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शक्ति क्षेत्र

माया-कल्पित-जगत्-सोपान शक्ति क्षेत्र शास्त्रों में प्राण का स्थूल शरीर में निवास हृदय में बताया गया है । प्राण अन्त:-करणों का धारक होने के कारण , चिदाभास चैतन्य का निवास हृदय-गोलकं में है । प्राण चक्छु , कर्ण और नासिका के शक्ति वाँक्षना की पूर्ति स्वयं करता है । दो चक्छु , दो कर्ण , दो नासिका रन्ध्र एवं एक जिह्वा कुल योग सात द्वारों से स्थूल शरीर को मिलने वाले अनुभव-पोषणों को वैशानर-अग्नि जो कि शरीर के पाचन का आधार होती है , की सप्त-ज्वाला बताया गया है । समान-प्राण उपरोक्त कथित सप्त-ज्वाला के पोषण को सम्पूर्ण शरीर में वितरित करने का प्रभाग है । उपरोक्त वितरण से सप्तांग क्रियाशील होते हैं । अपान-प्राण विसर्जन का नियंत्रक होता है । विसर्जन मुख्यत: उपस्थ एवं पायु से होते हैं । व्यान-प्राण सम्पूर्ण शरीर में नाडियों के मार्ग से गति करता है और नाडियों का प्रारम्भ हृदय से होता है । उदान-प्राण प्राण विसर्जन के समय क्रियाशील होकर प्राण को स्थूल शरीर से सुशुम्ना नाडी से बाहर निकालता है । ...... क्रमश:     

प्राण शक्ति वितरण

माया-कल्पित-जगत्-सोपान प्राण शक्ति वितरण प्राण द्वारा अपनी सहयोगी शक्तियों अपान , समान , व्यान , और उदान को शक्ति वितरण उसी प्रकार किया जाता है जिस प्रकार सम्राट अपने अधिकारों को अपने सहयोगी मंत्रीगणों को वितरित करता है । उपरोक्त कथन से विदित है कि अपान , समान , व्यान , उदान का स्वतन्त्र अधिकार नहीं होता है । प्राण का स्थूल शरीर में मुख्यालय हृदय-गोलकं में होता है , जहाँ अहम् प्रत्यय आत्मा उपलब्ध होती है । ...... क्रमश:

प्राण प्रतिष्ठा कर्म

माया-कल्पित-जगत्-सोपान प्राण प्रतिष्ठा कर्म जीव की शरीर में प्राण की प्रतिष्ठा , उसके संचित कर्मफलों के भोग के निमित्त से होती है । कर्म की उत्पत्ति काम से होती है । काम और संकल्प दोनो में केवल स्तर का भेद है , इनकी उत्पत्ति का निमित्त एक ही होता है । सामान्य क्रम में , जीव की शरीर से प्राण का निर्गमन , उसके संचित कर्म-फलों का भोग पूरा होने पर होती है । स्थूल शरीर , कर्मों के भोग के अनुरूप होती है । प्राण स्थूल शरीर से निर्लिप्त रहता है । फिरभी स्थूल शरीर को जीवन शक्ति पोषित करता है । ..... क्रमश:  

हिरण्यगर्भ ईश्वर

माया-कल्पित-जगत्-सोपान हिरण्यगर्भ ईश्वर हिरण्यगर्भ का प्रादुर्भाव ईश्वर से होता है । हिरण्यगर्भ की उत्पत्ति के सम्बन्ध में शास्त्र में उल्लेख है कि जिस प्रकार पुरुष की उपस्थिति मात्र से छाया की उत्पत्ति होती है , उसी प्रकार आत्मा की उपस्थिति मात्र से हिरण्यगर्भ की उत्पत्ति होती है । ईश्वर के संकल्प मात्र से हिरण्यगर्भ की उत्पत्ति होती है । ज्ञातव्य है कि छाया के सृजन के लिये किसी अतिरिक्त चेष्टा की वाँक्षना नहीं होती है । .......   क्रमश:  

