पारमार्थिक त्रिकुटी अतीत


माया-कल्पित-जगत्-सोपान
पारमार्थिक त्रिकुटी अतीत त्रिकुटी अर्थात् प्रमाता-प्रमाण-प्रमेय, तथा कर्ता-करण-कर्म पर्यन्त माया-कल्पित-जगत् है । यह सापेक्ष लोक है । आत्यान्तिक सापेक्ष की सीमा से विलक्षण है । जब तक व्यक्ति उस पारलौकिक सत्ता को जानने की चेष्टा करता है, तब तक वह त्रिकुटी के क्षेत्र में है, मायालोक में है । पारमार्थिक सापेक्ष का लय स्थल है । सापेक्ष के अधिकरण में रहते हुये निर्पेक्ष का ज्ञान अ-सम्भव है । इसलिये ही पारमार्थिक सत्य का ज्ञान गूढ है । लय हो जाने के बाद प्रमाता ही नहीं रह गया तो ज्ञान किसको होगा ? ऐसा ज्ञान एक रूप में सम्भव है कि कोई ज्ञाता उसे बता दे, तो शास्त्र उपदेश करते हैं कि वह आप स्वयं हैं, तत् त्वम् असि यह शास्त्र उपदेश गुरु बताता है । अहंकार से व्यतिरिक्त आपका चैतन्य, जो आपका स्वरूप है, आप स्वयं वह विलक्षण आत्यान्तिक सत्य हैं । उपरोक्त ज्ञान- बोध प्रमाता बन कर नही सम्भव है, अपितु स्वयं ज्ञान-स्वरूप आत्मा में प्रतिष्ठित होना ही, ज्ञान-स्वरूप ही ज्ञान-बोध होता है । यह अहम् ब्रम्हास्मि की स्थिति है, जिसे शिष्य उपरोक्त कथित गुरु उपदेश को ग्रहण करता है । उपरोक्त सार अभिव्यक्ति की अधिक विस्तारयुक्त व्याख्या आगे आने वाले शिक्षण-विधि-सोपान में की जायेगी, वर्तमान में तो इतना ही जान ले कि, लोक-व्यवहार का जीवन मात्र एक भ्रान्ति है । ........ क्रमश:

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