कही जाती है । यह भी माया सृष्टि का लोक है । जागृत दशा में भी , प्रत्येक व्यक्ति कुछ अपनी कल्पनाओं और मान्यताओं पर आधारित एक अपनी व्यक्तिगत सृष्टि कर लेता है । इसी कल्पित संकल्प-सृष्टि के आश्रय से ही दो व्यक्ति एक-दूसरे से लडते हैं , दो में से कोई भी , दूसरे के विचार को सत्य नहीं मानता है , क्योंकि दोनो अपनी अपनी संकल्प-सृष्टि के प्रति निष्ठावान होते हैं । यही माया लोक है । जीव के मस्तिष्क में , माया की सम्पूर्ण शक्ति निहित है । ज्ञातव्य है , कि माया मात्र भ्रान्ति है । ईश्वर अर्थात् माया सहित ब्रम्ह है , ईश्वर के संकल्प-मात्र से , माया ईश्वर की छाया हिरण्यगर्भ की रचना करती है , यह शास्त्र उपदेश है । पुन: हिरण्यगर्भ ही विस्तृत होकर जगत् बन जाते हैं । ..... क्रमश...

क्रम-सृष्टि

माया-कल्पित-जगत्-सोपान क्रम-सृष्टि माया-कल्पित-लोक की सृष्टि प्रक्रिया का जो विवरण प्रस्तुत किया गया है , यह क्रम सृष्टि है । आत्मा से आकाश की उत्पत्ति हुई , आकाश से वायु , वायु से अग्नि , अग्नि से जल , जल से पृथ्वी , पृथ्वी से औषधय: , औषधय: से अन्नं , अन्नं से प्रजा की उत्पत्ति हुई है । भोक्ता-भोज्य-जगत् माया का लोक है । भोक्ता मस्तिष्क-धारी जीव है । भोज्य वस्तु-रूप जगत् है । जीव में मस्तिष्क ही माया का उप-केन्द्र है । इसे ही अन्त:करण कहा गया है । जीव समस्त अनुभव इसी मस्तिष्क करण से ही अर्जित करता है । “ करण ” अर्थात् ज्ञान अर्जित करने का साधन है । इस मस्तिष्क अन्त:करण की , इन्द्रियाँ उप-करण हैं । ..... क्रमश:

अन्न-आत्मा

माया-कल्पित-जगत्-सोपान अन्न-आत्मा शास्त्र में जहाँ सृष्टि प्रक्रिया के उल्लेख में सूक्ष्म पंच-महाभूतों से प्रारम्भ करके , स्थूल-पंचमहाभूतों-औषधियाँ-अन्नं-अन्नरस-जीव का क्रम वर्णन किया गया है , वही ज्ञान के शिक्षण के लिये ठीक उलटा क्रम अर्थात् स्थूल से सूक्ष्म का पथ अपनाया गया है । स्थूल शरीर प्रत्येक व्यक्ति का नित्य का अनुभव है , इसलिये शिक्षण का प्रारम्भ स्थूल शरीर से किया गया है । आत्मा जो कि सूक्ष्मतम् है , उसका ज्ञान अन्तिम गन्तव्य होता है । सूक्ष्मतम् आत्मा सर्व-विभू: है , क्योंकि वह अनन्त सत्ता है । जीव का स्थूल-शरीर पूर्णरूप से अन्न से निर्मित है , इसरूप में अन्न सम्पूर्ण शरीर में सर्व-विभू: है । उपरोक्त कथित अन्न समष्टि की व्यष्टि स्थूल-शरीर में सर्व-विभू: स्थिति को , अन्न-आत्मा कह कर व्यक्त किया गया है । ....... क्रमश:

औषधि अन्नं प्रजा ज्येष्ठ:

माया-कल्पित-जगत्-सोपान औषधि अन्नं प्रजा ज्येष्ठ: शास्त्रों में औषधियों को अन्न का ज्येष्ठ बताया गया है । ज्येष्ठ का अर्थ होता है कि औषधियाँ उस काल अवधि में भी अस्तित्वमान थी जब अन्न की उत्पत्ति नहीं हुई थी । उपरोक्त कथित निरूपण उत्पत्ति क्रम को व्यक्त करने के उद्देष्य से है । उपरोक्त निरूपण का उद्देष्य ज्येष्ठ की महिमा वर्णन का भी होता है । प्रजा की उत्पत्ति अन्न से होती है । उपरोक्त वर्णित अनुसार प्रजा के मूल श्रोत औषधि-अन्न हैं । ....... क्रमश:

भूत-सृष्टि से प्रजा-सृष्टि

माया-कल्पित-जगत्-सोपान भूत-सृष्टि से प्रजा-सृष्टि माया-कल्पित-जगत् के दो विभाजन , जड-प्रपंच और जीव-प्रपंच हैं । उपरोक्त कथित दोनो ही अवयवो के सृजन का मौलिक आधार पंच-महाभूत ही हैं । पंच-महाभूतों के विचार में पहले सूक्ष्म-पंच-महाभूत आये है , पुन: बाद में सूक्ष्म से ही स्थूल पंच-महाभूत सम्भव हुये हैं । पुन: पंच-महाभूतों से औषधियाँ , औषधियों से अन्नं , अन्नं से अन्न-रस , अन्न-रस से जीव की उत्पत्ति हुई है । उपरोक्त वर्णित उत्पत्ति क्रम में जड प्रपंच पहले सृजित हुये और जीव प्रपंच बाद में सृजित हुये हैं । भोज्य-जगत पहले आया है , भोक्ता बाद में आया है । ....... क्रमश:

अन्न-रस: से प्रजा:

माया-कल्पित-जगत्-सोपान अन्न-रस: से प्रजा: प्रजा अर्थात् जीव की उत्पत्ति अन्न-रस से होती है । अन्न-रस , पुरुष-शरीर में अन्न से सृजित शुक्र और स्त्री शरीर में अन्न से सृजित शोणित को कहा जाता है । उपरोक्त कथित अन्न-रस से समस्त प्रजा अर्थात् जीव-प्रपंचों की उत्पत्ति सम्भव होती है । उपरोक्त कथित अनुसार माया-कल्पित-जगत् पंच-महाभूतों से प्रारम्भ होकर जीव पर्यन्त सृजित होता है । ....... क्रमश:

अन्नं से अन्न-रस:

माया-कल्पित-जगत्-सोपान अन्नं से अन्न-रस: अन्न द्वारा ही प्रजा का सृजन है । अन्न जब पुरुष शरीर में पाचन प्रक्रिया से गतिमान होता है , तो वह प्राण-शक्ति के पोषण के अतिरिक्त शुक्र की उत्पत्ति करता है । अन्न जब स्त्री शरीर में पाचन प्रक्रिया से गतिमान होता है तो वह प्राण-शक्ति का पोषण के अतिरिक्त शोणित का सृजन करता है । उपरोक्त कथित शुक्र और शोणित को ही शास्त्रों में अन्न रस कहा गया हैं । ...... क्रमश:

औषधय: से अन्नं

माया-कल्पित-जगत्-सोपान औषधय: से अन्नं सृष्टि प्रक्रिया में औषधियों से अन्न की उत्पत्ति होती है । अन्न ही प्रजा सृष्टि का आधार हैं । अन्न ही प्रजा की स्थिति के आधार हैं । प्रजा की प्राण-शक्ति अन्न के पोषण द्वारा ही स्थिर रहती है । अन्न के पोषण के आभाव में प्राण शरीर में नहीं रह सकता है । इसलिये ही औषधियाँ प्रजा की सर्वाधिक महत्वपूर्ण मौलिक आवश्यकता हैं । ....... क्रमश:

पृथ्वी से औषधय:

माया-कल्पित-जगत्-सोपान पृथ्वी से औषधय: पंच-महाभूतों की उत्पत्ति क्रम में पृथ्वी का आगमन अन्तिम है । परन्तु पृथ्वी में उर्वरा-शक्ति के रूप में विशिष्ट प्राविधान माया-शक्ति द्वारा किया गया है । उपरोक्त कथित प्राविधान के फल से पृथ्वी से औषधियाँ सम्भव हुई है । यह औषधियाँ प्रजा की उत्पत्ति और बाद में प्रजा की स्थिति के लिये आधारभूत आश्रय हैं । औषधि सम्पदा प्रजा की मूल्यवान निधि हैं । ...... क्रमश:

निमित्त कौशल माया शक्ति

माया-कल्पित-जगत्-सोपान निमित्त कौशल माया शक्ति ब्रम्ह के संकल्प मात्र से , ब्रम्ह की सृजनात्मक क्षमता जो माया शक्ति के नाम से विख्यात है , क्रियाशील हो जाती है , जिसके फल से , वर्तमान अनुभवागम्य मिथ्या माया-कल्पित-जगत् , ब्रम्ह की छाया सृदष्य उपस्थित हो जाता है । उपरोक्त वर्णित शास्त्र उपदेश की व्याख्या इस प्रकार है । ब्रम्ह और माया शक्ति अनिवार्यत: अविभाज्य हैं । शक्ति सदैव शक्ति-श्रोत से अविभाज्य है । आत्म-ब्रम्ह-धारक-जीव माया-कल्पित-जगत् का चेतन अवयव है , जो कि भोज्य जगत् का भोक्ता है । जीवो में , विवेक-धारक केवल मनुष्य प्रजाति है । मनुष्य के लिये अपनी आत्मा का ज्ञान-बोध करना , सर्वोच्च शाश्वत् पुरुषार्थ है । आत्म-ज्ञान ही मोक्ष है । जीवन-मुक्ति है । ....... क्रमश:

भूत-सृष्टि से भौतिक-सृष्टि

माया-कल्पित-जगत्-सोपान भूत-सृष्टि से भौतिक-सृष्टि माया-कल्पित-जगत् की सृष्टि प्रक्रिया में , अव्यक्त से व्यक्त-दशा में अनुभवगम्य होने की प्रक्रिया में , निर्गुण-निराकार-ब्रम्ह पहले सूक्ष्म-पंच-महाभूतों के रूप में व्यक्त-दशा-धारी हुआ है । ईश्वर से हिरण्यगर्भ की छाया-रूपेण उत्पत्ति का उपदेश शास्त्र करते हैं । सूक्ष्म-देवता-हिरण्यगर्भ अपनी विभक्ति द्वारा वृद्धि-प्रक्रिया , रयि-प्राण रूपी द्वंदों के पथ से , स्थूल-पंच-महाभूतो को अनुभवगम्य कराते हैं । उपरोक्त कथित स्थूल-पंच-महाभूतों से , समस्त माया-कल्पित-जगत् का वर्तमान भौतिक रूप उपस्थित हुआ है । ......   क्रमश:  

नाम-रूप अभिव्यक्ति मात्र

माया-कल्पित-जगत्-सोपान नाम-रूप अभिव्यक्ति मात्र अनुभवगम्य माया-कल्पित-जगत् में समस्त व्यक्त जगत् केवल नाम-रूप मात्र हैं । उपरोक्त कथित जगत् की सत्ता निर्गुण-निराकार-अनन्त ब्रम्ह है , यह शास्त्र उपदेश है । उपरोक्त कथित तथ्यात्मक स्थिति में वर्णित सत्ता को , माया-शक्ति आवृत्त करती है , जिसके फल से इस माया-कल्पित-जगत् का जीव नाम-रूप को सत्य अनुभव करता है , यहाँ तक कि सत्ता से अनभिज्ञ रहता है । ...... क्रमश

निर्गुण सगुण की ओर

माया-कल्पित-जगत्-सोपान निर्गुण सगुण की ओर सृष्टि प्रक्रिया अर्थात् अव्यक्त की व्यक्त दशा में अन्तरित होने की प्रक्रिया , में निर्गुण निराकार ब्रम्ह , सगुण साकार माया-कल्पित-जगत् के रूप में व्यक्त अनुभवगम्य होता है । उपरोक्त वर्णित निर्गुण ब्रम्ह क्रमबद्ध सगुण रूप धारण करते हुये व्यक्त दशा में अनुभवगम्य होता है । निर्गुण जब एक-गुण-धारी रूप लेता है , तो उसे आकाश शब्द द्वारा व्यक्त किया गया है । शब्द अर्थात् ध्वनि गुण अनुभवगम्य होती है । द्वितीय गुण के रूप में स्पर्ष अनुभवगम्य कराने हेतु , निर्गुण द्वि-गुण-धारी वायु के रूप में व्यक्त हुआ है । तृतीय गुण के रूप में दृष्य को व्यक्त करने के लिये , निर्गुण त्रि-गुणात्मक अग्नि के रूप में अनुभवगम्य हुआ है । चतुर्थ गुण स्वाद को अनुभ्यवगम्य कराने के लिये , निर्गुण चार-गुण-युक्त जल के रूप में रूपधारी होता है । पंचम् और अन्तिम गुण गन्ध को अनुभवगम्य कराने के लिये , निर्गुण पंच-गुण-युक्त पृथ्वी के रूप में व्यक्त-स्वरूपधारी होता है । ....... क्रमश:            

अभिव्यक्ति सूक्ष्म से स्थूल

माया-कल्पित-जगत्-सोपान अभिव्यक्ति सूक्ष्म से स्थूल शास्त्रों में जगत् की उत्पत्ति प्रक्रिया को , अ-व्यक्त का व्यक्त में पर्णय , के स्वरूप में व्यक्त किया गया है । ब्रम्ह सूक्ष्मतम् अनन्त तत्व है । उपरोक्त कथित अ-व्यक्त सूक्ष्मतम् ब्रम्ह , व्यक्त रूपधारी होने की प्रक्रिया में , सर्व-प्रथम आकाश जो कि व्यक्त का सूक्ष्मतम् है , के रूप में रूपधारी होता है । पुन: वायु जो कि आकाश के सापेक्ष स्थूल है , का रूपधारी होने का उपदेश है । पुन: अग्नि जो कि वायु के सापेक्ष स्थूल है के रूपधारी होने का शास्त्र उपदेश करते हैं । पुन: जल जो कि सापेक्षता के क्रम में अग्नि से स्थूल है , के रूपधारी होने का उपदेश है । अन्तिम पडाव के रूप में पृथ्वी जो कि स्थूलतम है रूपधारी होती है । ..... क्रमश:

माया-कल्पित-जगत् का सत्यत्व

माया-कल्पित-जगत्-सोपान माया-कल्पित-जगत् का सत्यत्व शास्त्र जगत् का कारण ब्रम्ह , का उपदेश करते हैं । उपरोक्त वर्णित उपदेश से विदित है कि जगत् कार्य है जिसका कारण ब्रम्ह है । कार्य में कारण सर्वदा विद्यमान होता है । प्रत्येक स्वर्ण-आभूषण-कार्य में , कारण-स्वर्ण सदैव विद्यमान पाया जाता है । उपरोक्त व्याख्या से निर्विवादित स्पष्ट है कि जगत्-कार्य में कारण-ब्रम्ह सदैव विद्यमान है । उपरोक्त वर्णित तथ्यात्मक व्याख्या की सरल अभिव्यक्ति है कि , यह माया-कल्पित-जगत् ब्रम्ह की अभिव्यक्ति मात्र है । ...... क्रमश:       

माया-कल्पित-जगत् अनित्य

माया-कल्पित-जगत्-सोपान माया-कल्पित-जगत् अनित्य इस जगत् के प्रत्येक अवयव सविकारी हैं अर्थात् परिवर्तन के अधीन हैं । ज्ञातव्य है कि विस्तृत आकाश , और विशाल काल भी इस माया-कल्पित-जगत् के ही अवयव हैं । प्रत्येक व्यक्ति उपरोक्त कथित सविकारी जगत् में सुरक्षा की कामना करता है , परन्तु उसे मिलती नहीं है , क्योंकि परिवर्तनशील जो कुछ भी प्रदान करेगा वह भी सदैव परिवर्तनशील ही हो सकता है । उपरोक्त कथित कारणों से ही प्रत्येक व्यक्ति इस जगत् में अपने को असुरक्षित अनुभव करता है । अपूर्णता किसी भी परिवर्तन द्वारा पूर्ण नहीं बन सकती है , इसलिये ही इस जगत् के किसी भी व्यक्ति को , जगत् के संसर्ग द्वारा कभी भी सन्तुष्टि की स्थिति प्राप्त नहीं हो सकती है । ....... क्रमश:  

सृष्टि शिक्षण मन्तव्य

माया-कल्पित-जगत्-सोपान सृष्टि शिक्षण मन्तव्य शास्त्रों में जगत् के मिथ्यात्व का उपदेश दृढता पूर्वक किया गया है , फिरभी शास्त्र सृष्टि अर्थात् माया-कल्पित-जगत् की उत्पत्ति प्रक्रिया का भी विस्तृत उपदेश किया गया है । उपरोक्त वर्णित विदित रूप से विरोधाभास प्रतीत होने वाले शिक्षण का उद्देष्य क्या हो सकता है ? माया-कल्पित-जगत् न ही एक सत्य अस्तित्व है , न ही यह माया-कल्पित-जगत् उस पारमार्थिक सत्य ब्रम्ह का अंग है , बल्कि यह माया-कल्पित-जगत् उस अनन्त आत्यन्तिक सत्य ब्रम्ह की इस जगत् के रूप में अभिव्यक्ति है । उपरोक्त वर्णित मानसिक ग्राह्यता का विस्तार और व्यापकता सृष्टि शिक्षण का उद्देष्य है । व्यष्टि की सीमा में बँधा हुआ जिज्ञासु , समष्टि के रूप में अपने को विराट-देवता और हिरण्यगर्भ-देवता की एक विशिष्ट अभिव्यक्ति के रूप में ग्रहण करने की मानसिक क्षमता अर्जित करता है । ...... क्रमश:

माया-कल्पित-जगत् कर्म-फल-भोग-क्षेत्र

माया-कल्पित-जगत्-सोपान माया-कल्पित-जगत् कर्म-फल-भोग-क्षेत्र शास्त्र उपदेश करते हैं कि , यह सम्पूर्ण जगत् जीवों के संचित कर्मफलों के भोग के लिये है । संचित पुण्य-फलों के भोग के लिये उच्च-लोक हैं । संचित पाप-फलों के भोग के लिये निम्न-लोक हैं । समिश्रित पुण्य-पाप-फलों के भोग के लिये यह अनुभवगम्य पृथ्वी-लोक है जिसमें मनुष्य योनि के प्राणी भी सम्मलित हैं । इस पृथ्वी-लोक में प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में कभी पुण्य-फलों का भोग करते हुये सम्पन्न परिस्थितियों का भोग करता है , और जीवन काल के अन्य-भाग में पाप-फलों का भोग करते हुये त्रासित जीवन का भोग करता है । ...... क्रमश:    

जीवन एक यज्ञ

माया-कल्पित-जगत्-सोपान जीवन एक यज्ञ   माया-कल्पित-जगत् का जीव और वस्तु-रूप एक दूसरे से परस्पर व्यवहार करते हैं । उपरोक्त कथित व्यवहार-काल में ही जीव इस जगत् से विविध अनुभव अर्जित करता है । जीव अपने पूर्व-जीवनके अर्जित अनुभव के आधार पर ही आगे के जीवन का योजन करता है । उपरोक्त कथित व्यवहार के लिये पांच अनिवार्य वाक्षनायें होती है , एक- पंच-ज्ञानेन्द्रियाँ , दो- पांचो ज्ञानेन्द्रि में ज्ञान-अर्जन-शक्ति , तीन- जगत् के वस्तु-रूप , चार- ज्ञानेन्द्री और वस्तु-रूप के मध्य भौतिक सम्बन्ध , पांच- ज्ञानेन्द्रियों को कार्यकारी दशा का भोग करने के लिये एक उपयुक्त स्थूल-शरीर । उपरोक्त कथित समस्त के माध्यम् से जीव यज्ञ रूपी जीवन यापन करता है । ....... क्रमश: 

तप: श्रद्धा विभूति

माया-कल्पित-जगत्-सोपान तप: श्रद्धा विभूति माया-कल्पित-जगत् में माया-शक्ति ने तप और श्रद्धा जैसी विभूतियों को भी बनाया हैं । श्रद्धा को वेदों में श्रद्धा-देवी की श्रेणी प्रदान करते हुये इनकी उपासना के लिये श्रद्धा-सूत्र भी हैं । श्रद्धायुक्त व्यक्ति वैदिक पुरुष कहा जाता है । सत्यम् ज्ञान और व्यवहार की तारतम्य को कहा जाता है । ज्ञान यदि व्यवहार में व्यव्हृत नहीं है , तो सत्यम् अर्थविहीन है । शास्त्र का नियमानुसार अध्ययन ब्रम्हचर्य कहा जाता है । माया-कल्पित-जगत् लोक में जीवनयापन के लिये उपरोक्त कथित तप: , श्रद्धा , सत्यम् , ब्रम्हचर्य जैसी अनुशासनात्मक उपदेश शास्त्र करते हैं । ....... क्रमश:

मायालोक तारतम्यमय

माया-कल्पित-जगत्-सोपान मायालोक तारतम्यमय माया-कल्पित-जगत् पर्यन्त समस्त व्यवस्था तारतम्य पर आधारित है जिसमें तारतम्य का निर्धारण अवयव के उपलब्ध पुण्य-पाप द्वारा निर्धारित होता है । ईर्ष्या , तृष्णा अपरिहार्य मानसिक वृत्तियाँ माया-कल्पित-जगत् की धरोहर होती हैं , क्योंकि उपरोक्त का उदय तारतम्य के फल से होता है । उत्तम , मध्यम , अधम तारतम्य की श्रेणियाँ होती हैं । शास्त्रों में वर्णित चौदह लोक , पुण्य-पाप भोग के लिये माया-कल्पित-जगत् के तारतम्य पर आधारित स्थल हैं । ...... क्रमश:

मस्तिष्क वृत्ति स्वप्न

माया-कल्पित-जगत्-सोपान मस्तिष्क वृत्ति स्वप्न अमूर्त मस्तिष्क की वृत्तियाँ ही , स्वप्न काल की मूर्त दृष्य-प्रपंच बनती हैं , जिन्हे व्यक्ति की निद्रा-शक्ति , स्वप्न के रूप में प्रक्षेपित करती है । उपरोक्त वर्णित अनुसार ही , यह विस्तृत अनुभवगम्य लोकव्यवहार का माया-कल्पित-जगत् भी , ईश्वर की अमूर्त मन:वृत्तियाँ मात्र हैं , जिन्हे माया-शक्ति माया-कल्पित-जगत् के रूप में प्रक्षेपित कर रही हैं । ज्ञातव्य है कि , स्वप्नकाल में स्वप्न-दृष्य स्वप्न-दृष्टा के   सत्यवद् ही होते हैं , जो कि जागृत-दशा में मिथ्या स्वप्न-दृष्य कहे जाते हैं । उपरोक्तानुसार ही , यह माया-कल्पित-जगत् भी , ईश्वर के स्वप्नलोक के माया-कल्पित-जगत् के अवयव व्यक्ति के लिये अनुभवगम्य माया-कल्पित-जगत् सत्यवद् प्रतीत होता है , जो कि ज्ञान की दशा में स्वप्नवद् मिथ्या सिद्ध होता है । ...... क्रमश:  

नित्य, नैमित्तिक, साम्य, प्रायश्चित, निषिद्ध कर्म

माया-कल्पित-जगत्-सोपान नित्य , नैमित्तिक , साम्य , प्रायश्चित , निषिद्ध कर्म जीव के जीवन की गुणवत्ता उसके संचित पुण्य-पाप की गुणवत्ता के आश्रित होती है । इसलिये शास्त्रों में विभिन्न प्रकार के कर्मों यथा नित्य और नैमित्तिक कर्म उन्नति पथ है , अर्थात् पुण्य की वृद्धि करने का पथ है , साम्य-कर्म व्यवहारिक कर्म करने की विधि है , प्रायष्चित-कर्म पाप-कर्मों को सीमित करने के लक्ष्य से होते हैं , निषिद्ध-कर्म पाप की वृद्धि करने वाले होते हैं , का उपदेश शास्त्रों में किया गया है । ज्ञातव्य है कि आदि-पुरुष नारायण अपनी संतानो अर्थात सृजित-जीव-प्रपंच से संवाद शास्त्र उपदेश के माध्यम से करते हैं । ....... क्रमश:     

स्वर्ग-मेघ-पृथ्वी-पुरुष-नारी

माया-कल्पित-जगत्-सोपान स्वर्ग-मेघ-पृथ्वी-पुरुष-नारी जीव का सूक्ष्म शरीर एक स्थूल-शरीर का त्याग करने के बाद , दूसरी स्थूल-शरीर में स्थापना से पूर्व पांच संस्कारों से गतिमान होता है । उपरोक्त कथित पांच संस्कार का स्थल क्रमश: स्वर्ग , मेघ , पृथ्वी , पुरुष और नारी होता है । स्वर्ग के संस्कार से निर्गत होने पर उसे सोम कहा जाता है । मेघ के संस्कार से निर्गत होने पर उसे वृष्टि कहा जाता है । पृथ्वी के संस्कार से निर्गत होने पर उसे अन्न कहा जाता है । पुरुष के संस्कार से निर्गत होने पर उसे रेत: कहा जाता है । नारी के संस्कार से निर्गत होने पर उसे शिशु कहा जाता है । माया-कल्पित-जगत् के जीव उपरोक्त चक्र के विभिन्न क्रमों से गतिमान होते एक शरीर से दूसरी शरीर धारण करते रहते हैं । ..... क्रमश:   

अमूर्त-प्रपंच

माया-कल्पित-जगत्-सोपान अमूर्त-प्रपंच माया-कल्पित-जगत् की संरचना अमूर्त-प्रपंच और मूर्त-प्रपंच युक्त है । जीव का मस्तिष्क , मस्तिष्क में गति करने वाले विचार , हिरण्यगर्भ-देवता एवं अन्य सम अमूर्त की श्रेणी के हैं । जीव का स्थूल-शरीर , विराट-देवता एवं अन्य सम मूर्त श्रेणी के हैं । मूर्त तथा अमूर्त दोनो मिलकर ही माया शक्ति द्वारा जनित गति में सम्मलित होते हैं । यथा-स्थिति अमूर्त का प्रादुर्भाव पहले होता है , अमूर्त द्वारा मूर्त स्वरूपधारी होता है । हिरण्यगर्भ से विराट उदय होता है । ...... क्रमश:  

लय-स्थल उपदेश

माया-कल्पित-जगत्-सोपान लय-स्थल उपदेश  भोक्ता-भोग्यकर्ण-भोज्य का लय स्थल जानने के लिये भोक्ता-भोग्यकर्ण-भोज्य का लय अनिवार्य वाँक्षना है । उपरोक्त कथित भोक्ता का लय हो जाने पर ,  लय-स्थल का ज्ञान लय-गत-भोक्ता को कैसे सम्भव हो सकता है  ?  उपरोक्त कथित ज्ञान केवल एक विधि द्वारा सम्भव है ,  कि कोई विलक्षण सिद्धान्त उपरोक्त लय-स्थल का ज्ञान उपदेश करे ,  उपरोक्त कथित ज्ञान श्रुतियाँ उपदेश करती हैं । भोक्ता के लय-स्थल का ज्ञान-बोध स्वयं भोक्ता किसी भी परिस्थिति में ,  किसी भी विधि से नहीं कर सकता है । उपरोक्त कथित ज्ञान सदैव उपदेश के आश्रित है । उपरोक्त समस्त का लय आत्मा में होता है । ...... क्रमशा :   

सर्व आश्रय आत्मा

माया-कल्पित-जगत्-सोपान सर्व आश्रय आत्मा समस्त स्थूल-पंच-महाभूत , समस्त सूक्ष्म-पंच-महाभूत , तथा भोक्ता , भोज्य-कर्ण , भोज्य का आश्रय आत्मा है । उपरोक्त कथित समस्त पांच अवयव मिलकर समस्त जड-प्रपंच और समस्त-जीव-प्रपंच जो को माया-कल्पित-जगत् हैं , का आश्रय आत्मा है । उपरोक्त कथित श्रुति उपदेश व्यक्त करता है कि माया-कल्पित-जगत् आत्मा की ही छाया सदृष्य उत्पत्ति है , जो कि उसी आत्मा में ही लय करती है । ...... क्रमश:   

लय स्थल

माया-कल्पित-जगत्-सोपान लय स्थल स्थूल-सूक्ष्म पंच-महा-भूतानि , तथा त्रिकुटी समस्त पाँच की उत्पत्ति , स्थिति और लय तुरीयं आत्मा में होती है । शास्त्र में उपरोक्त कथित लय स्थल को परे-आत्मनि सम्बोधित किया गया है । अक्षरम् परे-आत्मनि । क्षर और अक्षर । विकारयुक्त क्षर है । निर्विकार अक्षर है । विकारयुक्त माया-कल्पित क्षेत्र है । अक्षर पार-लौकिक है । स्थूल-सूक्ष्म पंच-महा-भूतानि , तथा त्रिकुटी यह माया-कल्पित-लोक की परिधि है । माया-कलिप-लोक की उत्पत्ति आत्मा से है , माया-कल्पित-लोक की स्थिति आत्मा के आश्रय से है , माया-कल्पित-लोक का लय-स्थल आत्मा है । ...... क्रमश: