दृग-दृष्य-विवेक
पद-परिचय-सोपान
दृग-दृष्य-विवेक दृष्य जो दृष्टा का लक्ष्य है । दृष्टा जो दृष्य को देखने वाला है ।
दृष्टा किसी भी दशा में दृष्य नहीं हो सकता है । दृष्य प्रत्येक दशा में दृष्टा से
भिन्न ही हो सकता है । दृष्टा एक है । दृष्य अनेक हो सकते हैं । उपरोक्त कथित चार
तथ्य मिलकर एक युक्ति का स्वरूप बन जाते हैं । युक्ति अर्थात् एक मानसिक-शोध-विधि
है । उपरोक्त युक्ति के प्रयोग द्वारा कतिपय एक में समिश्रित विचारधीन अवयवों को
अलग-अलग चिन्हित किया जाता है । इसलिये उपरोक्त वर्णित दृग-दृष्य से सम्बन्धित चार
तथ्यात्मक विश्लेषण को दृग-दृष्य-विवेक के नाम से जाना जाता है । उपरोक्त कथित
समस्त को ग्राह्य बनाने के लिये एक लघु दृष्टान्त इस प्रकार है – बाह्य जगत् के
फैले हुये दृष्य अनेक हैं, दृष्टा आँख एक है (एक व्यक्ति की हैं
इसलिये इन्हे एक कहा जा रहा है) । उपरोक्त युक्ति के द्वारा, उपरोक्त दृष्टान्त
का शोध करने पर, बाह्य दृष्य और दृष्टा आँखे एक नहीं हो
सकते हैं । शोध का चरण दो, बाह्य जगत् के अनुभवों को आहरित करने के लिये व्यक्ति के पास पाँच
ज्ञानेन्द्रियाँ है । परन्तु पाँचो ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा आहरित किये गये अनुभव
का भोक्ता, मस्तिष्क एक है । उपरोक्त युक्ति के
प्रमण से निश्कर्ष निकलता है कि ज्ञानेन्द्रियाँ और मस्तिष्क एक नहीं हो सकते हैं
। शोध का चरण तीन, मस्तिष्क में गति करने वाले विचार-वृत्तियाँ अनेक होती हैं । उपरोक्त वर्णित
मस्तिष्क में गति करने वाली की वृत्तियों का साक्षी “मैं” एक है । उपरोक्त
युक्ति के प्रमण से निश्कर्ष निकलता है कि यह “मैं” और मस्तिष्क एक नही
सकते हैं । उपरोक्त कथित “मैं” ही व्यक्ति की आत्मा है । व्यक्ति का सत्य स्वरूप है
........ क्रमश:
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