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आश्रय अभिव्यक्ति

शिक्षण-विधि-सोपान आश्रय अभिव्यक्ति आत्मा ज्ञान स्वरूप है । ज्ञान को प्रगट होने के लिये एक अभिव्यंजक की अपेक्षा होती है । ज्ञान की अभिव्यक्ति के लिये विषय की अपेक्षा है । ज्ञाता-ज्ञेय-ज्ञान की त्रिकुटी का उपरोक्त स्वरूप है । उपरोक्त वर्णित त्रिकुटी का ज्ञाता , मनुष्य मात्र ज्ञान की अभिव्यक्ति है । उपरोक्त वर्णित त्रिकुटी का ज्ञेय , विषय मात्र स्थिति की अभिव्यक्ति है । ज्ञाता और ज्ञेय दोनो ज्ञान के आश्रित हैं । इसलिये सापेक्ष हैं । उपरोक्त त्रिकुटी का ज्ञाता और ज्ञेय दोनो का विलय होने पर ही शुद्ध-ज्ञान का साक्षात् सम्भव है । ...... क्रमश:   

शिव शंकर प्रलयंकर

शिक्षण-विधि-सोपान शिव शंकर प्रलयंकर आत्मा का स्वरूप शिव है , उसका स्वभाव शंकर है , उसका प्रभाव प्रलयंकर है । सूर्य का स्वरूप प्रकाशपुंज है , प्रकाश रश्मियों को विकीर्ण करना उसका स्वभाव है , उर्जावितरण उसका प्रभाव है । आत्मा ज्ञान-स्वरूप है । प्रत्येक ज्ञान का आश्रय बनना , आत्मा का स्वभाव है । अज्ञान का क्षय , आत्मा का प्रभाव है । ...... क्रमश:    

अनिर्वचनीय

शिक्षण-विधि-सोपान अनिर्वचनीय आकाश में नीलमा होती नहीं है , परन्तु प्रत्येक व्यक्ति का नित्य का अनुभव है कि आकाश नीला दीखता है । जो वस्तु जिस अधिकरण में भासित हो रही है , वह उस अधिकरण में नहीं है । यह अनिर्वचनीयता है । अद्वैत-वेदान्त भासमानिता का निषेध नहीं करता है । जगत् भासित हो रहा है । परन्तु जगत् की भासमानिता आत्म-चैतन्य के अधिकरण में देखी जा रही है , जबकि आत्म-चैतन्य के अधिकरण में जगत् नहीं है । आत्मा चेतन है । जगत् जड है । चेतन में जड का होना कैसे सम्भव है । यह अनिर्वचनीयता है । अनिर्वचनीयता का अर्थ यह नहीं होता है कि वह वस्तु है नहीं अथवा उसका निर्वचन नहीं किया जा सकता है । वस्तु भासती है । उसके भासने का निर्वचन भी किया जाता है । परन्तु जिस अधिकरण में वह भास रही है , उस अधिकरण में वह नहीं है । यह अनिर्वचनीयता है । ...... क्रमश:  

अपने आभाव में दीखना

शिक्षण-विधि-सोपान अपने आभाव में दीखना जगत् की प्रत्येक वस्तु अपने आभाव में ही दीखती है । उपरोक्त अभिव्यक्ति की व्याख्या इस प्रकार है , जैसा कि पूर्व के लेख शीर्षक प्रत्यय में बताया गया था , किसी भी वस्तु-रूप का प्रत्यय मस्तिष्क में बनता है , आत्म-चैतन्य के उपरोक्त कथित प्रत्यय में व्याप्त होने पर ही , वस्तु-रूप-ज्ञान-बोध मस्तिष्क में सम्भव होता है । उपरोक्त विवरण में वस्तु-रूप-विषय का प्रत्यय भी आत्म-चैतन्य के आश्रय से ही सृजित हो रहा है , और वस्तु-रूप-ज्ञान-बोध-भी आत्म-चैतन्य के प्रत्यय में वेध से ही सम्भव होता है । उपरोक्त समस्त विवरण अनुसार जड-विषय-वस्तु-रूप का ज्ञान-बोध चैतन्य में हो रहा है , और निश्चय ही उस चैतन्य में वह विषय-जडता नहीं है । उपरोक्तानुसार यह कथन कि जगत् की प्रत्येक वस्तु अपने आभाव में ही दीखती है , अनिर्वचनीयता का आधार बनती है । ....... क्रमश:  

ज्ञान क्रिया इच्छा

शिक्षण-विधि-सोपान ज्ञान क्रिया इच्छा सत्व , रज़स , तमस यह तीन उपाधियाँ हैं जिनसे माया शक्ति को व्यक्त किया जाता है । सत्व में विभू: आत्मा का वेध होता हैं तो रूपबोध सम्भव होता है । रज़स में विभू: आत्मा का वेध होता है तो कर्म का उदय होता है । तमस में विभू: आत्मा का बेध होता है तो प्रज्ञा का आच्छादक सृजित होता है । व्यक्ति का अन्त:करण पंचमहाभूतों की तन्मात्राओं के चार-बटा-पाँच भाग सात्विक अंश द्वारा निर्मित है । इसलिये ही उसमें शब्द , स्पर्ष , रूप , रस , और गंध का अनुभव ज्ञान की क्षमता होती है । उपरोक्त कथित पंचमहाभूतों की तन्मात्राओं के शेष एक बटा पाँच सात्विक अंश से पंच ज्ञानेन्द्रियाँ निर्मित हैं । इसलिये ही मोंह का सृजन ज्ञान इन्द्रियों और मन दोनों के संयुक्त भागीदारी द्वारा सृजित होते हैं । ज्ञातव्य हैं कि मन की तीन मौलिक विकृतियाँ नामत: मल , विक्षेप , अज्ञान इन्ही उपरोक्त वर्णित प्रमाद , रज़स और सत्व के आच्छादन से सृजित होती हैं । ज्ञान जिज्ञासु को उपरोक्त के निवारण के पुरुषार्थ की अपेक्षा होती है । ....... क्रमश:  

द्वैतं भयं भवति

शिक्षण-विधि-सोपान द्वैतं भयं भवति शास्त्र में सिद्धान्त निरूपित किया गया है , दवैतं भयं भवति , यह सहज ग्राह्य होने लायक सिद्धान्त है । बाह्य जगत् के नाम-रूप वस्तु का ज्ञानबोध व्यक्ति के मन में दो रूपों में होता है । एक कि वहां एक अमुक-वस्तु है । दो- वह अमुक-वस्तु-रूप मैं नहीं हूँ , यही द्वैत का सृजन है । वस्तुरूप एक ही है , परन्तु उसके ज्ञानबोध की दो क्षवियां व्यक्ति के मन में एक साथ सृजित होती हैं । उपरोक्त वर्णित स्थिति ही , इदं और अहं का स्वरूपबोध , मन में सृजित होता है । यह मायाशक्ति की लीला का फल है । इदं , अहं को छोडकर , पूरा जगत् है । अहं , मन में आत्मा की प्रतिबिम्बात्मक अनुभूति है । उपरोक्त वर्णित इदं भी मायाकल्पित है और अहं भी मायाकल्पित है । विचार की अपेक्षा है , किसी भी घटवस्तु में , घटरूप तो मात्र अभिव्यक्ति है जिसका सत्य मृद है , उसी प्रकार दर्पण में अनुभव होने वाला प्रतिबिम्ब तो मात्र अनुभूति है जिसका कोई अस्तित्व नहीं है और यही अहं है । उपरोक्त वर्णित इदं और अहं के मध्य जो परस्पर व्यापार चल रहा है , वही लोकव्यवहार का मिथ्या जगत् है । यह जगत् माया की ...

उपाधि महात्म्य

शिक्षण-विधि-सोपान उपाधि महात्म्य व्यक्ति की शरीर का अन्नमयकोष , उसके प्राणमयकोष का अभिव्यंजक होता है , उसका प्राणमयकोष उसके मनोमयकोष का अभिव्यंजक होता है , उसका मनोमयकोष उसके विज्ञानमयकोष का अभिव्यंजक होता है , उसका विज्ञानमयकोष उसके आनन्दमयकोष का अभिव्यंजक होता है , उसका आनन्दमयकोष उसके अव्यक्त अर्थात् माया-शक्ति का अभिव्यंजक होता है , उसका अव्यक्त उसके आत्मा का अभिव्यंजक होता है । ज्ञानबोध यात्रा अर्थात् आत्मबोधयात्रा का उपरोक्त वर्णित क्रम है । स्थूलतम् अन्नमयकोष से प्रारम्भ कर सूक्ष्मतम् आत्मबोध पर्यन्त है । उपरोक्त ज्ञानयात्रा निषेध पथ से होती है । अन्नमयकोष के निषेध द्वारा प्राणमय की प्राप्ति है , प्राणमयकोष के निषेध द्वारा मनोमयकोष की प्राप्ति है , इसी क्रम से आत्मबोध पर्यन्त है । निषेध क्या है ? मिथ्यात्वनिश्चय निषेध है । मिथ्यात्व की अनेक परिभाषायें प्रसंग के अनुसार की गई है । प्राप्त प्रसंग में मिथ्या का अर्थ इस प्रकार ग्रहण करना अपेक्षित है । जिसकी स्थिति , बहुसंख्यक परिस्थितियों के आश्रय द्वारा सिद्ध होती है , वह मिथ्या है । ...... क्रमश:

अभिव्यंजक महात्म्य

शिक्षण-विधि-सोपान अभिव्यंजक महात्म्य शास्त्र पारमार्थिक तत्व ब्रम्ह का उपदेश करते हुये उसे निर्गुण , निराकार , असंग , अनन्त होने का ज्ञान प्रशस्थ करते हैं । कोई भी निराकार , निर्गुण , असंग तत्व को अनुभवगम्य कराने हेतु किसी अभिव्यंजक संस्थान की अपरिहार्य वाँक्षना होती है । उदाहरण , विद्युत निराकार , निर्विकार तत्व है जिसकी अभिव्यक्ति बादल और बल्ब अभिव्यंजक के माध्यम से सम्भव होती है । उपरोक्त उदाहरण के सादृष्य ही मनुष्य की पंचकोषयुक्त शरीर , आत्मा-ब्रम्ह का अभिव्यंजक सन्सथान मात्र है । उपरोक्त तथ्य को जानने के उपरान्त प्रत्येक मनुष्य के पुरुषार्थ का सर्वोच्च लक्ष्य बनता है , कि वह अपने को , उस पारमार्थिक तत्व ब्रम्ह की अभिव्यक्ति के लिये एक उपयुक्त देवालय में पर्णित करना है । ...... क्रमश:

साधनो का वर्गीकरण क्यों

शिक्षण-विधि-सोपान साधनो का वर्गीकरण क्यों जैसा कि पूर्व के लेखों में बताया गया है , मस्तिष्क माया-कल्पित अवयव है , और माया ने इसे लोक-व्यवहार के लिये बनाया है , इतना ही नहीं माया ब्रम्ह को जीव के ज्ञान-बोध से छिपाती है , इसलिये शास्त्र जीव-मनुष्य जो कि अहंकार नामक अज्ञान से शासित है और वह मस्तिष्क जो मल , विक्षेप , अज्ञान का केन्द्र है , उसे शाश्वत् आत्मज्ञान जो कि ज्ञान-स्वरूप है , को ग्राह्य कराने के लिये उपरोक्त कथित दोषों नामत: मल , विक्षेप , अज्ञान से उबारने के लिये साधनों का तारतम्य बताते हैं । उपरोक्त कथित तारतम्य ही वर्गीकरण है । अज्ञान का तारतम्य मल-विक्षेप-अज्ञान है । साधनों का तारतम्य परम्परा-वहिरंग-अन्तरंग-साक्षात् है । ..... क्रमश:

साधन क्या हैं

शिक्षण-विधि-सोपान साधन क्या हैं लोकव्यवहार में संलग्न व्यक्ति जिस चैतन्य के आश्रय से व्यवहार-रत् है , वह अहंकार है । आत्मा चैतन्य-स्वरूप है । दोनो के मध्य जो भेद है , वह आश्रय और विषय के रूप में है । आत्मा का स्वरूप बोध लक्ष्य है । यह स्वरूप बोध , अहंकार नामक चैतन्य जो कि मात्र चैतन्य की छाया सदृष्य अनुभूति मात् है , द्वारा कंचिद सम्भव प्रयत्न नहीं है । परन्तु स्वरूप बोध मस्तिष्क में ही होना है । उपरोक्त वर्णित कारण ही , मस्तिष्क को सर्वप्रथम तो यही बोध कराना अनिवार्य वाँक्षना है , कि अहंकार ही अज्ञान का स्वरूप है , परन्तु यह अज्ञान का बोध मस्तिष्क जो अनादिकाल से इस अज्ञान को ही अपना शासक मानता आया है इतने आसानी से स्वीकारने को तत्पर नहीं होता है , इसलिये साधनो का आश्रय लेना पडता है , साधन शनै: शनै: मस्तिष्क को अज्ञान को स्वीकारने के लिये तैयार करते हैं । जब मस्तिष्क अहंकार नामक अज्ञान को स्वीकार लेता है , तब उसे शास्त्र आत्म-ज्ञान जो कि पार-लौकिक ज्ञान है , की ओर ले जाते है । ..... क्रमश:

साधन वर्गीकरण

शिक्षण-विधि-सोपान साधन वर्गीकरण ब्रम्ह-विचार के लिये प्रतिपादित साधनों का वर्गीकरण किया जाता है । वर्गीकरण चार नामत: एक- परम्परा-साधन , दो- वहिरंग-साधन , तीन- अन्तरंग-साधन , चार- साक्षात्-साधन श्रेणियों में किया जाता है । परम्परा साधनो द्वारा व्यक्ति के मस्तिष्क के मल और विक्षेप का शमन होता है । वहिरंग-साधनों के द्वारा व्यक्ति का मस्तिष्क ब्रम्ह-विचार के लिये योग्य पात्र बनता है । अन्तरंग साधन श्रवण-मनन-निबिध्यासन होते हैं । गुरू के सानिध्य में सतत् श्रुतियों द्वारा निर्धारित परम्परा से श्रवण , मनन , निबिध्यासन से व्यक्ति ब्रम्ह-ज्ञान के लक्ष्य की साधना करता है । आत्मा-ब्रम्ह-ऐक्यं का भेद साक्षात् साधन कहा जाता है । तत् पद और त्वम् पद का स्वच्छ ज्ञान-बोध और दोनो का ऐक्यं बोध यह साक्षात् साधन द्वारा सम्भव होता है । ...... क्रमश:

एक परीक्षण मानक

शिक्षण-विधि-सोपान एक परीक्षण मानक जो कुछ भी अर्थात् कार्य-कारण-रूपी-वस्तु-रूप , काल , अथवा देश से हुडा हुआ है , चार आभावो नामत: एक- प्रागाभाव , दो- प्रध्वं साभाव , तीन- अत्यन्ताभाव , चार- अन्योन्याभाव में से किसी एक से जुडा हुआ है , वह ब्रम्ह नहीं हो सकता है । उपरोक्त नामित चारो आभावो का विस्तार इस प्रकार है , एक- प्रागाभा व , जो पहले नहीं थी और अब हो गई , इस श्रेणी में अपनी मानसिक वृत्तियों का दृष्टान्त ग्रहण करना निवेदित है , इस मानसिक वृत्तियों के विचार में ब्रम्हाकार-वृत्ति और समाधी भी आ जायेगी , दो- प्रागाभाव , जो आज है और कालान्तर में नहीं रह जायेगी , इन्हे अनित्य कहा जायेगा , इस श्रेणी में अपनी स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीर का दृष्टान्त ग्रहण करना निवेदित है , तीन- अत्यन्ताभाव , जिनमें विषय और आश्रय भिन्न हों , इस श्रेणी में जगत् के विषय-वस्तु-रूपी कार्य-कारण-बद्ध-वस्तुओं का उदाहरण निवेदित है , चार- अन्योन्याभाव , स्वयं अपने में बदलती हुई वृत्तियाँ , इस श्रेणी में मस्तिष्क में प्रवाह करने वाली प्रत्यय वृत्तियों का दृष्टान्त ग्रहण करना निवेदित है । उपरोक्त वर...

प्रमाण का विभाग

शिक्षण-विधि-सोपान प्रमाण का विभाग श्रुतियाँ प्रमाण है । श्रुतियों के परम्परा शिक्षण उपदेश द्वारा व्यक्ति के अज्ञान का क्षय होता है । अज्ञान का क्षय ही ज्ञान की प्राप्ति है । ज्ञान तो व्यक्ति का स्वरूप है । व्यक्ति की आत्मा ज्ञान-स्वरूप है । केवल अज्ञान के आच्छादन से व्यक्ति अपनी आत्म-स्वरूप से अनभिज्ञ होता है । इसलिये वह परिच्छिन्न जीव है । अज्ञान का निवारण मात्र से वह अपने आत्म-स्वरूप जो कि ब्रम्ह-स्वरूप है , ज्ञान-स्वरूप है , आनन्द-स्वरूप है , को प्राप्त हो जाता है । यह स्थिति पाने के लिये किसी कर्म की अपेक्षा नहीं होती है । ...... क्रमश:

कर्म का विभाग

शिक्षण-विधि-सोपान कर्म का विभाग कर्म का विभाग धर्म , उपासना , योग पर्यन्त है । कर्म के फल से गति होती है । पुण्य-कर्म व्यक्ति को स्वर्ग-लोक की प्राप्ति कराते हैं । परन्तु पुण्य क्षीण होने पर वह पुन: स्वर्ग-लोक से मृत्यु-लोक में वापस आता है । उपासना में सूक्ष्म कर्म होता है । योग और समाधि में कर्म का लय होता है । कर्म का आभाव समाधि की अवस्था है । विषय के अभाव से समाधि में शान्ति की अनुभूति होती है । परन्तु विक्षेप के होने पर मस्तिष्क में खलबली मच जाती है । व्यक्ति खोज़ता है , कि हमारी समाधी कहाँ है । इन समस्त विस्तार वाले कर्म के विभाग से अज्ञान की निवृत्ति कंचिद अ-सम्भव है , क्योंकि कर्म का उद्भव अज्ञान से होता है । कर्म का विभाग मस्तिष्क के मल और विक्षेप के निवारण पर्यन्त ही प्रभावी है । ..... क्रमश:

उपाधियाँ और व्यवहार

शिक्षण-विधि-सोपान उपाधियाँ और व्यवहार एक पुरुष पिता के परिसीमन से पुत्र है , पत्नी के परिसीमन से पति है , पुत्र के परीसीमन से पिता है । विचार कीजिये कि वह पुरुष चौथा है अथवा केवल एक है । एक नारी पिता के परिसीमन से पुत्री है , पति के परिसीमन से पत्नी है , पुत्र के परिसीमन से माँ है । विचार कीजिये कि वह नारी चौथी है अथवा केवल एक है । लोकव्यवहार किसके मध्य हो रहा है ? उपाधियों के मध्य अथवा उस पुरुष और नारी के मध्य हो रहा है । उपाधियों का क्या कोई अस्तित्व है ? अथवा केवल मान्यता हैं ? व्यवहार के फल से सुखी अथवा दु:खी कौन हो रहा है , उपाधियाँ ? पुरुष या नारी ? उपरोक्त दृष्टान्त है । प्रत्येक व्यक्ति की जागृतदशा , स्वप्नदशा , सुशुप्तिदशा का सम्बन्ध उसकी आत्मा के साथ उपरोक्त दृष्टान्त के सदृष्य ही है । यदि उपरोक्त दृष्टान्त का आप सही निष्कर्श निकालने में समर्थ हो जायेंगे , तो आपको अपनी आत्मा की स्थिति का सही ज्ञान सम्भव है । ..... क्रमश:  

सदोष विषम

शिक्षण-विधि-सोपान सदोष विषम प्रकृति स्वभाव से परिवर्तनशील है और गुणयुक्त है । लोकव्यवहार में संलग्न व्यक्ति प्रातिभासित चेतन से संचालित है । प्रातिभासित का अस्तित्व नहीं होता है अपितु वह केवल प्रतीत होती है । उपरोक्त विस्तार युक्त लोकव्यवहार के दोनो अवयव प्रकृति और पुरुष केवल विकारों में संलग्न होते हैं । इसलिये ही राग-द्वेष , काम-क्रोध , इच्छा-मोंह स्वाभाविक प्रतिफल के रूप में सृजित होते हैं । यह समस्त अनुभूतियाँ मन में विक्षेप उत्पन्न करने वाली होती हैं । व्यक्ति की देह का जो पाँच कोषों में शिक्षण किया गया है , उसका तात्पर्य यह है कि इन प्रत्येक कोष में आच्छादक क्षमता भी है , और अभिव्यँजक क्षमता भी है । जो प्रतिबन्धक हैं वही मोक्षदायक भी हैं । मनोमयकोष और विज्ञानमयकोष के समुचित उपयोग की निर्णायक भूमिका होती है । जितने भी उपदेश शास्त्रों में हैं , वह इसी मन और विवेक के समुचित उत्थान को लक्षित है । ..... क्रमश:

अभिव्यंजक आच्छादक

शिक्षण-विधि-सोपान अभिव्यंजक आच्छादक यह पंचकोषों का मनुष्य शरीर आत्म-ब्रम्ह का अभिव्यंजक भी है और आच्छादक भी है । महत् की उपाधि से ब्रम्ह हिरण्यगर्भ है । यह समष्टि स्वरूप है । यह महत् अर्थात् समष्टि बुद्धि , विस्तृत होकर व्यष्टी में मनोमयकोष और विज्ञानमयकोष है । व्यक्ति के अन्त:करण में आत्मा का एक प्रतिबिम्ब उसी प्रकार सृजित होता है जिस प्रकार दर्पण में व्यक्ति की एक छाया-प्रतिबिम्ब सृजित होता हैं । यह प्रतिबिम्ब ही व्यक्ति की ज्ञानशक्ति भी है , और यही आच्छादन भी है । उपरोक्त कथित भासित होने वाली ज्ञानशक्ति ही व्यक्ति का ज्ञान का करण भी है और पथभ्रमित होने का स्त्रोत भी है , यही अहंकार संज्ञा है । यह बाह्य वस्तुरूपों से तादात्म्य करके इच्छा बन जाता है । इच्छा से तादात्म्य करके इच्छापूर्ति की क्रिया का कर्ता बन जाता है , पाप-पुण्य की मन:वृत्तियों के साथ तादात्म्य करके सुख-दु:ख की अनुभूति का रूप धारण करता है । शास्त्र उपदेश करते हैं कि आच्छादन जिसे अविद्या कहा जाता है जिसे अज्ञान कहा जाता है जिसे माया कहा जाता है से मुक्त हो जाओ अपने स्वरूप में स्थापित करके जीवन यापन करना ही ज्ञ...

अभिव्यक्ति

शिक्षण-विधि-सोपान अभिव्यक्ति भगवती श्रुति आत्मा का बोध कराने के उद्देष्य से मनुष्य की शरीर को पाँच स्तरों नामत: अन्नमयकोष , प्राणमयकोष , मनोमयकोष , विज्ञानमयकोष , और आनन्दमयकोष में विभक्त करके उपदेश करती है । श्रुति भगवती ब्रम्ह का उपदेश करते हुये ब्रम्ह को सत् चित् आनन्द का उपदेश करती है । उपरोक्त कथित ब्रम्ह का सत् अंश मनुष्य का अन्नमयकोष और प्राणमयकोष द्वारा व्यक्त होता है , चित् अंश मनोमयकोष और विज्ञानमयकोष द्वारा व्यक्त होता है , तथा आनन्द अंश आनन्दमयकोष द्वारा व्यक्त होता है । माया शक्ति के तीन अभिव्यक्त रूप ज्ञानशक्ति मनोमयकोष और विज्ञानमयकोष द्वारा ज्ञानेन्द्रियों के साथ क्रियाशील होकर व्यक्त होती है , क्रियाशक्ति प्राणमयकोष   द्वारा कर्मेन्द्रियों के साथ क्रियाशील होकर व्यक्त होती है और इच्छाशक्ति अन्नमयकोष द्वारा व्यक्त होती है । सत् चित् आनन्दस्वरूप आत्मा उपरोक्त वर्णित समस्त अभिव्यक्तियों से विलक्षण है , यद्यपि कि उपरोक्त समस्त अभिव्यक्तियाँ आत्मा की ही हैं फिरभी आत्मा उपरोक्त समस्त से असंग है अछूता है । स्वरूप ज्ञान इसीलिये जीवन का सर्वोच्च श्रेयस पुरुषार्...

मिथ्यात्व निश्चय

शिक्षण-विधि-सोपान मिथ्यात्व निश्चय भगवती श्रुति सतत् जगत् के मिथ्यात्व का उपदेश करती हैं । उपरोक्त उपदेश का आधार , भगवती श्रुतियों में उपदेशित , इस जगत् का ब्रम्ह-अभिन्न-निमित्त-उपादान कारण है , है । उपरोक्त दोनो उपदेशों पर आधारित , जगत् के मिथ्यात्व की व्याख्या दो भिन्न दृष्टियों से इस प्रकार है , एक- सम्पूर्ण जगत् के , सत् के रूप में व्यक्त सकल जड-प्रपंच और चित् के रूप में व्यक्त सकल जीव प्रपंच , केवल ब्रम्ह ही है जो कि नाम-रूप-क्रियाकारिता द्वारा जड रूपों में आच्छदित है और पंचकोषों की उपाधियों से जीव प्रपंचों में आवृत्त है , दो- जगत् के दृष्य नाम-रूप-क्रियाकरिता से युक्त सकल जड प्रपंच , और पंच-कोषो से आवृत चेतना की अभिव्यक्ति करने वाले सकल जीव प्रपंच , केवल व्यवहारिक सत्य हैं , इनकी सत्ता आश्रित है , यह सभी सापेक्ष हैं , इन समस्त का आश्रय निरुपाधिक अविकारी अनन्त असंग आत्म-ब्रम्ह है । उपरोक्त दोनो व्याख्यायें एक ही तथ्य का दो दृष्टियों से निरूपण मात्र हैं । पहला ज्ञान की दृष्टि है , दूसरा अज्ञान की दृष्टि है । विचार करिये , क्या अज्ञान ज्ञान का आभाव है , अथवा एक...

स-उपाधिक निरुपाधिक

शिक्षण-विधि-सोपान स-उपाधिक निरुपाधिक निर्गुण निराकार असंग पारमार्थिक सत्य , माया की उपाधि से ईश्वर है , महत् की उपाधि से हिरण्यगर्भ है , पंचकोषों की उपाधि से जीव है । यह अद्भुद माया शक्ति एक अद्वयं ब्रम्ह-तत्व को तीन रूपों में प्रगट करती है । उपाधियाँ आरोपित हैं । ब्रम्ह तत्व निरुपाधिक सत्व है । जब उपाधिक जीव , उपाधिक जगत् के साथ व्यवहार करता है , तो लोक है । व्यवहार उपाधियों के परस्पपर में है । पारमार्थिक सदैव अ-व्यवहार्य है । पारमार्थिक तत्व का उपदेश करने की प्रक्रिया में , सत् चित् आनन्द अनन्त शब्दो का प्रयोग भगवती श्रुती करती हैं , परन्तु उपरोक्त शब्दों को ब्रम्ह-आत्मा के लक्षण के रूप में ग्रहण करना , भ्रामक है । उपरोक्त चारो शब्द एक ही स्थिति को इंगित करने वाले हैं । असत् का निषेध करने के लिये सत् , अचित् का निषेध करने के लिये चित् , परिच्छिन्नता का निषेध करने के लिये अनन्त , दु:ख-भय का निषेध करने के लिये आनन्द शब्द का प्रयोग है । सत्य आत्मस्वरूप निरुपाधिक है । जो स्वयंप्रकाश आनन्दस्वरूप है , उसका ज्ञानबोध ज्ञान-आनन्द-स्वरूपस्थ हो जाना है । जानना की पर्णति होने म...

स-विषेस और निर्विषेस

शिक्षण-विधि-सोपान स-विषेस और निर्विषेस मनुष्य को जगत् के वस्तु-रूपों का ज्ञान बोध , उनके धर्मों के ज्ञान के रूप में होता है । वस्तुरूपों के धर्मों का प्रत्यय , भोक्ता व्यक्ति के मन में वृत्ति रूप में होता है । प्रत्येक पंचमहाभूतों की तन्मात्रायें है । आकाश की तन्मात्रा शब्द है । इसका तात्पर्य है कि ध्वनि बोध का आश्रय आकाश है । ध्वनि मौलिक रूप में , संगीत-शास्त्र के नियम स रे गा मा प ध नी स के योग होने पर , गायन की विधि बन जाता है । गायन , ध्वनि की सविषेस अभिव्यक्ति है । इसी प्रकार प्रत्येक अन्य चार महाभूतों का विस्तार ग्रहण करना है । सविषेस अभिव्यक्ति विकारात्मक है । उपरोक्त समस्त विस्तार युक्त जगत् माया लोक है । उपरोक्त से विलक्षण आत्मा निर्विषेस है । तात्पर्य यह हुआ कि , कोई ऐसा लक्षण अथवा धर्म नहीं है , जिसके आश्रय से आत्मा का बोध कराने का उपदेश सम्भव है । इस कारण से ही ज्ञान के जिज्ञासु के लिये शास्त्र वाँक्षित प्रारम्भिक मानसिक योग्यता के रूप में , शान्त मन की सन्सतुति करते हैं । लोकव्यवहार में रत् व्यक्ति का मन , सविषेस ज्ञान-बोध का अभ्यस्त होता है । तात्पर्य है कि...

बौद्धिक प्रत्यय

शिक्षण-विधि-सोपान बौद्धिक प्रत्यय जब कभी भी हम काल की नित्यता की कल्पना करते हैं , अथवा आकाश की अखण्डता की कल्पना करते हैं , तो कल्प्य का भी प्रत्यय बनता है । उपरोक्त कथित कल्प्य प्रत्ययों का बौद्धिक प्रत्यक्ष होता है । इन्द्रीय प्रत्यक्ष होता है , मानसिक प्रत्यक्ष होता है , बौद्धिक प्रत्यक्ष होता है । उपरोक्त कथित समस्त तीन प्रत्यक्ष प्रत्यय पर आधारित ही होती है । परन्तु , उपरोक्त कथित कल्प्य देश अथवा कल्प्य काल का अधिष्ठान भी होगा , वह कल्प्य का अधिष्ठान ब्रम्ह होता है । उपरोक्त कथित कल्प्य देश अथवा कल्प्य काल का प्रकाशक आत्मा है । शास्त्र उपदेश करते हैं , कि उपरोक्त कथित कल्प्य का अधिष्ठान और कल्प्य का प्रकाशक , यह दो नहीं हैं , अपितु एक हैं , आत्मा-ब्रम्ह-ऐक्यं उपदेश है । ...... क्रमश:

प्रत्यय

शिक्षण-विधि-सोपान प्रत्यय आत्म-चैतन्य मस्तिष्क के मार्ग से इन्द्रियों पर्यन्त , पुन बाह्य-विषय पर्यन्त विस्तृत होता है । उपरोक्त विस्तृत चैतन्य से विषय भासित होता है । उपरोक्तानुसार भासित विषय , प्रत्यावर्तित होकर इन्द्रि के पथ से मस्तिष्क में वृत्ति-रूप में आता है । उपरोक्तानुसार मस्तिश्क में आयी हुई विषय वृत्ति को वस्तु-रूप-विषय प्रत्यय कहा जाता है । उपरोक्त कथित विषय-प्रत्यय-वृत्ति में जब आत्म-चैतन्य वेध करता है , तो वह विषय-ज्ञान बन जाता है । मस्तिश्क विषय-ज्ञान का स्थल होता है । विषय-ज्ञान-प्रक्रिया उपरोक्तानुसार होती है । उपरोक्तानुसार इन्द्रीय प्रत्यक्ष सदैव प्रत्यय मार्ग से होता है । उपरोक्त से यह निष्कर्श भी निकलता है कि , इन्द्रीय प्रत्यक्ष उन्ही विषयों का सम्भव हो सकता है जिसका मस्तिष्क में प्रत्यय बन सकता है । अन्यथा की स्थिति होने पर , इन्द्रीय प्रत्यक्ष नहीं सम्भव हो सकता है । ..... क्रमश:

शून्य और एक

शिक्षण-विधि-सोपान शून्य और एक भगवद्गीता में भगवान का उपदेश है , कि पुरुष और प्रकृति दोनो अनादि हैं । उपरोक्त उपदेश का सहज अर्थ है कि , पुरुष और प्रकृति दोनो को एक दूसरे की अपेक्षा है । अपेक्षा का स्वरूप इस प्रकार है , शक्ति बिना आश्रय के व्यक्त नहीं हो सकती है , और पुरुष निराकार है इसलिये बिना माया कल्पित रूप के वह अनुभवगम्य नहीं हो सकता है । उपरोक्त उपदेश की मीमांसा प्रशस्थ करती है कि दो अनन्त सम्भव नहीं हो सकते हैं , इसलिये पुरुष और शक्ति में एक आश्रय है दूसरी आश्रित है । अंक एक के आश्रय से अंक दो की स्थिति है । तो एक का आश्रय कहाँ हैं ? एक से एक घटाइये तो शून्य मिलता है । शून्य एक का आश्रय है । शून्य का आश्रय क्या है ? शून्य वह अनन्त सत्ता है जिसकी कोई अभिव्यक्ति सम्भव नहीं है , शून्य निरुपाधिक स्वयंभू सत्ता है , जहाँ उपाधियाँ हैं वह सत्ता नहीं है , वह सत्ता के आश्रित है । अहंकार आश्रित है , सत्ता आत्मा है । विडम्बना इतनी ही है , कि अहंकार और इन्द्रियाँ वहिर्मुख हैं , यह इनकी रचनागत् स्थिति है , यह बाहर के रूपों का ज्ञान कर सकती हैं , उनके साथ व्यवहार कर सकती है...