शून्य और एक


शिक्षण-विधि-सोपान
शून्य और एक भगवद्गीता में भगवान का उपदेश है, कि पुरुष और प्रकृति दोनो अनादि हैं । उपरोक्त उपदेश का सहज अर्थ है कि, पुरुष और प्रकृति दोनो को एक दूसरे की अपेक्षा है । अपेक्षा का स्वरूप इस प्रकार है, शक्ति बिना आश्रय के व्यक्त नहीं हो सकती है, और पुरुष निराकार है इसलिये बिना माया कल्पित रूप के वह अनुभवगम्य नहीं हो सकता है । उपरोक्त उपदेश की मीमांसा प्रशस्थ करती है कि दो अनन्त सम्भव नहीं हो सकते हैं, इसलिये पुरुष और शक्ति में एक आश्रय है दूसरी आश्रित है । अंक एक के आश्रय से अंक दो की स्थिति है । तो एक का आश्रय कहाँ हैं ? एक से एक घटाइये तो शून्य मिलता है । शून्य एक का आश्रय है । शून्य का आश्रय क्या है ? शून्य वह अनन्त सत्ता है जिसकी कोई अभिव्यक्ति सम्भव नहीं है, शून्य निरुपाधिक स्वयंभू सत्ता है, जहाँ उपाधियाँ हैं वह सत्ता नहीं है, वह सत्ता के आश्रित है । अहंकार आश्रित है, सत्ता आत्मा है । विडम्बना इतनी ही है, कि अहंकार और इन्द्रियाँ वहिर्मुख हैं, यह इनकी रचनागत् स्थिति है, यह बाहर के रूपों का ज्ञान कर सकती हैं, उनके साथ व्यवहार कर सकती हैं, परन्तु अन्तर्मुख नहीं हो सकती हैं । इस देह की सीमा से अन्दर और बाहर नहीं होता है । विचार करिये कि समुद्र में पानी है अथवा पानी में समुंद्र है । उत्तर है, पानी में समुद्र है । समुंद्र की उपाधि पानी पर आरोपित की गई है । यह सम्पूर्ण जड-जीव का जगत् मात्र आत्मा-ब्रम्ह की अभिव्यक्ति है । लोकव्यवहार उपाधियों में है । इसलिये ही शास्त्र सतत् उपदेश करते हैं कि जगत् मिथ्या है । सत्य ब्रम्ह है । माया का प्रलोभनों का शिकंजा इतना सशक्त है कि प्रत्येक व्यक्ति केवल उपाधियों में ही लिप्त है । यह संसार है । अनन्त आनन्द, अनन्त ज्ञानस्वरूप आत्मा है, प्रत्येक व्यक्ति का स्वरूप है, जिसमें न ही कोई जन्म है न ही कोई मृत्यु है, न ही कोई वृद्धि है, न ही कोई ह्रास है । ...... क्रमश:       

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