अभिव्यंजक आच्छादक


शिक्षण-विधि-सोपान
अभिव्यंजक आच्छादक यह पंचकोषों का मनुष्य शरीर आत्म-ब्रम्ह का अभिव्यंजक भी है और आच्छादक भी है । महत् की उपाधि से ब्रम्ह हिरण्यगर्भ है । यह समष्टि स्वरूप है । यह महत् अर्थात् समष्टि बुद्धि, विस्तृत होकर व्यष्टी में मनोमयकोष और विज्ञानमयकोष है । व्यक्ति के अन्त:करण में आत्मा का एक प्रतिबिम्ब उसी प्रकार सृजित होता है जिस प्रकार दर्पण में व्यक्ति की एक छाया-प्रतिबिम्ब सृजित होता हैं । यह प्रतिबिम्ब ही व्यक्ति की ज्ञानशक्ति भी है, और यही आच्छादन भी है । उपरोक्त कथित भासित होने वाली ज्ञानशक्ति ही व्यक्ति का ज्ञान का करण भी है और पथभ्रमित होने का स्त्रोत भी है, यही अहंकार संज्ञा है । यह बाह्य वस्तुरूपों से तादात्म्य करके इच्छा बन जाता है । इच्छा से तादात्म्य करके इच्छापूर्ति की क्रिया का कर्ता बन जाता है, पाप-पुण्य की मन:वृत्तियों के साथ तादात्म्य करके सुख-दु:ख की अनुभूति का रूप धारण करता है । शास्त्र उपदेश करते हैं कि आच्छादन जिसे अविद्या कहा जाता है जिसे अज्ञान कहा जाता है जिसे माया कहा जाता है से मुक्त हो जाओ अपने स्वरूप में स्थापित करके जीवन यापन करना ही ज्ञान है । ज्ञातव्य है कि व्यक्ति का अन्त:करण जब तक उसके स्वरूप का विशेषण रहता है तब तक यह प्रतिबिम्बित होने वाला चेतन, स्वरूप को आच्छादित करने वाला सिद्ध होता है । कंचिद प्रखर विवेक के आलम्बन से व्यक्ति अपने अन्त:करण को अपने स्वरूप की उपाधि बना लेता है तो ऐसा अन्त:करण ही स्वरूप का अभिव्यंजक हो जाता है । यह ज्ञान की दशा है । इस स्थल पर संगत उद्ध्वरण है कि अज्ञान आभाव सूचक नहीं हो सकता है क्योंकि आभाव की सिद्धी के लिये भी ज्ञान की अपेक्षा होती है । ...... क्रमश:

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