प्राण ऊर्जा नियन्त्रक मात्र

माया-कल्पित-जगत्-सोपान प्राण ऊर्जा नियन्त्रक मात्र व्यष्टि शरीर में प्राण और समष्टि के विचार में हिरण्यगर्भ , केवल ऊर्जा का नियन्त्रण करते हैं । मस्तिष्क करण है । कार्य-करण-कारण यह त्रिकुटी होती है । आत्मा का चैतन्य मस्तिष्क में प्रगट होता है । यह चैतन्य मस्तिष्क के मार्ग से इन्द्रियों पर्यन्त विस्तृत हो जाता है । परन्तु , स्थूल-शरीर से प्राण असंग हैं । प्राण से भी चैतन्य असंग होता है । स्थूल शरीर मात्र प्राण और चैतन्य की अभिव्यक्ति का स्थल होता है । ...... क्रमश:    

प्राण आगमन निर्गमन

माया-कल्पित-जगत्-सोपान प्राण आगमन निर्गमन प्राण का जीव शरीर में प्रवेष और निर्गमन पूर्णतया जीव के संचित कर्मफलों से निर्धारित होता है । स्थूल शरीर के मध्य प्राण जीवन शक्ति पोषित करते हुये शरीर से असम्बद्ध ही रहता है । व्यक्ति के संचित कर्म-फल उसे ऐसे ढूड लेते हैं , जिस प्रकार एक लाख गौ के मध्य गाय का बछडा अपनी माँ गौ को ढूड लेता है । ...... क्रमश:  

संकल्प काम कर्म

माया-कल्पित-जगत्-सोपान संकल्प मस्तिष्क काम कर्म संकल्प की उत्पत्ति मस्तिष्क में होती है । संकल्प की पूर्ति हेतु ही व्यक्ति कर्म करता है । जबकि संकल्प की उत्पत्ति का कारण मस्तिष्क में विद्यमान काम होता है । उपरोक्त विवरण के अनुसार काम-संकल्प-कर्म यह क्रम है । उपरोक्त वर्णित क्रम कर्ता व्यक्ति का स्वरूप है । अज्ञान का क्षेत्र है । ..... क्रमश:  

संकल्प मात्रेण

माया-कल्पित-जगत्-सोपान संकल्प मात्रेण शास्त्रों में उपदेश किया गया है कि ईश्वर के संकल्प मात्र से इस सृष्टि की उत्पत्ति होती है । उपरोक्त कथन की पुष्टि में उपनिषदों में छाया का दृष्टान्त दिया गया है । जिस प्रकार छाया का सृजन मात्र शरीर की उपस्थिति मात्र से होती है , उसी प्रकार इस जगत् की उत्पत्ति ईश्वर के संकल्प मात्र से होती है । उपरोक्त दृष्टान्त में चूँकि छाया अस्तित्व आश्रित है , इससे निष्कर्श आहरित होता है कि जगत् का अस्तित्व भी आश्रित है । ..... क्रमश:   

संकल्प मात्रेण

माया-कल्पित-जगत्-सोपान संकल्प मात्रेण शास्त्रों में उपदेश किया गया है कि ईश्वर के संकल्प मात्र से इस सृष्टि की उत्पत्ति होती है । उपरोक्त कथन की पुष्टि में उपनिषदों में छाया का दृष्टान्त दिया गया है । जिस प्रकार छाया का सृजन मात्र शरीर की उपस्थिति मात्र से होती है , उसी प्रकार इस जगत् की उत्पत्ति ईश्वर के संकल्प मात्र से होती है । उपरोक्त दृष्टान्त में चूँकि छाया अस्तित्व आश्रित है , इससे निष्कर्श आहरित होता है कि जगत् का अस्तित्व भी आश्रित है । ..... क्रमश:   

संकल्प मात्रेण

माया-कल्पित-जगत्-सोपान संकल्प मात्रेण शास्त्रों में उपदेश किया गया है कि ईश्वर के संकल्प मात्र से इस सृष्टि की उत्पत्ति होती है । उपरोक्त कथन की पुष्टि में उपनिषदों में छाया का दृष्टान्त दिया गया है । जिस प्रकार छाया का सृजन मात्र शरीर की उपस्थिति मात्र से होती है , उसी प्रकार इस जगत् की उत्पत्ति ईश्वर के संकल्प मात्र से होती है । उपरोक्त दृष्टान्त में चूँकि छाया अस्तित्व आश्रित है , इससे निष्कर्श आहरित होता है कि जगत् का अस्तित्व भी आश्रित है । ..... क्रमश:   

संकल्प मात्रेण

माया-कल्पित-जगत्-सोपान संकल्प मात्रेण शास्त्रों में उपदेश किया गया है कि ईश्वर के संकल्प मात्र से इस सृष्टि की उत्पत्ति होती है । उपरोक्त कथन की पुष्टि में उपनिषदों में छाया का दृष्टान्त दिया गया है । जिस प्रकार छाया का सृजन मात्र शरीर की उपस्थिति मात्र से होती है , उसी प्रकार इस जगत् की उत्पत्ति ईश्वर के संकल्प मात्र से होती है । उपरोक्त दृष्टान्त में चूँकि छाया अस्तित्व आश्रित है , इससे निष्कर्श आहरित होता है कि जगत् का अस्तित्व भी आश्रित है । ..... क्रमश:   

ब्रम्हाजी पर्यन्त माया क्षेत्र

माया-कल्पित-जगत्-सोपान ब्रम्हाजी पर्यन्त माया क्षेत्र शास्त्रों में उल्लेख मिलता है कि हिरण्यगर्भ की उत्पत्ति ईश्वर के संकल्प मात्र से उसी प्रकार हुई जिस प्रकार छाया सृजित होती है । पुराणों में हिरण्यगर्भ को ही ब्रम्हाजी कहा गया है । उपरोक्त उल्लेख से विदित है कि जिस प्रकार छाया मिथ्या होती है उसी प्रकार मिथ्या हिरण्यगर्भ की उत्पत्ति हुई है । मिथ्या हिरण्यगर्भ से मिथ्या जगत् सम्भव हुआ है । उपरोक्तानुसार ब्रम्हाजी पर्यन्त माया-कल्पित-जगत् है । ..... क्रमश:  

शक्ति नियन्त्रक माया

माया-कल्पित-जगत्-सोपान शक्ति नियन्त्रक माया समस्त शक्तियों की नियन्त्रक माया है । माया-कल्पित-जगत् का संचालन शक्ति द्वारा है । जगत् की गतियाँ शक्ति द्वारा हैं । माया और आत्मा का सम्बन्ध स्वामी-सेवक का है । ब्रम्ह के मन: संकल्प को माया साकार जगत् रूप प्रदान करती है । ..... क्रमश:

पारमार्थिक निर्पेक्ष

माया-कल्पित-जगत्-सोपान पारमार्थिक निर्पेक्ष पारमार्थिक सत्य आत्मा निर्पेक्ष सत्य है । आत्मा के आश्रय से समस्त जगत् है । सत्य भी अ-निर्वचनीय है , माया भी अ-निर्वचनीय है । परन्तु उपरोक्त कथित अ-निर्वचनीयता की समता के होते हुये भी , माया क्षेत्र सविकार होने से सापेक्ष है जबकि आत्मा निर्पेक्ष है । व्यष्टि स्तर पर प्राण और समष्टि स्तर पर हिरण्यगर्भ पर्यन्त सविकार माया क्षेत्र:   है । ..... क्रमश

ऊर्जा सापेक्ष अस्तित्व

माया-कल्पित-जगत्-सोपान ऊर्जा सापेक्ष अस्तित्व ऊर्जा का ह्रास , वृद्धि , स्वरूप-अन्तरण सभी कुछ सम्भव होता है । इसलिये सविकार है । इसलिये सापेक्ष है । माया क्षेत्र है । पृथ्वी सभी को आश्रय देती है । परन्तु स्वयं उत्पत्ति होने के कारण आश्रित है । समस्त माया-कल्पित-जगत् कार्य-कारण का क्षेत्र है । जबकि आत्मा कार्य-कारण-विलक्षण है । ..... क्रमश:   

प्राण शक्ति नियन्त्रक

माया-कल्पित-जगत्-सोपान प्राण शक्ति नियन्त्रक जीव के समस्त करणों को कार्यकारी ऊर्जा प्राण से प्राप्त होती है । परन्तु स्मरणीय है कि ऊर्जा स्वयं सविकार है इसलिये सापेक्ष है । उपरोक्त कथित सविकार चरित्र के कारण ही प्राण सापेक्ष है , पारमार्थिक नहीं है । स्थूल शरीर का प्राण पर्यन्त अस्तित्व माया कल्पित है । ..... क्रमश:

हिरण्यगर्भ ऊर्जा स्वामी

माया-कल्पित-जगत्-सोपान हिरण्यगर्भ ऊर्जा स्वामी हिरण्यगर्भ माया-कल्पित-जगत् के समस्त उर्जा श्रोतों के स्वामी हैं । व्यष्टि के विचार में समस्त कर्णों को वाँक्षित ऊर्जा प्राण से प्राप्त होती है । समष्टि के विचार में समस्त देवताओं को वाँक्षित ऊर्जा हिरण्यगर्भ से प्राप्त होती है । परन्तु स्मरणीय है कि ऊर्जा स्वयं सविकार है इसलिये सापेक्ष है । हिरण्यगर्भ स्वयं उत्पत्ति हैं । ..... क्रमश:

सर्वात्मक

माया-कल्पित-जगत्-सोपान सर्वात्मक एक हिरण्यगर्भ ही एक मात्र समष्टि शक्ति हैं जो कि विभिन्न अन्य शक्तियों के रूप में प्रगट हो रहे हैं । हिरण्यगर्भ देवता ही इन्द्र देवता , पृथ्वी देवता , वरुण देवता आदि अनेक शक्तियों के रूप में प्रगट होते हैं । उपरोक्त वर्णित तथ्यात्मक स्थिति को एक शब्द सर्वात्मिका द्वारा व्यक्त किया जाता है । हिरण्यगर्भ देवता सर्वात्मिका हैं । ...... क्रमश:  

प्राण-शक्ति-पोषक

माया-कल्पित-जगत्-सोपान प्राण-शक्ति-पोषक शरीर में क्रियाशील समस्त शक्तियाँ यथा मानसिक शक्ति , वाक् शक्ति , कर्मेन्द्रिय शक्ति आदि प्राण शक्ति के आश्रय पर ही हैं । प्राण शक्ति के कमजोर हो जाने पर व्यक्ति अच्छे से बोल भी नहीं पाता है , उसकी पाचन शक्ति भी कमजोर हो जाती है , उसकी कर्मेंन्द्रियाँ भी काम करने की स्थिति में नही होती हैं । व्यष्टि की प्राण-शक्ति , समष्टि प्राण हिरण्यगर्भ का ही व्यष्टि में अभिव्यक्ति होती है । उपरोक्त समस्त विवरण का सार यह है कि प्रत्येक जीव हिरण्यगर्भ के आश्रय पर ही क्रियाशील है । ...... क्रमश

सूर्य-ऊर्जा

माया-कल्पित-जगत्-सोपान सूर्य-ऊर्जा प्रत्येक व्यक्ति सूर्य में निहित असीमित ऊर्जा भण्डार से परिचित है । उपरोक्त कथित सूर्य-ऊर्जा , समष्टि प्राण हिरण्यगर्भ की प्राण-शक्ति है । अर्थात् सूर्य-ऊर्जा समष्टि का प्राण-शक्ति है । समस्त अन्य समष्टि शक्तियाँ यथा वायु-शक्ति , अग्नि-शक्ति , जल-शक्ति आदि सभी समष्टि प्राण-शक्ति सूर्य-ऊर्जा के आश्रय पर क्रियाशील हैं । उपरोक्त कथित समस्त शक्तियों के नियंत्रक हिरण्यगर्भ हैं । सूर्य-ऊर्जा हिरण्यगर्भ की प्राण-शक्ति हैं । ..... क्रमश:

लघु कथा

माया-कल्पित-जगत्-सोपान लघु कथा व्यक्ति के शरीर के पोषण के चौबीस सिद्धान्तों में से उन्नीस सिद्धान्त अपने अपने गौरव की घोषणा कर रहे थे , और प्राण केवल श्रोता था । अन्त में प्राण ने कहा अच्छा मैं अब चलता हूँ । अभी प्राण निकला भी नहीं था , कि सभी अन्य उन्नीस सिद्धान्त अनुभव करने लगे कि प्राण के आभाव में हम प्रत्येक रह नहीं सकते हैं । फलत: सभी उन्नीस सिद्धान्त , प्राण से विनय करने लगे कि आप न जाइये । उपरोक्त वर्णित लघु कथा से विदित होता है कि प्राण-शक्ति ही सभी अन्य यथा चक्छु , वाक् , मन की क्रिया-शक्ति का श्रोत होता है । यदि प्राण शरीर में न हो , तो कोई अन्य अंग क्रियाशील नहीं रह सकते हैं । प्राण-शक्ति ही सभी अन्य का पोषक है । ...... क्रमश:  

जीवन पोषक देवता

माया-कल्पित-जगत्-सोपान जीवन पोषक देवता चौबीस सिद्धान्त नामत: पंच-महाभूत , पंच-ज्ञानेन्द्र्याँ , पंच-कर्मेन्द्रियाँ , पंच-प्राण , मन , बुद्धि , चित्त और अहंकार मिलकर ही एक व्यक्ति का जीवन पोषित करते हैं । सिद्धान्त एक वस्तु नाम से भिन्न इसलिये होते हैं , क्योंकि एक अंग यथा हाथ विशेष केवल हांथ की क्रिया करने वाला अंग है जबकि जब कि सिद्धान्त के रूप में वह उन समस्त अवयवों का समायोजन करता है जो कि उसे क्रियाकारी क्षमता प्रदान करते हैं और उसकी क्रियाकरी क्षमता को स्थिर रखते हैं । उपरोक्त वर्णित विवरण के आधार पर ही शास्त्रों में प्रत्येक सिद्धान्त को देवता शब्द के साथ नामित करते हैं । ...... क्रमश:  

देवता की धारणा

माया-कल्पित-जगत्-सोपान देवता की धारणा सामान्य अनुभव के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति सूर्य को एक प्रकाशित अग्नि पिण्ड के रूप में जानता है । परन्तु सूर्य मात्र अग्नि पिण्ड नहीं है । सूर्य एक सिद्धान्त है जो कि समस्त जड-प्रपंच और जीव-प्रपंच को जीवन शक्ति अर्थात् प्राण शक्ति का पोषण कर रहा है । ज्ञातव्य है कि कोई भी सिद्धान्त जड द्वारा संचालित नहीं हो सकता है । इसलिये सूर्य सिद्धान्त चैतन्य आत्मा के आश्रय से ही क्रियान्वित हो रहा है । उपरोक्त कथित आत्म-चैतन्य से समर्थित जड-सूर्य-पिण्ड ही सूर्य-देवता हैं । उपरोक्त विवरण के अनुसार ही अन्य समस्त देवता यथा चन्द्र-देवता , इन्द्र-देवता आदि विख्यात हैं । ..... क्रमश:  

प्राण उपासना

माया-कल्पित-जगत्-सोपान प्राण उपासना हिरण्यगर्भ ही व्यष्टि में प्राण के रूप में व्यक्त हो रहे हैं । हिरण्यगर्भ , चैतन्य सहित समष्टी सूक्ष्म शरीर हैं । उपरोक्त कथित रूप में प्राण उपासना , हिरण्यगर्भ उपासना है । सूर्य देवता , रयि-प्राण रूप में प्राण सूर्य भी हिरण्यगर्भ का ही प्रतिनिधित्व करते हैं । उपरोक्त समस्त विवरण के अनुसार प्राण उपासना , हिरण्यगर्भ उपासना , सूर्य उपासना समस्त में एक रूपता है । उपनिषदों में हिरण्यगर्भ उपासना को प्राण-उपासना के नाम से प्रतिपादित करते हैं । ...... क्रमश:  

हिरण्यगर्भ श्रेष्ठतम् देवता

माया-कल्पित-जगत्-सोपान हिरण्यगर्भ श्रेष्ठतम् देवता समष्टि सूक्ष्म शरीर का चैतन्य तत्व ब्रम्ह के साथ विचा र हिरण्यगर्भ देवता हैं । देवत्व अचेतन में सम्भव नहीं हो सकता है । सूक्ष्म शरीर भी अचेतन सूक्ष्म पंच महाभूतों से ही निर्मित होती है । चैतन्य सिद्धान्त की व्याप्ति से ही वह हिरण्यगर्भ है । व्यष्टि जीव शरीर में भी हिरण्यगर्भ ही प्राण के रूप में अनुभूत होते हैं । जीव तब तक ही जीव है जब तक उसमें प्राण है । समस्त जड-प्रपंचों और चेतन-प्रपचों का आश्रय हिरण्यगर्भ ही हैं । इस रूप में हिरण्यगर्भ श्रेष्ठतम् देवता हैं । ...... क्रमश:     

