संदेश

मार्च, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

साधन-चतुष्टय-सम्पत्ति

पद-परिचय-सोपान   साधन-चतुष्टय-सम्पत्ति यह ज्ञान के जिज्ञासु के लिये आहर्ता है । साधन-चयुष्टय के अंग (1) विवेक – मस्तिष्क में स्पष्ट क्षवि कि हमें क्या चाहिये और क्या नहीं चाहिये । हमें पूर्णता चाहिये और हमें अपूर्णता नहीं चाहिये । (2) वैराग्य – पूर्णता और अपूर्णता दोनो एक दूसरे के विपरीत स्वभाव के हैं   इसलिये एक ही व्यक्ति दोनो को उन्मुख नहीं हो सकता है इसलिये , पूर्णता का जो इक्षुक होगा उसे अपूर्णता से विमुख होना होगा , इसे वैराग्य कहा गया है (3) शमादि-षट-सम्पत्ति जिसमें , शम: व्यक्ति का गुण है । शम: की परिभाषा “मनोनिग्रह” है । मनोनिग्रह , मस्तिष्क का नियंत्रण है । मस्तिष्क के षट धर्म , शम: , दम: , उपरति , तितीक्षा , श्रद्धा , समाधानम् को मस्तिष्क की सम्पत्ति के रूप में धारक व्यक्ति को आत्मज्ञान के लिये उपयुक्त पात्र बताया गया है । (4) मुमुक्षु – “आत्मज्ञान” की प्रबल जिज्ञासा है । जिस व्यक्ति में उपरोक्त चार गुण विद्यमान हो उसे इस “आत्मज्ञान” के लिये योग्य अधिकारी कहा जायेगा । ...... क्रमश:

निबिध्यासन

पद-परिचय-सोपान   निबिध्यासन गुरू के उपदेश को जीवन-यापन में चरितार्थ करने का अभ्यास निबिध्यासन कहा जाता है । जैसा कि उपदेश का लक्ष्य बताया गया है , उपदेश के अनुरूप जीवन यापन ज्ञान का उद्देष्य है । ज्ञान व्यक्ति का स्वरूप है । अपने स्वरूप में जीवन-यापन ज्ञान है । व्यवहारिक मनुष्य भ्रान्ति अहंकार का जीवन-यापन कर रहा है । व्यक्ति के ज्ञान का लक्ष्य अपने स्वरूप में जीवन यापन का है । भ्रान्ति अहंकार से सत्य-स्वरूप की प्राप्ति का पथ , शास्त्र-प्रमाण के माद्यम से गुरू द्वारा उपदेशित आत्म-ज्ञान को , अभ्यास द्वारा अंगीकार करना निबिध्यासन है । ....... क्रमश:

मननं

पद-परिचय-सोपान मननं श्रवणं द्वारा गुरू प्रसाद से प्राप्त हुये शास्त्र के उपदेश का जिज्ञासु द्वारा अपने मस्तिष्क में चिन्तन करना मननं कहा जाता है । मननं की प्रक्रिया ज्ञान की प्रक्रिया का अनिवार्य और अ-परिहार्य अंग होती है । ज्ञान का उद्देष्य केवल शैक्षिक उपलब्धि नहीं होता है अपितु ज्ञान को अंगीकार कर जीवन-यापन होता है । उपरोक्त लक्ष्य की उपलब्धि मननं द्वारा ही सम्भव हो सकती है । जिज्ञासु को यदि उपदेश किये गये किसी अंश-भाग की छवि स्पष्ट न होने की दशा में गुरू के सम्मुख प्रश्न रखकर निराकरण प्राप्त करने का विधान होता है , परन्तु गुरू के सम्मुख जिज्ञासु कोई प्रश्न मननं की प्रक्रिया के उपरान्त ही कर सकता है । मननं गुरू के उपदेश को आत्मसात् करने की प्रक्रिया है । .... क्रमश:  

श्रवणं

पद-परिचय-सोपान   श्रवणं शास्त्रो के उपदेश को गुरू के सानिध्य में रहकर गुरू के मुख से सुनने को श्रवणं कहा जाता है । शास्त्र के उपदेश का संचार श्रवणं द्वारा ही अनादिकाल से संचरित होता आया है । ज्ञान की उपलब्धि श्रवणं द्वारा ही होती है । उपरोक्त कथित स्थिति भावनात्मक अभिव्यक्ति नहीं है अपितु सत्य की अभिव्यक्ति है । उपरोक्त कथित अभिव्यक्ति का प्रमाण है कि ज्ञान आज के वर्तमान में भी विद्यमान है । ज्ञान की प्रक्रिया में शास्त्र एक प्रमाण के रूप में कार्य करते हैं । गुरू शास्त्र प्रमाण का उपयोग , शास्त्र में वर्णित किसी विधि- विषेस से ही करता है । उपरोक्त वर्णित अनुशासित उपदेश के फल से ज्ञान सम्भव होता है । ज्ञान का फल , जीवित रहते जीवन-मुक्ति होती है और मृत्यु-उपरान्त मोक्ष होता है । ....... क्रमश:         

भ्रान्ति-अनुभूति

पद-परिचय-सोपान         भ्रान्ति-अनुभूति अहंकार भ्रान्ति है । आत्मा सत्य है । आत्मा के अज्ञान के फल से भ्रान्ति अहंकार का सृजन होता है । परन्तु जीव उपरोक्त वर्णित भ्रान्ति को ही , सत्य के रूप में , अपने जन्म से ही जानता आया है । यह माया की बौद्धिक कुशलता का फल है । उपरोक्त भ्रान्ति-अनुभूति के लिये जीव-व्यक्ति को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है । परन्तु उपरोक्त विडम्बना के व्यतिरिक्त उपरोक्त कथित भ्रान्ति का निवारण आत्म-ज्ञान द्वारा ही सम्भव हो सकता है । ..... क्रमश:

अज्ञान

पद-परिचय-सोपान     अज्ञान सत्य के ज्ञान-बोध का आभाव अज्ञान है । अध्ययन के विश्लेषण के लिये सत्य को दो भागो , एक – सामान्य अंश , दो – विषेस अंश , में बिभक्त किया जाता है । व्यक्ति अनुभव करता है , कि कुछ है , यह सामान्य अंश है , वह वस्तु क्या है , यह उस वस्तु का विषेस अंश कहा जाता है । अज्ञान के विचार में , यदि उपरोक्त वर्णित सामान्य अंश का ज्ञान है और विषेस अंश आवृत्त दशा में है , तो उपरोक्त वर्णित आवृत्त अंश के स्थान पर किसी अन्य विषेस अंश की भ्रान्त अनुभूति की सम्भावना का उदय होता है । उपरोक्त वर्णित भ्रान्त अनुभूति की प्रक्रिया में , आवृत्त अंश एक होता है जबकि उदित होने वाली भ्रान्तियाँ अनेक होती हैं । उपरोक्त वर्णित भ्रान्ति अनुभूति के आधार पर जब सत्य की समीक्षा की जाती है , तब उसे अज्ञान कहा जाता है ........ क्रमश:

पद-परिचय-सोपान      ॐ यह ध्वनि उच्चारण है । अति व्यापक को व्यक्त करने का सूक्ष्म प्रतीक चिन्ह है । उपरोक्त ध्वनि उच्चारण , तीन-व्यक्त और एक-अव्यक्त ध्वनि के योग से सृजित होता है । तीन-व्यक्त ध्वनियाँ अ उ म् होती हैं । चौथी अव्यक्त-ध्वनि मौन होती है । उपरोक्त ध्वनि उच्चारण की व्यापकता समस्त व्यक्त-जगत् को आवृत्त करती है और साथ ही सम्पूर्ण अव्यक्त को भी आवृत्त करती है । व्यक्त-जगत् साकार-ब्रम्ह का प्रतिनिधित्व करता है । अव्यक्त-निराकार-ब्रम्ह का प्रतिनिधित्व करता है । उपरोक्त ध्वनि-उच्चारण की व्यापकता चारो वेदों के शिक्षण को आवृत्त करती है । नाम-रूप-जगत् व्यक्त-साकार-ब्रम्ह है । अ-व्यक्त माया है । ........ क्रमश

उपासक-उपास्य-द्वैत

पद-परिचय-सोपान       उपासक-उपास्य-द्वैत ज्ञान-शिक्षण की प्रारम्भिक अवस्था में उपासक-उपास्य द्वैत को वेद भी स्वीकारते हैं । जीव-व्यक्ति-उपासक है । देवता-उपास्य है । स्मरणीय है कि देवता भी उन्नति-कोटि के जीव ही हैं । अत्यधिक-पुण्यवान-जीव देवता हैं । प्रश्न-सृजित होता है कि जीव-उपासक और जीव-उपास्य कैसे वेदों को ग्राह्य है ? उत्तर है कि , यह शिक्षण क्रम है । उन्नति क्रम है । शून्य और अनन्त के मध्य कितनी बडी दूरी है ? उत्तर है , अनन्त पर्यन्त है । वेद-प्रमाण उपरोक्त वर्णित अनन्त की यात्रा को सम्भव बनाते हैं । उपरोक्त वर्णित अनन्त यात्रा का क्रम उत्तरोत्तर-उन्नति-क्रम है । अज्ञानी जीव माया के चंगुल में असहाय प्राणी है । उपरोक्त अज्ञानी जीव को वेद कर्म-काण्ड के शिक्षण द्वारा उसके मस्तिष्क को पवित्र बनाते हैं । पुन: वेद पवित्र-मस्तिष्क वाले अज्ञानी-जीव के मस्तिष्क की क्षमता का विस्तार करते हैं । उपरोक्त वर्णित क्षमता-विस्तार के लिये विभिन्न उपासनाओं का शिक्षण करते हैं । यह उत्तरोत्तर-वृद्धि-क्रम का शिक्षण हैं । ज्ञान चर्मोत्कर्ष स्थिति है । ...... क्रमश:

वृत्ति

पद-परिचय-सोपान     वृत्ति मस्तिष्क का समस्त संचालन वृत्तियों के आश्रय से होता है । प्रत्येक ज्ञान इन्द्री द्वारा , बाह्य जगत् के अनुभवों का , मस्तिष्क को संचरण , वृत्ति रूप में होता है । प्रत्येक ज्ञानेन्द्री द्वारा संचरित वृत्ति , अन्य ज्ञानेन्द्री द्वारा संचरित वृत्ति से विलक्षण होती हैं । वृत्ति-भेद के आधार पर ही अनुभवों की भिन्नता सम्भव होती है । वृत्तियाँ सदैव सूक्ष्म होती हैं । मस्तिष्क प्रत्येक कर्मेन्द्रि को कार्य-संचालन-निर्देश वृत्तियों के माध्यम से करता है । प्रत्येक भिन्न कर्मेन्द्री को संचरित कार्य-संचालन-निर्देश वृत्ति अन्य कर्मेन्द्री को संचरित कार्य-संचालन-निर्देश वृत्ति से विलक्षण होती है । मस्तिष्क में गति करने वाली वृत्तियों की अधिकता ही मस्तिष्क की अशान्ति स्थिति को निरूपित करती है । मस्तिष्क में गति करने वाली वृत्तियों का नियंत्रित सन्चार ही मस्तिष्क का नियन्त्रण कहा जाता है । ....... क्रमश:

अहंकार

पद-परिचय-सोपान     अहंकार मस्तिष्क की संरचना इस प्रकार की है कि इसमें सर्व-विभू: चैतन्य के व्याप्ति के फल से यह चेतन-वद् व्यवहार करने में समर्थ हो जाता है । इस प्रकार मस्तिष्क का चेतन आचरण इसका मौलिक धर्म नहीं है । मस्तिष्क तो जड-सूक्ष्म-पंच-महाभूतो से निर्मित है , यह किसी भी दशा में चेतन हो ही नहीं सकता है । परन्तु जड होते हुये भी मस्तिष्क  चेतनवद्  आचरण करता है । यह प्रत्येक व्यक्ति का नित्य अनुभव है । यह अनुभव ही मस्तिष्क के अज्ञान का आधार है । मस्तिष्क की उपरोक्त वर्णित भ्रान्ति अनुभूति का ही नाम अहंकार लोक-व्यव्हार में विख्यात है । मस्तिष्क उपरोक्त वर्णित चेतन आचरण को अपना मौलिक स्वभाव मानने लगता है , नित्य मानता है , यहाँ तक कि बताने पर भी कि यह भ्रान्ति है , मस्तिष्क उस बताये को सत्य के रूप में स्वीकारता नहीं है । अहंकार व्यक्ति के मस्तिष्क को इतना प्रिय लगता है । ....... क्रमश:

