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विज्ञानात्मा

माया-कल्पित-जगत्-सोपान विज्ञानात्मा जीवात्मा , को ही शास्त्रों में विज्ञानात्मा कहा जाता है । चिदाभास द्वारा पोषित जीव की जीवात्मा विज्ञानात्मा है । उपाधियुक्त आत्मा जीवात्मा है । आत्मा एक है जो कि निराकार है , असंग है , अनन्त है , सर्व-विभू: है । परन्तु अज्ञान के फल से जब उपरोक्त कथित सर्व-विभू: आत्मा को , अहंकार से अलंकृत किसी स्थूल-सूक्ष्म-शरीर विषेस के गुण-धर्मों के साथ जोडा जाता है , तब जीवात्मा शब्द का प्रादुर्भाव होता है । ..... क्रमश:

चिदाभास

माया-कल्पित-जगत्-सोपान चिदाभास स्थूल-सूक्ष्म-शरीर के अंत:करण में परिलक्षित होने वाला चैतन्य अहंकार है । उपाधियुक्त आत्मा जीवात्मा है । आत्मा एक है जो कि निराकार है , असंग है , अनन्त है , सर्व-विभू: है । परन्तु अज्ञान के फल से जब उपरोक्त कथित सर्व-विभू: आत्मा को , अहंकार से अलंकृत किसी स्थूल-सूक्ष्म-शरीर विषेस के गुण-धर्मों के साथ जोडा जाता है , तब जीवात्मा शब्द का प्रादुर्भाव होता है । शास्त्रों में अहंकार जिसकी परिभाषा उपरोक्त वर्णित है , को चिदाभास शब्द द्वारा व्यक्त किया गया है । ...... क्रमश:  

जीव

माया-कल्पित-जगत्-सोपान जीव ज्ञानेन्द्रिया के पीछे अनुभव करने वाला , तथा कर्मेन्द्रियों के पीछे कार्म करने वाला चिदाभास-युक्त चेतन पुरुष जीव है | जीव दृष्टा , स्प्रष्टा , श्रोता , घ्राता तथा रसयिता है । जीव कर्ता है । जीव मनन-कर्ता है । जीव स्मरण कर्ता है । मनुष्य-जीव विवेक कर्ता भी है । जीव अहंकार कर्ता है । जीव धर्म-पुरुषार्थ कर्ता है । जीव अर्थ-पुरुषार्थ कर्ता है । जीव काम-पुरुषार्थ कर्ता है । जीव मोक्ष-पुरुषार्थ कर्ता है । ..... क्रमश:  

समष्टि-स्थूल-विराट

माया-कल्पित-जगत्-सोपान समष्टि-स्थूल-विराट उपनिषदों में ईश्वर के तपस का वर्णन है । ईश्वर का तपस , सूक्ष्म का मानसिक योजन है , जगत् के स्वरूप का पूर्व-नियोजन है । उपरोक्त कथित जगत् के पूर्व-नियोजित स्वरूप को , माया शक्ति अनुभवगम्य जगत् के स्थूल-रूप में प्रक्षेपित करती है । सूक्ष्म से स्थूल अस्तित्वमान होता है । सूक्ष्म-हिरण्यगर्भ से स्थूल-विराट प्रगट होता है । समस्त दृष्य अनुभवगम्य जगत् के सकल-जड-प्रपंच और सम्पूर्ण-जीव-प्रपंच विराट-देवता के नाम से प्रख्यात हैं । ....... क्रमश:   

समष्टि-प्राण-हिरण्यगर्भ

माया-कल्पित-जगत्-सोपान समष्टि-प्राण-हिरण्यगर्भ समष्टि प्राण अर्थात् सम्पूर्ण जगत् के समस्त जीव प्रपंचों की संकलित जीवन-शक्ति , हिरण्यगर्भ हैं । कारण-ईश्वर-विष्णु पुरुष की छाया सदृष्य उत्पत्ति हिरण्यगर्भ-देवता हैं । उपरोक्त कथित शास्त्र उपदेश की व्याख्या इस प्रकार है । कारण-ईश्वर के संकल्प मात्र से माया शक्ति क्रियाशील होकर कारण की छाया प्राण का प्रक्षेपण उपस्थित करती है । संकलित-संचित-कर्म-फल-कारण की छाया अभिव्यक्ति प्राण-शक्ति है । उपरोक्त कथित प्राण का अन्त:करण मन अर्थात् संकल्प-विकल्पात्मक-वृत्ति-स्थल , कारण-संचित-कर्म-फल का साकार-व्यक्त-अभिव्यक्ति है । उपरोक्त कथित हिरण्यगर्भ पिण्ड को माया-शक्ति प्रातिभासित चैतन्य जिसे शास्त्र चिदाभास शब्द द्वारा व्यक्त करते है , द्वारा क्रियाशील करती है । ...... क्रमश:   

समष्टि-कारण-विष्णु

माया-कल्पित-जगत्-सोपान समष्टि-कारण-विष्णु समष्टि कारण अर्थात् सम्पूर्ण जगत् के समस्त जीव प्रपंचों के संकलित सम्पूर्ण संचित कर्म-फल , समाहित दशा में अर्थात् अ-व्यक्त-दशा में , समष्टि-कारण-देवता-विष्णु में अर्थात् माया सहित ब्रम्ह में विद्यमान रहते है । उपरोक्त वर्णित स्थिति जगत् के लय काल की क्षवि है । उपरोक्त विवरण में विषेस ज्ञातव्य है कि संकलित सम्पूर्ण संचित कर्म-फल की धारक माया शक्ति होती है । उपरोक्त कथित रूप में माया शक्ति जगत्-वृक्ष का बीज़ है । ..... क्रमश:  

अन्त:करण लय कारण अवस्था

माया-कल्पित-जगत्-सोपान अन्त:करण लय कारण अवस्था सुशुप्ति काल अवधि में , व्यक्ति के मस्तिष्क का चारो प्रभाग , नामत: संकल्प-वृत्ति-प्रभाग अर्थात् मन , निश्चयात्म-वृत्ति-प्रभाग अर्थात् बुद्धि , चित्त-प्रभाग अर्थात् स्मृति-संचय-स्थल , एवं अहंकार प्रभाग , सभी अ-कार्यकारी दशा में , लय की स्थिति-प्राप्त को होते हैं । उपरोक्त कथित दशा में समस्त विषेस-ज्ञान , निर्विषेस-ज्ञान में , लय की दशा में अर्थात् समाहित दशा में रहते हैं । उपरोक्त-कथित् मस्तिष्क की लय की दशा ही कारण-दशा होती है । उपरोक्त कथित विवरण अनुसार , व्यक्ति का जागृत-दशा का मस्तिष्क ही , सुशुप्ति-दशा में , कारण-दशा होता है । उपरोक्त कथित का विलोम अर्थात् व्यक्ति की कारण-दशा ही पर्णित होकर जागृत-दशा का मस्तिष्क होता है । ज्ञातव्य है कि कारण-शरीर अर्थात् संचित-कर्म-फल , प्रत्येक व्यक्ति का , प्रत्येक जीव का , भिन्न होता है , इसीलिये प्रत्येक व्यक्ति का मस्तिष्क भिन्न होता है , स्वभाव भिन्न होता है । यह माया-कल्पित-जगत् अति-विलक्षण माया-विज्ञान का फल है । ....... क्रमश:  

जीव का स्वरूप

माया-कल्पित-जगत्-सोपान जीव का स्वरूप जीव का परिचय उसका चिदाभास चैतन्य होता है । जीव का आधार उसका प्राण है । जीव की आत्मा पारमार्थिक सत्य है । चिदाभास चैतन्य लोकव्यवहार का आधार है । समस्त गति का संचालन प्राण-शक्ति से है । जीव अपने आत्म-स्वरूप से अनभिज्ञ है । अनभिज्ञता माया की महिमा है । अनन्त ब्रम्ह को , एक सीमित स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीर की सीमा में बँधा चैतन्य अनुभव करना जानना , और तद्नुसार लोकव्यवहार करना , यह अज्ञान का जीवन है । अनन्त आत्मा को अपने स्वरूप का परिचय जानना और तद्नुसार जीवन यापन करना ज्ञान की दशा है । ....... क्रमश:    

पारमार्थिक त्रिकुटी अतीत

माया-कल्पित-जगत्-सोपान पारमार्थिक त्रिकुटी अतीत त्रिकुटी अर्थात् प्रमाता-प्रमाण-प्रमेय , तथा कर्ता-करण-कर्म पर्यन्त माया-कल्पित-जगत् है । यह सापेक्ष लोक है । आत्यान्तिक सापेक्ष की सीमा से विलक्षण है । जब तक व्यक्ति उस पारलौकिक सत्ता को जानने की चेष्टा करता है , तब तक वह त्रिकुटी के क्षेत्र में है , मायालोक में है । पारमार्थिक सापेक्ष का लय स्थल है । सापेक्ष के अधिकरण में रहते हुये निर्पेक्ष का ज्ञान अ-सम्भव है । इसलिये ही पारमार्थिक सत्य का ज्ञान गूढ है । लय हो जाने के बाद प्रमाता ही नहीं रह गया तो ज्ञान किसको होगा ? ऐसा ज्ञान एक रूप में सम्भव है कि कोई ज्ञाता उसे बता दे , तो शास्त्र उपदेश करते हैं कि वह आप स्वयं हैं , तत् त्वम् असि यह शास्त्र उपदेश गुरु बताता है । अहंकार से व्यतिरिक्त आपका चैतन्य , जो आपका स्वरूप है , आप स्वयं वह विलक्षण आत्यान्तिक सत्य हैं । उपरोक्त ज्ञान- बोध प्रमाता बन कर नही सम्भव है , अपितु स्वयं ज्ञान-स्वरूप आत्मा में प्रतिष्ठित होना ही , ज्ञान-स्वरूप ही ज्ञान-बोध होता है । यह अहम् ब्रम्हास्मि की स्थिति है , जिसे शिष्य उपरोक्त कथित गुरु उपदेश ...

मस्तिष्क केन्द्र

माया-कल्पित-जगत्-सोपान मस्तिष्क केन्द्र मस्तिष्क माया-कल्पित-जगत् का अवयव है । मस्तिष्क में ही चिदाभास चैतन्य प्रतिबिम्बित होता है । चिदाभास चैतन्य ही अहंकार है । अहंकार ही अज्ञान है । उपरोक्त तथ्यों के होते हुये भी , ज्ञान सम्भावना भी मस्तिष्क में ही सम्भव होती है । उपरोक्त वर्णित तथ्यात्मक स्थिति और ज्ञान सम्भावना के कारण ही मस्तिष्क ही केन्द्र है । व्यक्ति को अहंकार जन्म से मिलता है । ज्ञान व्यक्ति को विवेक के सम्बल से तपस द्वारा प्राप्त करने पर ही सम्भव हो सकता है । उपरोक्त वर्णित विवरण से स्पष्ट है कि , ज्ञान प्राप्ति के विचार में मस्तिष्क के संस्कार सर्वाधिक महत्वपूर्ण होते है । ....... क्रमश:

विषय वस्तु आश्रय

माया-कल्पित-जगत्-सोपान विषय वस्तु आश्रय भोक्ता जीव और भोज्य जगत् दोनों का आश्रय ब्रम्ह है । भोक्ता जीव और भोज्य जगत् दोनों का लय ब्रम्ह में होता है । भोक्ता जीव और भोज्य जगत् दोनों का सृजन माया शक्ति द्वारा सम्भव हुआ है । जीव प्रतिदिन सुशुप्ति दशा में लय की स्थिति का भोग करता है । यह अद्वैत की स्थिति होती है । इसीलिये आनन्द की स्थिति है । पुन: जागृत दशा की पुनर्स्थापना पर , विषय वस्तु द्वैत और लोकव्यवहार उपस्थित हो जाता है । यह माया-कल्पित-जगत् का स्वरूप है । ....... क्रमश:  

अनिर्वचनीय

माया-कल्पित-जगत्-सोपान अनिर्वचनीय जो कि अनुभवगम्य है , परन्तु सत्यता के परीक्षण में सत्य प्रमाणित नहीं होता है , उसे शास्त्रों में अनिर्वचनीय कहा जाता है । व्यक्ति की छाया अनुभवगम्य होती है , परन्तु छाया का अस्तित्व पुरुष और प्रकाश के आश्रय पर होने के कारण , सत्य प्रमाणित नहीं होती है , इसलिये छाया अनिर्वचनीय है । पद होता है , परन्तु उस पद का पदार्थ नही पाया जाता है , उसे अनिर्वचनीय कहा जाता है । शास्तो में इस जगत् को अनिर्वचनीय बताया गया है , माया को अनिर्वचनीय बताया गया है । प्रत्येक की अनिर्वचनीयता की व्याख्या भिन्न प्रकार से की जाती है । गगनफूल , बन्ध्यापुत्र आदि अन्य उदाहरण हैं । ...... क्रमश:

सर्व गन्तव्य:

माया-कल्पित-जगत्-सोपान सर्व गन्तव्य: दृष्य अनुभवगम्य जगत् के समस्त अवयव घटकों का अन्तिम गन्तव्य स्थिति , लय की दशा होती है । दृष्य अनुभवगम्य जगत् के समस्त जीव प्रपंच का मस्तिष्क नित्य-प्रतिदिन लय की दशा को प्राप्त होता है । उपरोक्त कथित तथ्यात्मक अभिव्यक्ति को , सूर्य के उदय और अस्त के दृष्टान्त द्वारा व्यक्त किया जाता है । जिस प्रकार प्रतिदिन सूर्य देवता अस्त की प्रक्रिया में , अपनी रश्मियों को संकलित कर अस्तगत होते हैं , जो कि रात्रि के रूप में पर्णय है , और पुन: प्रात:काल सूर्योदय के काल में वही सूर्यदेवता अपनी रश्मियों को विस्तृत करते हैं , जो कि दिवा-काल का विमोचन है । लय की दशा में मस्तिष्क , ब्रम्ह में समाहित हो जाता है । पुन: जागृत-दशा की स्थाप्ना पर , मस्तिष्क लोक-व्यवहार के लिये उपलब्ध हो जाता है । ..... क्रमश:  

स्थूल-भूत तन्मात्रा

माया-कल्पित-जगत्-सोपान स्थूल-भूत तन्मात्रा शास्त्रों में “सर्व” शब्द की व्याख्या करते हुये , स्थूल-भूत का नाम लाने पर उसकी तन्मात्रा को भी साथ-साथ व्यक्त करना होता है । उपरोक्त कथन का विस्तार इस प्रकार है । पंच-महाभूत नामत: आकाश , वायु , आपा , जल , पृथ्वी हैं । स्थूल-पंच-महाभूत के सृजन के प्रकरण में उनका विस्तार बताते हुये उपदेश किया गया था कि , प्रत्येक स्थूल में आधा भाग स्वयं उनका है और शेस आधे में एक बटा आठ भाग प्रत्येक अन्य चार का है । उपरोक्त कथित रूप में स्थूल-पंच-महाभूत शुद्ध रूप नहीं हैं , अपितु योग हैं । जबकि तन्मात्रा उन्ही के शुद्ध रूप को कहा जाता है । उपरोक्त वर्णित अनुसार तन्मात्रा अर्थात् सूक्ष्म-पंच-महाभूत को कहा जाता है । ....... क्रमश:  

स्वप्न वासना प्रक्षेपण

माया-कल्पित-जगत्-सोपान स्वप्न वासना प्रक्षेपण व्यक्ति का स्वप्न , केवल मस्तिष्क के संचित वासना वृत्तियों पर्यन्त ही सम्भव होता है । व्यक्ति जागृत दशा में जिन अनुभवों को अर्जित करता है , वह सभी व्यक्ति के मस्तिष्क के “चित्त” प्रभाग की नाडियों में वासना के रूप में संचित रहता है । स्वप्न-काल में , उपरोक्त कथित संचित वासना वृत्तियों को ही , व्यक्ति का मस्तिष्क स्वप्न-दृष्य के रूप में प्रक्षेपित करता है । विषेस ज्ञातव्य है कि व्यक्ति किसी स्वप्न-अवधि-विषेस में किसी ऐसे स्वप्न-दृष्य को भी देखता है ,   जिसे कि उसने कंचिद कभी भी अपनी जागृत-दशा में नहीं देखा है , तो ऐसे स्वप्न-दृष्यों का संचय उसके पूर्व के जन्मों का होता है , क्योंकि व्यक्ति का सूक्ष्म-शरीर जन्मो की सीमा से बाधित नहीं होता है । ज्ञातव्य है कि स्वप्न दृष्य प्रातिभासित सत्य श्रेणी के होते हैं । ज्ञातव्य है कि यह माया-कल्पित-जगत् भी जगत्-कारण-विष्णु का स्वप्न-दृष्य मात्र है , जिसे माया शक्ति प्रक्षेपित करती है , जिसे आत्मज्ञानी प्रातिभासित सत्य कहता है , परन्तु माया-लोक-व्यवहाररत् जीव-रूप-व्यक्ति के लिये व्यवहार...

स्वप्न-दृष्टा कर्ता

माया-कल्पित-जगत्-सोपान स्वप्न-दृष्टा कर्ता व्यक्त का मस्तिष्क ही स्वप्न का प्रक्षेपण भी करता है , प्रक्षेपित स्वप्न का दृष्टा भी होता है । विषेस ज्ञातव्य है कि स्वप्न-काल में स्वप्न-दृष्टा-व्यक्ति-शरीर भी जागृत-दशा के व्यक्ति-शरीर से विलक्षण होता है , क्योंकि जागृत-दशा का शरीर तो लय की दशा में बिस्तर पर लेटा है । उपरोक्त कथित विवरण और तर्क के आधार पर यह विदित होता है कि , व्यक्ति के मस्तिष्क में वह सभी क्षमता विद्यमान है जो कि माया-शक्ति में है । स्वप्नकाल में स्वप्न-दृष्टा , जागृत-दशा में देखी गई , सुनी गई , अनुभव की गई , वासना वृत्तियों को , पुन: साक्षात् करता है । ..... क्रमश:  

मस्तिष्क महिमा

माया-कल्पित-जगत्-सोपान मस्तिष्क महिमा व्यक्ति के स्वप्नकाल में , व्यक्ति का मस्तिष्क स्वप्न को प्रक्षेपित करता है । स्वप्न को प्रक्षेपित करने की प्रक्रिया में मस्तिष्क विषय और वस्तु दोनो के रूप में अपने को प्रस्तुत करता है । उपरोक्त कथित स्वप्न का दृष्टा भी अनुभवकर्ता भी मस्तिष्क ही होता है । उपरोक्त कथित स्वप्न दृष्य और अनुभव को मस्तिष्क बिना किसी इन्द्री के अवलम्ब के सीधे अपनी शक्ति द्वारा ग्रहण करता है । स्वप्न-दृष्यों की सीमा , जागृत दशा के अवधि में देखे गये दृष्य होते हैं । उपरोक्त वर्णित परिसीमन में प्रयुक्त शब्द “दृष्य” को सर्व पांच ज्ञानेन्द्री के विषय के रूप में ग्रहण करना अपेक्षित है । ....... क्रमश:  

माया महिमा

माया-कल्पित-जगत्-सोपान माया महिमा माया शक्ति निराकार , निर्विकार , असंग ब्रम्ह को विषय और वस्तु के रूप में , इस दृष्य अनुभवगम्य जगत् के रूप में प्रक्षेपित करती है । उपरोक्त कथित ब्रम्ह इस जगत् के रूप में दृष्य और अनुभवगम्य हो जाता है । अनुभवकर्ता भी उपरोक्त कथित ब्रम्ह ही होता है । परन्तु उपरोक्त कथित जगत् का विषय अर्थात् अनुभवकर्ता तथा वस्तु अर्थात् नाम-रूप जगत् दोनो ही एक दूसरे को सत्यवद् व्यवहृत करते हैं , जबकि उपरोक्त कथित विषय-वस्तु दोनो ही आश्रित अस्तित्व हैं , और विडम्बना का चर्मोत्कर्श इस तथ्य में होता है कि उपरोक्त कथित विषय-वस्तु दोनो ही अपने अस्तित्व के सत्य आलम्बन से पूर्णतया अनभिज्ञ होते हैं । ....... क्रमश:   

त्रिकुटी पर्यन्त मायालोक

माया-कल्पित-जगत्-सोपान त्रिकुटी पर्यन्त मायालोक प्रमाता-प्रमाण-प्रमेय , कर्ता-करण-कर्म त्रिकुटियाँ माया-कल्पित-लोक का स्वरूप भी है , सीमा भी है । प्रमाता और कर्ता , विषेस-चैतन्य अर्थात् एक स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीर विषेस में परिलक्षित होने वाला चैतन्य , अर्थात् एक अहंकार का अवयव , माया-कल्पित-लोक का अंग है । प्रमाण और करण , दोनो ही स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीर की क्रमश: ज्ञानेन्द्री व कर्मेन्द्री माया-कल्पित-लोक का अवयव है । प्रमेय और कर्म यह माया-लोक है । माया-लोक का समस्त लोक-व्यवहार उपरोक्त वर्णित त्रिकुटी द्वारा ही सम्पन्न हो रहा है । उपरोक्त कथित रूप में त्रिकुटी ही माया-लोक की सीमा है । ...... क्रमश:

सुशुप्ति का भोक्ता

माया-कल्पित-जगत्-सोपान सुशुप्ति का भोक्ता सुशुप्ति काल में मस्तिष्क कारण अवस्था में होता है । ज्ञातव्य है कि मस्तिष्क की विषेस अवस्था लय की दशा में है । मस्तिष्क निर्विषेस दशा में है । यह दशा ही कारण दशा होती है । चैतन्य व्याप्त कारण-दशा का मस्तिष्क सुशुप्ति का भोक्ता होता है । यह आनन्द की दशा है । ज्ञातव्य है कि समस्त सांसारिक त्रास मस्तिष्क की विषेस दशा द्वारा होती है । ...... क्रमश:    

मस्तिष्क ही त्रिकुटी

माया-कल्पित-जगत्-सोपान मस्तिष्क ही त्रिकुटी स्वप्न-काल में मस्तिष्क , मस्तिष्क में संचित वासना वृत्तियों को , स्वयं प्रक्षेपित भी करता है , प्रक्षेपित वृत्तियों को स्वयं ही अनुभव भी करता है । स्मरणीय है कि स्वप्न-काल में इन्द्रियाँ लय की दशा में होती है , इसलिये मस्तिष्क की स्वप्न-काल की अनुभूतियाँ स्वयं अपने द्वारा , जो कि इन्द्रीय प्रत्यक्ष से नहीं है , होती हैं । उपरोक्त वर्णन के अनुसार , स्वप्न-काल में मस्तिष्क स्वयं ही प्रमाता-प्रमाण-प्रमेय तीनो होता है । ...... क्रमश:   

अज्ञान सहित ब्रम्ह

माया-कल्पित-जगत्-सोपान अज्ञान सहित ब्रम्ह सुशुप्ति काल में मस्तिष्क लय की दशा में रहता है । लय काल में मस्तिष्क ब्रम्ह में समाहित दशा में होता है । परन्तु मस्तिष्क को यह ज्ञान नहीं होता है कि वह ब्रम्ह के साथ ऐक्यं की दशा में है । परन्तु उपरोक्त कथित अज्ञान के होते हुये भी वह ब्रम्हानन्द का भोग करता है । ज्ञातव्य है कि सुशुप्ति काल में प्रत्येक व्यक्ति द्वारा अनुभव किया जाने वाला आनन्द ब्रहानन्द होता है क्योंकि मस्तिष्क विषयों से परे होता है । ...... क्रमश:   

स्वप्न काल

माया-कल्पित-जगत्-सोपान स्वप्न काल स्वप्न-काल में मनुष्य के पंच प्राण कार्यकारी दशा में रहते हैं । स्वप्न-काल में व्यक्ति की समस्त दस इन्द्रियाँ लय की दशा में रहती है इसलिये व्यवहार के लिये उपलब्ध नहीं रहते हैं । स्वप्न-काल में व्यक्ति के मस्तिष्क के दो प्रभाग नामत: चित्त और मन कार्यकारी दशा में होता है । स्वप्न-काल में चूँकि इन्द्रियाँ व्यवहार के लिये उपलब्ध नहीं होती है इसलिये कार्यकारी मस्तिष्क अपने संचय की वासना वृत्तियों के साथ व्यवहार करता है । ज्ञातव्य है कि , वासना वृत्तियाँ अर्थात् जागृत दशा में दृष्य और श्रोत कर्ण के माध्यम् से अनुभव की गई एवं संचित वृत्तियों , को कहा जाता है । ..... क्रमश:

सुशुप्ति काल

माया-कल्पित-जगत्-सोपान सुशुप्ति काल मस्तिष्क तीन अवस्थाओं का भोग करता है । जागृत काल , स्वप्न काल , सुशुप्ति काल यह तीन अवधियाँ है , जिनमें मस्तिष्क उपरोक्त कथित तीन अवस्थाओं का भोग करता है । सुशुप्ति काल में जीव की समस्त पांच कर्मेन्द्रियाँ तथा पांच ज्ञानेन्द्रियाँ लय की दशा में रहती हैं । इसलिये सुशुप्ति काल में सभी दस इन्द्रियाँ व्यवहार के लिये उपलब्ध नहीं रहती हैं । सुशुप्ति काल में पंच प्राण कार्यकारी दशा में रहते हैं । मस्तिष्क लय की दशा में रहता है । ...... क्रमश:

मस्तिष्क चिदाभास

माया-कल्पित-जगत्-सोपान मस्तिष्क चिदाभास मस्तिष्क यद्यपि कि जड वस्तु है , परन्तु माया-शक्ति के विज्ञान के फल से , मस्तिष्क की रचनागत गुणवत्ता है कि चैतन्य सर्व विभू: आत्मा के वेध के फल से , चिदाभास चैतन्य रूप में , चेतनवद् व्यवहार रत हो जाता है । मस्तिष्क का उपरोक्त कथित चिदाभास चैतन्य , माया -कल्पित विज्ञान के फल से , मस्तिष्क से समस्त दस इन्द्रियों में भी संचरित होता है , जिसके फल से , समस्त इन्द्रियां भी गति-युक्त होकर व्यवहार रत हो जाती हैं । ...... क्रमश:

प्राण उपासना

माया-कल्पित-जगत्-सोपान प्राण उपासना जो व्यक्ति प्राण को उसकी महिमा सहित , प्राण की उत्पत्ति , प्राण शरीर में कैसे प्रवेष करता है , प्राण शरीर के किन भागों में रहता है , वह अपने को कैसे पंच प्राण के रूप में वितरित करता है , वह कैसे आध्यात्म को पोषित करता है , वह कैसे अधिभूत को पोषित करता है , जानता है और उसकी उपासना करता है उसके पुत्रों की अपमृत्यु नहीं होती है और वे दीर्घाआयु का भोग करते हैं , यह इहलोक फल होगा और मृत्यु-उपरान्त वह शुक्लगति द्वारा ब्रम्हलोक को जाता है जो कि आपेक्षिक मुक्ति है और वह क्रममुक्ति द्वारा आत्यान्तिक मुक्ति पाता है , ऐसा फलश्रुति वर्णन शास्त्रों में उपदेश है । ....... क्रमश:

उपशान्त तेज:

माया-कल्पित-जगत्-सोपान उपशान्त तेज: मृत्यु के कगार पर , उदान-वायु जीवन-तत्व-प्राण को उडा ले जाती है , अन्तरण काल में प्राण-अपान-समान-व्यान उदान में लय दशा में रहते हैं , अन्त:करण मन में इन्द्रियां लय दशा में समाहित रहते हैं , चिदाभास-चैतन्य रूप जीवात्मा और मन के संकल्प भी अन्तरित होते हैं , यात्रा का लोक यथा संकल्प होता है । पुन: प्राण को दूसरी नयी स्थूल-शरीर पोषण के लिये मिलती है । ...... क्रमश:

प्राण अध्यात्म पोषक

माया-कल्पित-जगत्-सोपान प्राण अध्यात्म पोषक पंच-प्राण रूप में प्राण स्थूल-शरीर को पोषित करता है । प्राण जीव की चक्छु , कर्ण , नासिका और जिह्वा को पोषित करती है , अपान जीव के विसर्जन अंगो को पोषित करती है , समान जीव के पाचन-संस्थान को पोषित करती है , व्यान जीव के शरीर में समस्त संचार को पोषित करती है , और उदान मृत्यु के समय प्राण को वर्तमान स्थूल-शरीर से विसर्जन को पोषित करती है । ...... क्रमश:

प्राण अधिभूत पोषक

माया-कल्पित-जगत्-सोपान प्राण अधिभूत पोषक व्यष्टि सदैव समष्टि से पोषित होता है । अधिभूत में पंच-प्राण की अभिव्यक्ति प्राण = आदित्य देवता , अपान = पृथ्वी-देवता , समान = अन्तराकाश: , अन्तरिक्ष , व्यान = वायु-देवता , उदान = अग्नि-देवता , तेज: , के रूप में शास्त्रो में बतायी गयी है । व्यष्टि की चक्छु सूर्य के प्रकाश के प्रसाद द्वारा ही कार्य करने में सक्षम होती है । अपान रूप में पृथ्वी-देवता सभी जीव को पृथ्वी के साथ सम्बद्ध रखती है । उदान के रूप में अग्नि-देवता अधिभूत को पोषित करती है । ..... क्रमश:  

प्राण विसर्जन

माया-कल्पित-जगत्-सोपान प्राण विसर्जन उदान-प्राण का देश शरीर का ऊर्ध्व भाग बताया गया है । उदान-प्राण का दायित्व जीवन-काल में ommiting आदि है , मुख्य कार्य मृत्यु के समय प्राण को शरीर से बाहर निकालने का होता है । मृत्यु के समय अपान , समा न , व्यान , प्राण सभी उदान में लय कर जाते है , जिन्हे ऊर्ध्व देशस्थ उदान-प्राण ले जाता है , कहाँ ले जाता है ? पुण्य-पाप के अनुसार पुण्य-लोक अथवा पाप-लोक में ले जाता है , समन्वित पुण्य-पाप होने पर मनुष्य-लोक को ले जाता है । ..... क्रमश: