उपासक-उपास्य-द्वैत


पद-परिचय-सोपान    
उपासक-उपास्य-द्वैत ज्ञान-शिक्षण की प्रारम्भिक अवस्था में उपासक-उपास्य द्वैत को वेद भी स्वीकारते हैं । जीव-व्यक्ति-उपासक है । देवता-उपास्य है । स्मरणीय है कि देवता भी उन्नति-कोटि के जीव ही हैं । अत्यधिक-पुण्यवान-जीव देवता हैं । प्रश्न-सृजित होता है कि जीव-उपासक और जीव-उपास्य कैसे वेदों को ग्राह्य है ? उत्तर है कि, यह शिक्षण क्रम है । उन्नति क्रम है । शून्य और अनन्त के मध्य कितनी बडी दूरी है ? उत्तर है, अनन्त पर्यन्त है । वेद-प्रमाण उपरोक्त वर्णित अनन्त की यात्रा को सम्भव बनाते हैं । उपरोक्त वर्णित अनन्त यात्रा का क्रम उत्तरोत्तर-उन्नति-क्रम है । अज्ञानी जीव माया के चंगुल में असहाय प्राणी है । उपरोक्त अज्ञानी जीव को वेद कर्म-काण्ड के शिक्षण द्वारा उसके मस्तिष्क को पवित्र बनाते हैं । पुन: वेद पवित्र-मस्तिष्क वाले अज्ञानी-जीव के मस्तिष्क की क्षमता का विस्तार करते हैं । उपरोक्त वर्णित क्षमता-विस्तार के लिये विभिन्न उपासनाओं का शिक्षण करते हैं । यह उत्तरोत्तर-वृद्धि-क्रम का शिक्षण हैं । ज्ञान चर्मोत्कर्ष स्थिति है । ...... क्रमश:

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