चित्त

पद-परिचय-सोपान      चित्त यह स्मृति संचय का अनुभाग है । प्रत्येक प्रमाण , प्रत्यक्ष द्वारा जिन अनुभव वृत्तियों को मस्तिष्क में लाते हैं , उन वृत्तियों पर यथा अपेक्षा मस्तिष्क कार्य-संचालन भी सम्पादित करता है और साथ ही उन वृत्तियों का भविष्य में प्रयोग हेतु , उनका संचय भी करता है । उपरोक्त वर्णित संचित वृत्तियों को चित्त नाम से जाना जाता है । इस चित्त के आश्रय से ही मस्तिष्क कोई भी अनुभव-ज्ञान प्रक्रिया को सफलता पूर्वक सम्पादित करता है । उपरोक्त कथन की ग्राह्यता के लिये एक दृष्टान्त का आश्रय लेते हैं । व्यक्ति के चित्त में किसी कम्प्यूटर की पूर्व की संचित वृत्ति है । जब भी व्यवहार काल में कम्प्यूटर की कोई वृत्ति चाहे किसी भी प्रमाण यथा चक्षु अथवा कर्ण द्वारा आहरित होती हैं , तत्काल मस्तिष्क तत्-समय आहरित कम्प्यूटर वृत्तियों को , चित्त में संचित कम्प्यूटर वृत्ति के आश्रय से पुष्टि प्राप्त होने पर ही , व्यवहार काल में आहरित वृत्ति को प्रामाणिक मानता है । उपरोक्त वर्णित चित्त वृत्तियों से पुष्टि के आभाव की दशा में तत्-समय आहरित वृत्तियों को मस्तिष्क अस्वीकार करार ...

बुद्धि

पद-परिचय-सोपान     बुद्धि ज्ञान जिज्ञासु के लिये सर्वोच्च प्राथमिकता का प्रभाग है । विवेक अर्थात् उचित-अनुचित की स्पष्ट क्षवि , ग्राह्य-त्याज्य का स्पष्ट रेखांकन है । व्यक्ति जब तक निश्चय-अनिश्चय की स्थिति में है , वह मन के क्षेत्र में है । उपरोक्त के विपरीत जब वह व्यक्ति निश्चयात्मक निर्णय की स्थिति में हो जाता है , वह बुद्धि के क्षेत्र में है । यह दृढ निश्चय का प्रभाग है । व्यक्ति जब निश्चयात्मक कहे कि मुझे ज्ञान ही चाहिये , मुझे अज्ञान नहीं चाहिये है । प्रकाश और अंधकार एक दूसरे के विपरीत स्वभाव के हैं । इनमें से , एक स्थल पर , एक समय में , एक ही रहता है । वही स्थिति ज्ञान और अज्ञान की है । एक ही मस्तिष्क दोनो को पोषित नहीं कर सकता है । यह बुद्धि प्रभाग का संक्षिप्त परिचय है ....... क्रमश:   

मन

पद-परिचय-सोपान       मन मनोवेगों का पोषक प्रभाग है । मनोवेग यथा काम , क्रोध , मोंह , ईर्ष्या , मत्सर , आदि हैं । उपरोक्त कथित मनोवेगों का उदय अहंकार के पोषण से होता है । उपरोक्त कथित मनोवेगों के पोषण के फल से मस्तिष्क अस्थिर होता है । अस्थिरता मस्तिष्क में गति करने वाली वृत्तियों का बाहुल्य होती है । अस्थिर मस्तिष्क ज्ञान जिज्ञासा के लिये अयोग्य होता है । ज्ञान के आभाव में व्यक्ति का जीवन अंधकार में भटकता है ........ क्रमश:

मस्तिष्क

पद-परिचय-सोपान      मस्तिष्क जैसा कि व्यवहारिक जगत् का जीव यह व्यवहारिक व्यक्ति व्यवहार करता है , उसके व्यवहार के आधार पर मस्तिष्क का विश्लेषण करने पर , मस्तिष्क को चार भागो में विभक्त किया जाता है । पहला मन है । यह मनोवेगों का प्रवर्तक खण्ड है । दूसरा बुद्धि है । यह उचित-अनुचित के विवेक का खण्ड है । तीसरा चित्त है । यह स्मृतियों के संचय का खण्ड है । चौथा अहंकार है । यह भ्रान्ति को पोषित करने का खण्ड है । उपरोक्त कथित मस्तिष्क के चार प्रभागों का साधारण विस्तार आगामी चार अंको में , प्रत्येक अंक में एक-एक प्रभाग का परिचय .......क्रमश:

सत्य-आवृत्तक-माया

पद-परिचय-सोपान      सत्य-आवृत्तक-माया सत्य ब्रम्ह सर्व-विभू: है । वह कण-कण में विद्यमान है । प्रत्येक जीव के हृदय में विद्यमान है । परन्तु धन्य यह माया है । इस माया ने उस सत्य ब्रम्ह को ढक दिया है । यह व्यवहारिक जगत् का अहंकार द्वारा पोषित व्यक्ति जीव अपनी स्थूल-चक्षुओं द्वारा उस सत्य ब्रम्ह का दर्शन नहीं पाता है । माया सत्य ब्रम्ह को ढकने के उपरान्त भ्रामक मोहक दृष्यों का दर्शन कराती है । यह माया सृष्टि है । यह माया की एक क्षवि है ....... क्रमश:

सत्य-आवृत्तक-माया

पद-परिचय-सोपान      सत्य-आवृत्तक-माया सत्य ब्रम्ह सर्व-विभू: है । वह कण-कण में विद्यमान है । प्रत्येक जीव के हृदय में विद्यमान है । परन्तु धन्य यह माया है । इस माया ने उस सत्य ब्रम्ह को ढक दिया है । यह व्यवहारिक जगत् का अहंकार द्वारा पोषित व्यक्ति जीव अपनी स्थूल-चक्षुओं द्वारा उस सत्य ब्रम्ह का दर्शन नहीं पाता है । माया सत्य ब्रम्ह को ढकने के उपरान्त भ्रामक मोहक दृष्यों का दर्शन कराती है । यह माया सृष्टि है । यह माया की एक क्षवि है ....... क्रमश:

वृत्ति-प्रक्षेपक-माया

पद-परिचय-सोपान     वृत्ति-प्रक्षेपक-माया मस्तिष्क के अन्दर गति करने वाली सूक्ष्म वृत्तियाँ इन स्थूल चक्षु करण द्वारा देखी नहीं जा सकती हैं । यह मस्तिष्क की कार्य क्षमता का परिसीमन है । उपरोक्त वर्णित सूक्ष्म वृत्तियों को माया प्रक्षेपित करके दृष्टि-गोचर बनाती है । दृष्य-रूप में माया द्वारा प्रक्षेपित वृत्तियाँ जगत् को ज्ञेय हो जाती हैं । इस स्थल पर विषेस ज्ञेय यह है कि , कौन व्यक्ति उपरोक्त कथित प्रक्षेपित वृत्तियों को किस रूप में ग्रहण करता है । उपरोक्त वर्णित प्रक्षेपित वृत्तियाँ मात्र प्रातिभासित सत्य होती हैं । परन्तु व्यवहारिक जगत् का अहंकार को पोषित करने वाला व्यक्ति जीव इन्हे सत्यवद् ग्रहण करता है । इसीलिये वह परिच्छिन्न है । इसीलिये वह त्रासित है । जबकि एक ज्ञानी उपरोक्त कथित प्रक्षेपित वृत्तियों को मात्र प्रातिभासित ग्रहण करता है । इसलिये वह इनसे भ्रमित नहीं होता है । यह माया की एक क्षवि है ....... क्रमश:

अ-व्यक्त-धारक-माया

पद-परिचय-सोपान        अ-व्यक्त-धारक-माया कार्य-जगत् का प्रलय-काल में लय अपने कारण ब्रम्ह में होता है । उपरोक्त वर्णित रूप में , माया इस दृष्य-जगत् का लय-धारक स्थल है । यह दृष्य-जगत् प्रलय-काल में अव्यक्त-दशा में पर्णित होकर माया में समाहित हो जाता है । ब्रम्ह असंग है । ब्रम्ह न ही किसी कार्य का कारण हो सकता है और न ही किसी कारण का कार्य हो सकता है । उपरोक्त वर्णित रूप में , यह माया कार्य-जगत् की अव्यक्त-दशा में धारक होने के रूप में ब्रम्ह की योग-निद्रा-शक्ति है । यह माया की अभिव्यक्ति की एक छवि है ....... क्रमश:

माया

पद-परिचय-सोपान   माया यह बहुत ही व्यापक अर्थ धारक शब्द है । इसका सीधा अर्थ अथवा व्याख्या सम्भव नहीं हो सकती है । यह विविध रूपों में , विविध संदर्भो में उद्घृत की जाती है । उद्घृत किये जाने वाले कुछ एक संदर्भो को अलग अलग शीर्शक में आगे के अंको में प्रस्तुत किया जायेगा जिससे इसकी छवि का बोध सम्भव हो सकता है । ब्रम्ह को शास्त्र निराकार , निर्विकार , असंग उपदेश करते हैं । ऐसे ब्रम्ह का कोई सम्बन्ध इस जगत् के साथ होना सिद्ध नहीं किया जा सकता है । फिर भी यह जगत् ब्रम्ह के आश्रय पर ही लम्बित है । उपरोक्त वर्णित विरोधी स्थितियों की व्याख्या माया है । माया अनिर्वचनीय है । फिरभी माया वह समस्त कर दिखाती है जिसे असम्भव कहा जाता है । ऐसी माया का छवि-बोध आगे के अंको में अलग-अलग रूपों में अवलोकन निवेदित है ...... क्रमश:

सापेक्ष निर्पेक्ष

पद-परिचय-सोपान सापेक्ष निर्पेक्ष जो कुछ भी सापेक्ष है वह किसी अन्य पर आश्रित है । परिवर्तन का आधार ही समय पर लम्बित है । समय सदैव परिवर्तनशील है । इस प्रकार जो कुछ भी सापेक्ष है वह पारमार्थिक सत्य हो ही नहीं सकता है । अद्वैत वेदान्त का विरोध करने वाले दर्शन अनेक विचार लाते हैं , यथा जो बाह्य है वह सत्य है और जो अन्तर्भूत है वह मिथ्या है । कंचिद उपरोक्त कथन का अधार वह स्वप्न को अन्तर्भूत मानते हुये मिथ्या बताते हैं और बाह्य वस्तुरूप जगत् को सत्य बताते हैं । परन्तु उपरोक्त कथन का आधार बाह्य और अन्तर्भूत स्वयं ही सापेक्ष है , क्योंकि किसी भी वस्तु को बाह्य यदि कहा जा रहा है तो किसी के सापेक्ष ही तो वह बाह्य है , इसी प्रकार अन्तर्भूत भी किसी के सापेक्ष ही दूसरा अन्तर है , इसलिये उपरोक्त वर्णित विरोधियों का मत किसी भी प्रकार पारमार्थिक सत्य हो ही नहीं सकता है । पारमार्थिक सत्य निर्पेक्ष ही हो सकता है । जो किसी पर आश्रित नहीं है । इसी विचार के सत्य रहते ही निर्पेक्ष दूसरों को सत्यत्व प्रदान करने वाला होता है । इसीलिये वह अद्वयं है । द्वैत का भाव ही आश्रय पर आधारित है । चिर सत्य मात...

पंच-कोष-विवेक

  पद-परिचय-सोपान                                    पंच-कोष-विवेक व्यक्ति के शरीर-मस्तिष्क-समुदाय में व्यवहृत किये जा रहे चैतन्य के सूक्ष्म-ज्ञान की व्याख्या को ग्राह्य बनाने के लिये पूर्व में शरीर के तीन स्तर नामत: स्थूल-सूक्ष्म-कारण का उल्लेख किया गया था । उपरोक्त विभाजन का एक और भिन्न वर्गीकरण जिसमें उपरोक्त शरीर-मस्तिष्क-समुदाय को पाँच भागों नामत: अन्नमय-कोष , प्राणमय-कोष , मनोमय-कोष , विज्ञानमय-कोष और आनन्दमय-कोष के रूप में किया जाता है । उपरोक्त वर्गीकरण का औचित्य उस स्थल पर स्पष्ट होगा जब इसे व्याख्या-काल में प्रयोग किया जायेगा , वर्तमान में अन्नमय-कोष अर्थात् अन्न-शरीर या स्थूल-शरीर , प्राणमय-कोष अर्थात् पंच-प्राण , मनोमय-कोष अर्थात् मस्तिष्क का “ मन ” नाम से विख्यात् अंश जो कि मस्तिष्क के मनोवेगों का प्रभाग होता है , विज्ञानमय-कोष अर्थात् मस्तिष्क का “ विवेक ” नाम से विख्यात् अंश जो कि मस्तिष्क के निश्चायत्मक निर्णयों का प्रभाग होता है , आनन्दमय-कोष ...

प्रस्थान-त्रय

पद-परिचय-सोपान                                    प्रस्थान-त्रय अद्वैत-वेदान्त के तीन आधार-भूत शास्त्र नामत: उपनिषद , भगवद्गीता और ब्रम्हसूत्र हैं । इनमें तीनो का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है । उपनिषद ग्रन्थ वेदों के ही अंग हैं । वेदों के कुछ अंश को अलग कर उपनिषद के नाम से स्वतन्त्र अलग से विख्यात किया गया है । यह अधिकतर गुरू और शिष्य के मध्य संवाद के रूप में हैं । यह श्लोक रूप में भी हैं और गद्य रूप में भी हैं । जो श्लोक-रूप में हैं उन्हें मन्त्र उपनिषद कहा जाता है , और जो गद्य के रूप में हैं उन्हे ब्राम्हण-उपनिषद कहा जाता है । भगवद्गीता सात सौ श्लोकों का संकलित ग्रन्थ है । इसमें अठ्ठारह अध्याय हैं । इसमें गुरू योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं और शिष्य पार्थ-अर्जुन हैं । यह ग्रन्थ , महाभारत जो कि इतिहास ग्रन्थ है और जिसके रचयिता वेद-व्यास-महर्षि-व्यासाचार्य हैं , के शान्ति पर्व के मध्य से उद्घृत किया गया है । इसे स्मृत-ग्रन्थ कहा जाता है । ब्रम्ह-सूत्र जैसा कि नाम से विदित है ,...

भ्रान्ति

  पद-परिचय-सोपान                                      भ्रान्ति सत्य के अज्ञान से भ्रान्ति का जन्म होता है । किसी भी वस्तु-रूप-ज्ञान के प्रकरण में वस्तु-सत्य के दो भाग हैं , एक सामान्य ज्ञान और दो विषेस ज्ञान , सामान्य ज्ञान वह है कि कोई वस्तु है , विषेस ज्ञान वह है कि वह वस्तु क्या है । यदि उपरोक्त वर्णित विषेस ज्ञान आच्छादित है , केवल सामान्य-ज्ञान प्रत्यक्ष द्वारा विदित है , तो ऐसी दशा में विषेस सत्य-ज्ञान के स्थान पर किसी काल्पनिक अन्य सत्य-रूप का ज्ञान सृजित होता है , जो कि भ्रान्ति ज्ञान होता है । आच्छादित सत्य एक होता है , परन्तु इस आच्छादित सत्य के स्थान पर अनेक भ्रान्ति की कल्पना सम्भव हो सकती है । भ्रान्ति का जन्म सत्य के अज्ञान से होता है , इसलिये भ्रान्ति का निवारण सदैव सत्य के ज्ञान द्वारा सम्भव होती है ..........क्रमश:  

दृग-दृष्य-विवेक

  पद-परिचय-सोपान                                    दृग-दृष्य-विवेक दृष्य जो दृष्टा का लक्ष्य है । दृष्टा जो दृष्य को देखने वाला है । दृष्टा किसी भी दशा में दृष्य नहीं हो सकता है । दृष्य प्रत्येक दशा में दृष्टा से भिन्न ही हो सकता है । दृष्टा एक है । दृष्य अनेक हो सकते हैं । उपरोक्त कथित चार तथ्य मिलकर एक युक्ति का स्वरूप बन जाते हैं । युक्ति अर्थात् एक मानसिक-शोध-विधि है । उपरोक्त युक्ति के प्रयोग द्वारा कतिपय एक में समिश्रित विचारधीन अवयवों को अलग-अलग चिन्हित किया जाता है । इसलिये उपरोक्त वर्णित दृग-दृष्य से सम्बन्धित चार तथ्यात्मक विश्लेषण को दृग-दृष्य-विवेक के नाम से जाना जाता है । उपरोक्त कथित समस्त को ग्राह्य बनाने के लिये एक लघु दृष्टान्त इस प्रकार है – बाह्य जगत् के फैले हुये दृष्य अनेक हैं , दृष्टा आँख एक है (एक व्यक्ति की हैं इसलिये इन्हे एक कहा जा रहा है) । उपरोक्त युक्ति के द्वारा , उपरोक्त दृष्टान्त का शोध करने पर , बाह्य दृष्य और दृष्टा आँखे एक नहीं ह...

अनुमान-प्रमाण

पद-परिचय-सोपान                                    अनुमान-प्रमाण अनुमान को व्यक्त करने के लिये , अनुमान वाक्य में चार अनिवार्य अवयवो का समावेश करना , नियमों की बाध्यता होती है । अवयव एक – पक्ष – पक्ष अर्थात् अनुमान का स्थल जिसके सम्बन्ध में अनुमान को व्यक्त किया जा रहा है । अवयव दो – साध्यम् – साध्यम् अर्थात् अनुमान द्वारा आहरित किया गया निष्कर्ष होता है । अवयव तीन – पक्ष – पक्ष उस लक्षण को कहा जाता हैं जिसके साक्षात् के आधार पर अनुमानित निश्कर्ष को आहरित किया गया है । अवयव चार – दृष्टान्त – दृष्टान्त जो कि साक्षात् पर आधारित होता है , परन्तु अनुमान के प्रकरण से भिन्न किसी अन्य स्थल से सम्बन्धित होता है , जो कि जन-जन को ज्ञात होता है , और जिसमें साध्यम् और पक्ष को एक साथ उपस्थिति अनिवार्य वाँक्षना के रूप में होती है । वैदिक शास्त्रों के अध्ययन में सामान्यतया एक दृष्टान्त अनुमान वाक्य जिसे उद्घृत् किया जाता है , वह इस प्रकार है , “पहाड पर अग्नि है , क्योंकि धूआँ दिखा...

अर्थापत्ति-प्रमाण

पद-परिचय-सोपान                                    अर्थापत्ति-प्रमाण अर्थापत्ति-प्रमाण-निष्कर्श में , निश्कर्ष साक्षात् पर आधारित होता है , परन्तु वह साक्षात् जिसे घटना अवधि में साक्षात् नहीं किया गया होता है , अपितु घटना के फल के आधार पर निश्कर्ष को आहरित किया जाता है । व्यक्ति सुशुप्ति की निद्रा दशा से जागृत होने पर अपने घर की परिसर में बागवानी , अथवा घर के सामने की सडक पर , एकत्रित अथवा विस्तृत-फैले हुये जल को देख कर निश्कर्ष आहरित करता है कि “रात तेज़ वर्षा हुई है” । उपरोक्त दृष्टान्त में व्यक्ति ने वर्षा का साक्षात् नहीं किया है । परन्तु एकत्रित जल अथवा विस्तृत-फिले हुये जल की स्थिति को देख कर , वह रात में तेज़ वर्षा का निश्कर्ष आहरित करता है । उपरोक्त वर्णित रात में तेज़ वर्षा का निश्कर्ष ऐसे साक्षात् पर आधारित है , जिसे कि सुशुप्ति के कारण वह स्वयं साक्षात्-कर्ता नहीं है , अपितु यदि वह सुशुप्ति की दशा में न होकर जागृत दशा में होता तो वह साक्षात्-कर्ता होता , पर...

प्रत्यक्ष-प्रमाण

  पद-परिचय-सोपान                                    प्रत्यक्ष-प्रमाण व्यक्ति के पास बाह्य जगत् के नाम-रूपों का अनुभव-ज्ञान प्राप्त करने के लिये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं । प्रत्येक का क्षेत्र अलग है , यथा चक्षु इन्द्री का क्षेत्र रूप-रंग प्रभाग है , कर्ण-इन्द्री का क्षेत्र ध्वनि प्रभाग है , इसी प्रकार अन्य भी हैं । उपरोक्त वर्णित पाँच ज्ञानेन्द्रियों द्वारा व्यक्ति जो भी अनुभव-ज्ञान बाह्य-जगत् से प्राप्त करता है , उसे प्रत्यक्ष ज्ञान कहा जाता है । ज्ञातव्य है कि अनुभव-ज्ञान प्राप्त करने की अन्य विधियाँ भी होती हैं । परन्तु समस्त विधियों में , प्रत्यक्ष को सर्वाधिक प्रामाणिक माना जाता है ........ क्रमश: