स-विषेस और निर्विषेस


शिक्षण-विधि-सोपान
स-विषेस और निर्विषेस मनुष्य को जगत् के वस्तु-रूपों का ज्ञान बोध, उनके धर्मों के ज्ञान के रूप में होता है । वस्तुरूपों के धर्मों का प्रत्यय, भोक्ता व्यक्ति के मन में वृत्ति रूप में होता है । प्रत्येक पंचमहाभूतों की तन्मात्रायें है । आकाश की तन्मात्रा शब्द है । इसका तात्पर्य है कि ध्वनि बोध का आश्रय आकाश है । ध्वनि मौलिक रूप में, संगीत-शास्त्र के नियम स रे गा मा प ध नी स के योग होने पर, गायन की विधि बन जाता है । गायन, ध्वनि की सविषेस अभिव्यक्ति है । इसी प्रकार प्रत्येक अन्य चार महाभूतों का विस्तार ग्रहण करना है । सविषेस अभिव्यक्ति विकारात्मक है । उपरोक्त समस्त विस्तार युक्त जगत् माया लोक है । उपरोक्त से विलक्षण आत्मा निर्विषेस है । तात्पर्य यह हुआ कि, कोई ऐसा लक्षण अथवा धर्म नहीं है, जिसके आश्रय से आत्मा का बोध कराने का उपदेश सम्भव है । इस कारण से ही ज्ञान के जिज्ञासु के लिये शास्त्र वाँक्षित प्रारम्भिक मानसिक योग्यता के रूप में, शान्त मन की सन्सतुति करते हैं । लोकव्यवहार में रत् व्यक्ति का मन, सविषेस ज्ञान-बोध का अभ्यस्त होता है । तात्पर्य है कि उपरोक्त स्थिति ही अहंकार का चित्रण है । लोकव्यवहार में व्यक्ति में जितने सविषेस अलंकार हैं, वह उस व्यक्ति की श्रेष्ठता का लक्षण होते हैं । इसलिये ज्ञान जिज्ञासा अर्थात् निर्विषेस का ज्ञान बोध का लक्ष्य, एक कठिन द्वंद व्यक्ति के लिये होता है । सविषेस स्थितियाँ उसने जीवन पर्यन्त पुरुषार्थ करके प्राप्त किया है । वह उसके भोग का त्याग कैसे कर सकता है । यह निश्चय ही कठिन स्थिति है । विडम्बना यह है कि सविषेस मन, निर्विषेस का बोध कैसे कर सकता है । मोक्ष का तात्पर्य अहंकार का मोक्ष नहीं होता है, अपितु अहंकार से मोक्ष होता है । सविषेस से मोक्ष ही, निर्विषेस में समाहित होना है । भगवती श्रुति अपने अमृतस्य पुत्रों को, निर्विषेस आत्मस्वरूप को प्राप्त कराने के उपरान्त अपना भी निषेध कर देती है, कहती है कि इसमें मेरा क्या अभिमान है, यह तो तुम्हे नित्य प्राप्त ही है । ...... क्रमश:    

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