स-उपाधिक निरुपाधिक
शिक्षण-विधि-सोपान
स-उपाधिक निरुपाधिक निर्गुण निराकार असंग पारमार्थिक सत्य, माया की उपाधि से ईश्वर है,
महत् की उपाधि से हिरण्यगर्भ है,
पंचकोषों की उपाधि से जीव है । यह अद्भुद माया शक्ति एक अद्वयं ब्रम्ह-तत्व को तीन
रूपों में प्रगट करती है । उपाधियाँ आरोपित हैं । ब्रम्ह तत्व निरुपाधिक सत्व है ।
जब उपाधिक जीव, उपाधिक जगत् के साथ
व्यवहार करता है,
तो लोक है । व्यवहार उपाधियों के परस्पपर में है । पारमार्थिक सदैव अ-व्यवहार्य है
। पारमार्थिक तत्व का उपदेश करने की प्रक्रिया में, सत् चित् आनन्द अनन्त शब्दो का प्रयोग भगवती श्रुती करती हैं, परन्तु उपरोक्त शब्दों को ब्रम्ह-आत्मा के लक्षण के रूप
में ग्रहण करना, भ्रामक है । उपरोक्त चारो
शब्द एक ही स्थिति को इंगित करने वाले हैं । असत् का निषेध करने के लिये सत्, अचित् का निषेध करने के लिये चित्, परिच्छिन्नता का निषेध करने के लिये अनन्त, दु:ख-भय का निषेध करने के लिये आनन्द शब्द का प्रयोग है
। सत्य आत्मस्वरूप निरुपाधिक है । जो स्वयंप्रकाश आनन्दस्वरूप है, उसका ज्ञानबोध ज्ञान-आनन्द-स्वरूपस्थ हो जाना है ।
जानना की पर्णति होने में है । मोक्ष है । ........ क्रमश:
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