द्वैतं भयं भवति


शिक्षण-विधि-सोपान
द्वैतं भयं भवति शास्त्र में सिद्धान्त निरूपित किया गया है, दवैतं भयं भवति, यह सहज ग्राह्य होने लायक सिद्धान्त है । बाह्य जगत् के नाम-रूप वस्तु का ज्ञानबोध व्यक्ति के मन में दो रूपों में होता है । एक कि वहां एक अमुक-वस्तु है । दो- वह अमुक-वस्तु-रूप मैं नहीं हूँ, यही द्वैत का सृजन है । वस्तुरूप एक ही है, परन्तु उसके ज्ञानबोध की दो क्षवियां व्यक्ति के मन में एक साथ सृजित होती हैं । उपरोक्त वर्णित स्थिति ही, इदं और अहं का स्वरूपबोध, मन में सृजित होता है । यह मायाशक्ति की लीला का फल है । इदं, अहं को छोडकर, पूरा जगत् है । अहं, मन में आत्मा की प्रतिबिम्बात्मक अनुभूति है । उपरोक्त वर्णित इदं भी मायाकल्पित है और अहं भी मायाकल्पित है । विचार की अपेक्षा है, किसी भी घटवस्तु में, घटरूप तो मात्र अभिव्यक्ति है जिसका सत्य मृद है, उसी प्रकार दर्पण में अनुभव होने वाला प्रतिबिम्ब तो मात्र अनुभूति है जिसका कोई अस्तित्व नहीं है और यही अहं है । उपरोक्त वर्णित इदं और अहं के मध्य जो परस्पर व्यापार चल रहा है, वही लोकव्यवहार का मिथ्या जगत् है । यह जगत् माया की लीला का रंगमंच मात्र है । उपरोक्त वर्णित अहं को इदं अच्छा लगा तो राग की उत्पत्ति हो गई, अहं को इदं बुरा लगा तो द्वैष की उत्पत्ति हो गई, इदं जो अच्छा लगा उसे पाने की इच्छा हो गई तो उसे पाने के लिये कर्म की उत्पत्ति हो गई, अहं कर्ता बन गया, कर्म का फल सृजत हुआ तो अहं फल का भोक्ता है । यह अनन्त माया की लीला का विस्तार है । ..... क्रमश:  

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