प्राण—श्रेष्ठतम्

माया-कल्पित-जगत्-सोपान प्राण—श्रेष्ठतम् सत्तरह सिद्धान्त नामत: पंच ज्ञान इन्द्रियम् , पंच कर्मेन्द्रियम् , पंच प्राण , मन व बुद्धि के विद्यमान होने से ही जीव है अन्यथा केवल स्थूल काया तो अचेतन है । प्राण से ही प्राणी नाम है । उपरोक्त वर्णित सत्तरह सिद्धान्तों में से भी , जब व्यक्ति सुशुप्ति अवस्था में होता है , पंच ज्ञान इन्द्रियम् , पंच कर्मेन्द्रियम् , मन तथा बुद्धि यहाँ तक कि चित्त और अहंकार भी लय की दशा में रहते हैं , परन्तु प्राण कार्यकारी दशा में रहता है । उपरोक्त वर्णित स्थिति प्राण की श्रेष्ठता का ज्ञोतक है । ...... क्रमश:  

मिथुनम् विशिष्ट दृष्टिकोण

माया-कल्पित-जगत्-सोपान मिथुनम् विशिष्ट दृष्टिकोण द्वन्द उन्हे कहा गया है जो विपरीत स्वभाव के हैं । मिथुनम् उन्हे कहा गया है जो विपरीत स्वभाव के हैं परन्तु फिरभी दोनो मिलकर एक पूर्ण हैं । द्वन्द की अभिव्यक्ति से राग और द्वेष का प्रादुर्भाव सम्भव होता है । मिथुनम् व्यापक ग्राह्यता का अधिष्ठान है । उपरोक्त कथन को एक उदाहरण द्वारा ग्राह्य कराने की चेष्टा है । जन्म और मृत्यु एक द्वन्द के रूप में विचार करने पर , प्रत्येक को जन्म से राग और मृत्यु से द्वेष के भाव की अनुभूति होती है । जन्म और मृत्यु को एक मिथुनम् के रूप में विचार करने पर , दोनो को मिला कर एक पूर्ण जीवन की अनुभूति सृजित होती है । अर्थात् जन्म पूर्ण जीवन नहीं है मात्र जीवन का एक अंश भाग है । उसी प्रकार मृत्यु पूर्ण जीवन नहीं है , अपितु जीवन के एक अंश भाग को कहा गया है । मिथुनम् व्यक्ति की ग्राह्यता क्षमता का विस्तार है । जिस प्रकार जन्म एक अवसर मात्र है , उसी प्रकार मृत्यु भी एक अवसर मात्र है । ..... क्रमश:  

सगुण उपासना

माया-कल्पित-जगत्-सोपान सगुण उपासना सगुण ब्रम्ह विषयक मानस व्यापार , सगुण उपासना है । सगुण ब्रम्ह अर्थात् माया सहित ब्रम्ह है । माया सहित ब्रम्ह अर्थात् यह दृष्य जगत् है । यह दृष्य जगत् माया-कल्पित-जगत् है । ब्रम्ह ही इस जगत् के रूप में अनुभूत हो रहा है । यह ज्ञानी की दृष्टि है । उपासना अर्थात् मस्तिष्क में विचार मन्थन हैं । मस्तिष्क में निश्चयात्मक सत्य की दृढ स्थापना है । उपरोक्त वर्णित माया-कल्पित-जगत् की उपासना , अर्थात् अनुभूत दृष्य जगत् और मिथ्या जगत् के सत्यत्व का आश्रय ब्रम्ह , के मध्य मस्तिष्क में विद्यमान द्वंदात्मक निश्चय-अनिश्चय का निवारण है । ...... क्रमश:  

अन्न-सृष्टि

माया-कल्पित-जगत्-सोपान अन्न-सृष्टि प्रजापति ही अन्न रूप में हैं । शास्त्र अन्न में रयि-प्राण विभाजन का उपदेश नहीं करते हैं । अन्न पर्णित होकर शुक्र और शोणित बनता है । उपरोक्त वर्णित शुक्र-शोणित रूप बीज से प्रजा की उत्पत्ति होती है । इस प्रकार माया-कल्पित-जगत् का सृजन हिरण्यगर्भ के माध्यम् से मिथुनम्-लोक-काल-अन्नम्-रेतस-प्रजा क्रम में सम्भव होती है । उपरोक्त वर्णित समस्त लोक , काल , अन्न , रेतस , प्रजा सभी प्रत्येक हिरण्यगर्भ हैं । ..... क्रमश:  

दिवस प्रजापति

माया-कल्पित-जगत्-सोपान दिवस प्रजापति शास्त्र उपदेश करते हैं कि दिवस भी हिरण्यगर्भ है । चूँकि हिरण्यगर्भ मिथुनम् हैं इसलिये दिवस भी मिथुनम् है । दिन को प्राण बताया गया है । रात्रि को रयि बताया गया है । उपरोक्त विभाजन के आधार पर शास्त्र पुरुष-स्त्री सम्बन्ध के लिये रात्रि के समय को अर्थात् रयि-काल में उपयुक्त उपदेश करते हैं । रात्रि के समय के स्त्री-पुरुष सम्बन्ध को शास्त्र ब्रम्हचर्य के समतुल्य बताते हैं जबकि दिन के समय के सम्बन्ध को प्राण-शक्ति-क्षय के दोष से युक्त बताते हैं । ..... क्रमश:

मास हिरण्यगर्भ

माया-कल्पित-जगत्-सोपान मास हिरण्यगर्भ शास्त्र उपदेश करते हैं कि मास भी हिरण्यगर्भ है । चूँकि हिरण्यगर्भ मिथुनम् हैं इसलिये मास भी रयि-प्राण मय है । शुल-पक्ष को प्राण बताया गया है । कृष्ण पक्ष को रयि बताया गया है । ऋषि जो शुक्ल पक्ष को प्राण के समान उपासना करते हैं , उनके उपासना के फल से कृष्ण पक्ष जो कि अपेक्षाकृत अल्प शुभ फलदायी होता है भी उतना ही फलदायी हो जाता है जितना कि शुक्ल-पक्ष होता है । ...... क्रमश

क्रम-मुक्ति

माया-कल्पित-जगत्-सोपान क्रम-मुक्ति ब्रम्ह-लोक को प्राप्त हुआ जीव स्वयं ही अति पुण्यवान है । ब्रम्ह-लोक में प्रवास काल में उसे ब्रम्हाजी द्वारा आत्मज्ञान की शिक्षा मिलती है । उपरोक्त के फल से उसे ज्ञान की दशा प्राप्त होती है । ज्ञान द्वारा मोक्ष होता है । इस प्रकार उपरोक्त वर्णित विवरण अनुसार जीव पहले चरण में कर्म-उपासना-समुच्चय द्वारा ब्रम्ह-लोक को प्राप्त होता है । पुन: ब्रम्ह-लोक में ब्रम्हाजी द्वारा शिक्षा के फल से वह मुक्त-दशा को प्राप्त होता है । उपरोक्त उपलब्धि को क्रमिक मुक्ति कहा जाता है । ....... क्रमश:

ज्ञान-दशा मोक्ष

माया-कल्पित-जगत्-सोपान ज्ञान-दशा मोक्ष ज्ञान की दशा द्वारा मुक्ति इस भू-लोक में इस जीवन को जीते वर्तमान में , तत्काल होती है । वर्तमान स्थूल-सूक्ष्म-शरीर के कर्म-फल-क्षीण होने पर जीव मोक्ष की दशा को प्राप्त होता है । ज्ञानी की कारण-शरीर मृत्यु की दशा में विलय कर जाती है । ज्ञानी की आत्मा जो कि ब्रम्ह-स्वरूप में एकीकृत है अनन्त-ब्रम्ह है और उसका किसी विशिष्ट सूक्ष्म-स्थूल-शरीर से सम्बन्ध सदैव के लिये समाप्त हो जाता है । ...... क्रमश: