नित्य, नैमित्तिक, साम्य, प्रायश्चित, निषिद्ध कर्म
माया-कल्पित-जगत्-सोपान
नित्य, नैमित्तिक, साम्य, प्रायश्चित, निषिद्ध कर्म जीव के जीवन की गुणवत्ता उसके संचित पुण्य-पाप की गुणवत्ता के आश्रित
होती है । इसलिये शास्त्रों में विभिन्न प्रकार के कर्मों यथा नित्य और
नैमित्तिक कर्म उन्नति पथ है, अर्थात् पुण्य की वृद्धि करने का पथ है, साम्य-कर्म व्यवहारिक कर्म करने की विधि है,
प्रायष्चित-कर्म पाप-कर्मों को सीमित करने के लक्ष्य से होते हैं, निषिद्ध-कर्म पाप की वृद्धि करने वाले होते हैं, का
उपदेश शास्त्रों में किया गया है । ज्ञातव्य है कि आदि-पुरुष नारायण अपनी संतानो
अर्थात सृजित-जीव-प्रपंच से संवाद शास्त्र उपदेश के माध्यम से करते हैं । .......
क्रमश:
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