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फ़रवरी, 2019 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

निर्माण का विभाग

शिक्षण-विधि-सोपान निर्माण का विभाग कर्म का विभाग है । यह मस्तिष्क को आधार मानकर जीवन यापन है । मस्तिष्क माया-कल्पित-जगत् का अवयव है । मस्तिष्क वासना और सन्सकार से संचालित होता है । यह विकार का विभाग है । उपरोक्त कथित कारणों और आधार पर राग-द्वेष - ईर्ष्या-मत्सर आदि इस विभाग के अ-परिहार्य प्रभावी अवयव हैं । इस विभाग में , क्या है और क्या होना चाहिये दोनो होते है । क्या है , वह लोकव्यवहार है । क्या होना चाहिये , वह धर्म का क्षेत्र है । इस विभाग में कर्ता होता है । इस विभाग में पाप-पुण्य हैं । इस विभाग में कर्म-कर्मफल हैं । इस विभाग में तारतम्य है । इस विभाग में कर्ता कर्म कर्म-प्रक्रिया , ज्ञाता ज्ञेय ज्ञान प्रक्रिया , भोक्ता भोज्य भोजन प्रक्रिया , जागृतदशा स्वप्नदशा सुशुप्ति दशायें हैं । यह सापेक्षता का लोक है । यह परिवर्तनों का विभाग है । इस विभाग में जन्म और मृत्यु हैं । ...... क्रमश:    

सत्य ब्रम्ह

शिक्षण-विधि-सोपान सत्य ब्रम्ह पारमार्थिक सत्य ब्रम्ह है । ब्रम्ह का निरूपण शास्त्रों में सत् चित् आनन्द द्वारा किया गया है । सत् शब्द से व्यक्त होता है , ब्रम्ह स्वरूप का वह पहलू जिसे स्थिति कहा जाता है । स्थिति अर्थात् काल की सीमा से परे है । प्रश्न उठेगा कि यह स्थिति जड भी हो सकती है । इस जडता का निषेध करने के लिये चित् है । यह सत् चित् देश अर्थात् आकाश की सीमा से भी अतीत है । इस व्यापकता को व्यक्त करने के लिये अनन्त है । जीव-व्यक्ति की बौद्धिक क्षमता देश , काल और पदार्थ अर्थात् वस्तु की सीमा के साथ बद्ध है , क्योंकि यह माया का अवयव है । तीन स्तर हैं । पहली सीमा आकाश है । दूसरी सीमा माया है । तीसरी सीमा उपरोक्त दोनो सीमाओं से अतीत है । वह ब्रम्ह है । उपरोक्तानुसार सत्य समस्त ज्ञात सीमाओं से अतीत है । ऐसे सत्य तत्व का ज्ञान-बोध इस सीमित क्षमता के माया निर्मित मस्तिष्क द्वारा करना अति विलक्षण लक्ष्य है । यह प्रमाण अर्थात् ज्ञान के साधन , ज्ञान के माध्यम् के सम्भव नहीं है । श्रुतियाँ वह प्रमाण हैं , जो व्यक्ति को उपरोक्त कथित् सत्य का साक्षात् अपरोक्ष ज्ञान कराती हैं । श्रुति...

ब्रम्हसूत्र

शिक्षण-विधि-सोपान ब्रम्हसूत्र समस्त फैला हुआ माया-कल्पित-जगत्-प्रपंच और समस्त फैला हुआ माया-कल्पित-जीव-प्रपंच दोनो ही , एक उभयनिष्ठ सत्य-आश्रय-ब्रम्ह द्वारा उसी प्रकार जुडा हुआ है , जिस प्रकार एक माला में अनेको मणियाँ एक सूत्र के माध्यम् से जुडी हुई रहती हैं । ब्रम्हसूत्र एक ग्रन्थ का भी नाम हैं । अ-द्वैत वेदान्त के तीन स्तम्भ-ग्रन्थ हैं , एक- ब्रम्हसूत्र , दो- दस-उपनिषद , तीन- भगवद्गीता । ब्रम्हसूत्र ग्रन्थ के रचयिता ऋषि वेदव्यास हैं । इसमें अद्वैत वेदान्त के दर्शन का निरूपण है । इसमें श्रुतियों के मन्त्रों के तात्पर्य का निर्णय है । यह सभी सम्प्रदायों नामत: वैष्णव , शैव , शाक्य , गाणपत्य को मान्य है , सभी के आचार्यों द्वारा समादरित है । द्वैत मतावलम्बी आचार्य माधवाचार्यजी कहते हैं कि ब्रम्हसूत्र के प्रत्येक सूत्र को ॐ शब्द द्वारा सम्पुटित कर दिया जाय , कितना आदर सूचक अभिव्यक्ति है । इस ग्रन्थ में पाँच सौ पछपन सूत्र हैं । प्रत्येक सूत्र का विषय वाक्य , उपरोक्त कथित दस उपनिषदों के विभिन्न मन्त्र है । विषय वाक्य का अर्थ है , कि उपनिषदों के वह मन्त्र जिनकी व्याख्या विभि...

मस्तिष्क बन्धन मोक्ष

शिक्षण-विधि-सोपान मस्तिष्क बन्धन मोक्ष मस्तिष्क की स्थित ही बन्धन है । मस्तिष्क की स्थित ही मोक्ष है । जो मस्तिष्क जगत् के विषयों में आसक्त है , वह बन्धन में है । जो मस्तिष्क जगत् के विषयों से मुक्त है , वह मोक्ष है । आसक्ति क्या है ? विषय प्रिय है अथवा अप्रिय है , यही आशक्ति है । आत्मा शुद्ध ज्ञान स्वरूप है । जो ज्ञान अनात्म से सन्लग्न है , वह अज्ञान है , मोह है , बन्धन है । आत्मा ही विषय भी है , आत्मा ही वस्तु भी है । मस्तिष्क की ज्ञान क्षमता इन्द्रीयों के माध्यम से आहरित वृत्तियों द्वारा है । यह भ्रान्ति का आहरण है । विवेक अपेक्षित है । वैराग्य अपेक्षित है । क्यों है ? उपरोक्त वर्णित कारण से है । .... क्रमश:

जीव-जगत्-ईश्वर

शिक्षण-विधि-सोपान जीव-जगत्-ईश्वर यह त्रिकुटी है । यह तीनों ही आत्मा की उत्पत्ति हैं । आत्मा ही तीनों के रूप में अपने को व्यक्त करती है । माया भोक्ता जीव और भोज्य जगत् की संधि कराती है । ईश्वर अर्थात् माया सहित ब्रम्ह है । भोक्ता जीव और भोज्य जगत् दोनो ही प्रकृति हैं । शास्त्र उपदेश करते हैं , कि आत्मा से आकाश की उत्पत्ति होती है । पुन: उत्पत्ति क्रम विस्तृत होते हुये क्रमश: वायु , अग्नि , आपा , पृथ्वी , औषधय: , अन्नं , प्रजा समस्त जगत् सृजित हो जाता है । माया शक्ति उपरोक्त सृजित प्रजा और भोज्य जगत् में परस्पर व्यवहार कराती है । यह समस्त अवयव मृत्यु से आवृत्त है । परन्तु उपरोक्त त्रिकुटी से विलक्षण , त्रिकुटी से परे सत्य आत्मा है । इस पारमार्थिक आत्मतत्व के साक्षात् के लिये व्यक्ति को उपरोक्त त्रिकुटी से परे जाना है । इन्द्री-मस्तिष्क को लाँघना है । प्रकृति से परे जाना है । माया को अतिक्रनित करना है । उपरोक्त समस्त ही आत्मा को आच्छादित किये हुये हैं । आत्मा तो सदैव उपलब्ध है । व्यक्ति बाह्य प्रकृति में इतना संलग्न है , कि उसे आत्मा के दर्शन के लिये समय नहीं है , अपेक्षा ...

योनिगत:

शिक्षण-विधि-सोपान योनिगत: काठ अर्थात् लकडी के गर्भ में अर्थात् योनि में , अग्नि विद्यमान रहती है , परन्तु वह व्यक्त नहीं होती है । जब अग्नि रूपधारी होती है , तब व्यक्ति को उसका सज्ञान सम्भव होता है । पुन: जब अग्नि का व्यक्त रूप समाप्त हो जाता है , पुन: काठ अपने स्वरूप में अग्नि को समाहित किये हुये है , परन्तु दृष्टा व्यक्ति को अग्नि उस काठ में नहीं दीखती है । योनि का अर्थ गर्भ भी होता है , योनि का अर्थ कारण भी होता है । कारण ही व्यक्त दशा में कार्य है । कार्य ही अव्यक्त दशा में कारण है । यह दृष्य जगत् , हमारी ही आत्मा से व्यक्त रूप में उपस्थित होता है । यह दृष्य जगत् , अव्यक्त दशा में हमारी ही आत्मा में समाहित हो जाता है । उपरोक्त वर्णित दशा प्रत्येक व्यक्ति के साथ नित्य घटित होती है , केवल व्यक्ति विचारशील नहीं है । ..... क्रमश:

ज्ञाता ज्ञेय ब्रम्ह

शिक्षण-विधि-सोपान ज्ञाता ज्ञेय ब्रम्ह आत्मा ही ज्ञाता भी है । आत्मा ही ज्ञेय भी है । उपरोक्त तथ्यात्मक स्थिति के होते हुये भी, भ्रान्ति द्वैत दर्शन द्वारा जगत् का प्रत्येक जीव ग्रसित है । यही माया है । जो नहीं है, उसे माया अनुभूत कराती है । यह अति विज्ञानमय लीला है । इससे उबरने में ही मोक्ष पुरुषार्थ है । इन्द्रियों की रचनागत स्थिति है कि वह सत्य का दर्शन नहीं कर सकती है । समस्त द्वैत मस्तिष्क से सृजित होते हैं । जब सुशुप्ति की दशा में व्यक्ति होता है, मस्तिष्क नहीं होता है, कोई द्वैत नहीं रहता है । प्रत्येक व्यक्ति कितनी शान्ति और सुख की अनुभूति करता है । विडम्बना इतनी ही है कि उस अद्वैत की स्थिति का व्यक्ति को ज्ञान नहीं रहता है । यदि जागृत दशा में व्यक्ति उस सुशुप्ति वाले अद्वैत की स्थिति को प्राप्त कर सके तो वह ज्ञान की स्थिति है । परन्तु जहाँ मस्तिष्क जागृत हुआ, तत्काल अहंकार उपस्थित, फलत: एक मिथ्या ज्ञाता-कर्ता तैयार और द्वैत उपस्थित है । यही माया का विज्ञान है । यही माया का जाल है । उसी मस्तिष्क से ज्ञान की दशा को पाना भी है, और वही मस्तिष्क ही ज्ञान की बाधा भी है । इस कार...

द्वैत दर्शन

शिक्षण-विधि-सोपान द्वैत दर्शन अद्वैत वेदान्त अर्थात् पारमार्थिक सत्य एक है , का विमोचन करने वाला दर्शन है । लोकव्यवहार का प्रत्येक अनुभव द्वैत है । द्वैत का क्षेत्र व्यापक है । दृष्टा-दृष्य एक द्वैत है , आत्मा-अनात्मा एक द्वैत है , ज्ञाता-ज्ञेय एक द्वैत है , जीव-ईश्वर एक द्वैत है , इस प्रकार समस्त लोकव्यवहार द्वैतों से संचालित हो रहा है । पारमार्थिक सत्य ब्रम्ह एक है । जीव शरीर में पारमार्थिक आत्मा है । आत्मा ब्रम्हस्वरूप है । इस अनन्त ब्रम्ह को , जीव इस देह पर्यन्त सीमित मानता है , जानता है । यह अज्ञान है । यह भ्रान्ति है । द्वैत भयं भवति यह शास्त्र उपदेश है । इस द्वैत दर्शन के फल से ही जीव मृत्यु से भयभीत है । सत्य को न जानना अज्ञान है । किसी असत्य को सत्य जानना भ्रान्ति है । भ्रान्ति में ही भ्रमण है । जीवन मृत्यु का चक्र है । अपने अनन्त आत्मतत्व का ज्ञान ही मुक्ति है । भ्रमण से मुक्ति है । जन्म-मृत्यु से मुक्ति है । मोक्ष है । मोक्ष पुरुषार्थ कोई कर्म नहीं है , अपितु भ्रान्ति का निवारण ही जीवनमुक्ति है , मोक्ष है । अष्टधा प्रकृति के प्रत्येक अवयव गुणधारी हैं । गुण बन...

प्रकृति अष्टकम्

शिक्षण-विधि-सोपान प्रकृति अष्टकम् ब्रम्ह की सृजनात्मक शक्ति का ही नाम प्रकृति है , माया है । यह प्रकृति आठ अवयवों के माध्यम से इस माया कल्पित जगत् का संचालन कर रही है । अष्टधा प्रकृति , पंच महाभूत नामत: आकाश , वायु , अग्नि , जल और पृथ्वी , तथा तीन नामत: मन , बुद्धि एवं अहंकार जो कि जीव कोटि के अन्त:करण के नाम से विख्यात हैं , के माध्यम से ही इस जड-जीव-युक्त मायालोक का संचालन कर रही है । उपरोक्त कथित अष्टधा प्रकृति ही इस माया लोक के भोक्ता और भोज्य हैं , ज्ञाता और ज्ञेय है , कर्ता और कर्म हैं । उपरोक्त कथित अष्टधा प्रकृति के मायलोक की उपलब्धि जीव कोटि के मनुष्य को , पाप और पुण्य के रूप में होती है । यह अर्जित पाप और पुण्य ही जन्म और मृत्यु के हेतु हैं । यह अनन्त चक्र है । यह अज्ञान का चक्र है । अज्ञान अनादिकालीन है । परन्तु उपरोक्त कथित अनादिकालीन अज्ञान का अन्त ज्ञान द्वारा सम्भव है । इसलिये ही शास्त्र ब्रम्ह जिज्ञासा का उपदेश करते हैं । ...... क्रमश:

सन्यास

शिक्षण-विधि-सोपान सन्यास गेरुआ वस्त्र पहनना , सन्यास नहीं है । शिशु का जन्म होता है । वह नवजात शिशु अपने साथ पूर्व के अनन्त जन्मों के संचित संस्कारों की एक बडी सम्पदा को लेकर आया है । उपरोक्त कथित सम्पदा में , उसके संचित कर्म फल हैं । पूर्व के जन्मों में उसके पाप और पुण्य कर्मों से जनित कर्म फलों का संचय है । इन्ही संचित कर्म फलों को ही , भाग्य की संज्ञा समाज देता है । इन्ही को उसकी कारण शरीर बताया जाता है । इन्ही को ज्ञान उपदेश के प्रसंगो में वासना कहा जाता है । जो शिशु , परिवर्तनों से मार्गी होते हुये , अपनी प्रौढता पर तत्व ज्ञान की जिज्ञासा करता है , उसके लिये वाँक्षना के रूप में , एक नीयत बौद्धिक क्षमता का निर्धारण करते हुये , सन्यास को बताया जाता है । सन्यास , उपरोक्त वर्णित संचित कर्म-फलो की संपदा का त्याग है । उपरोक्त वर्णित संचित कर्म फलों की वासना से ही उसके मस्तिष्क में अनन्त अनियन्त्रित वृत्तियाँ गति करती हैं । जब तक उपरोक्त वर्णित वासना वृत्तियाँ अंकुश नहीं की जायेंगी , तब तक वह सूक्ष्म तत्व ज्ञान को स्पर्ष नही कर सकता है । उपरोक्त समस्त विवरण अनुसार , संचित ...

सादृष्य

शिक्षण-विधि-सोपान सादृष्य समुंद्र है । उसमें लहरे हैं । लहरे छोटी है । लहरे बडी है । नयी लहरो का उदय हो रहा है । लहरों का लय हो रहा है । लहरों में गति है । सुनामी लहर का भयावह आतंक है । छोटी लहर को बडी लहर से ईर्ष्या है । लहरो में स्पर्धा है । उदय है । लय है । त्रास है । भय है । संताप है । किसी ने उपरोक्त समस्त की शिकायत समुद्र से किया , तो समुंद्र उत्तर देता है , लहरे तो मेरा वैभव हैं । बेचारा शिकायतकर्ता जाकर जल से कहता है , कि तुम्हारा समुद्र अति अशिष्ट है । पानी शिकायतकर्ता की बाते सुनकर हंसता है , कहता है कि मैं तो सदैव जल हूँ , यह सब नाम समुंद्र , लहरे , छोटी बडी तो तुमने रख लिये हैं , तुम स्वयं इन नामों में उलझे हो , तुम ही जानो , मैं तो सदैव एक हूँ , जल है । आत्मा के सत्यत्व पर यह क्रीडा करता हुआ यह मायालोक जगत् भी उपरोक्त दृष्टान्तवद् ही है । ....... क्रमश:

आवृत्त चक्षु

शिक्षण-विधि-सोपान आवृत्त चक्षु शास्त्र ज्ञान के साधक के लिये, साधना अवधि में, साधक को मार्ग देते हैं, कि आवृत्त चक्षु, अर्थात् चक्षु जो कि स्वाभाविक रूप से बाह्य दृष्य जगत् के विषयों की ओर प्रवृत्त हैं उनकी दिशा को घुमा कर आत्मदेश की ओर प्रवृत्त करना है । चक्षु तो मात्र उपकरण हैं । ज्ञानबोध तो मस्तिष्क में होता है । इसलिये उपरोक्त उपदेश का लक्ष्य मस्तिष्क के लिये है, ऐसा अर्थ साधक के ग्रहण करना अपेक्षित है । मस्तिष्क को, मस्तिष्क में गति करने वाली वृत्तियों का, मस्तिष्क द्वारा निरीक्षण करना, उपरोक्त उपदेश का भाव है । उपरोक्त प्रयत्न का लक्ष्य है, मस्तिष्क में बहुतायत गति करने वाली वृत्तियों को अंकुश करना है । यह वैराग्य का चित्रण है । साधक को बाह्य जगत् के विषयों से विमुख कर, उसे आत्मदेश की ओर प्रवृत्त करना है । बाह्य मायालोक में परिवर्तन है, त्रास है, अस्थिरता है । आत्मदेश में पारमार्थिक शान्ति है । जब तक नदी में बाढ की विभीषिका है, उसकी धारा को अंकुश करना दुष्कर साधना है । वैराग्य कोई जगत् का त्याग नहीं है । जब तक जीव है, जीवन है, तब तक वह जगत् का त्याग कैसे कर सकता है, उसे भूख...

ब्रम्हज्ञान

शिक्षण-विधि-सोपान ब्रम्हज्ञान जगत् के सम्पूर्ण जड प्रपंच और जीव प्रपंच की उत्पत्ति आत्मा से हुई है , यह शास्त्र उपदेश है । इसलिये ब्रम्ह का अनुसंधान करने के लिये किसी स्थान विशेष अथवा काल विशेष की वाँक्षना नहीं है । सम्पूर्ण जगत् ब्रम्ह की ही अभिव्यक्ति है । वस्तुरूप जगत् में बहुरूपता है । इसलिये बहुरूपता में एकता का शोध करने में , जिज्ञासु पथ भूल जाता है , भटक जाता है । इसलिये गुरू उपदेश करते हैं , कि ब्रम्ह का अनुसंधान अपने हृदयदेश में करों , वहाँ एकता है । जिस चेतन सत्ता से सम्पूर्ण जगत् उदय हुआ है , वह तुम्हारी आत्मा के रूप में तुम्हारा स्वयं अपना स्वरूप है । यह आत्मस्वरूप केवल अहंकार के भ्रामक अज्ञान से आवृत्त है , ढका हुआ है । यह माया की लीला का फल है । शास्त्र उपदेश जिज्ञासु के उस आवृत्त करने वाले अज्ञान को हटा देते हैं , आत्मज्ञान तो स्वयं प्रकाश है , उसके ज्ञान के लिये किसी अन्य प्रकाश की वाँक्षना नहीं होती है । किसी कर्म की अपेक्षा नहीं है । अज्ञान का नाश ही ज्ञान की प्राप्ति है । उपरोक्त अभिव्यक्ति में , प्राप्ति भी भ्रामक शब्द है , आत्मज्ञान कोई प्राप्ति नह...

द्वैत दर्शन ही बन्धन

शिक्षण-विधि-सोपान द्वैत दर्शन ही बन्धन जब तक मनुष्य अपनी देह को ही अपना रूप जानता है मानता है, तब तक वह इस दृष्य जगत् को ही सत्य जानता है । यही इतना ही उसका बन्धन है । यही अज्ञान है । यही भ्रम है । यही मोंह है जिसे वह छोड नहीं पाता है । वह नित्य देखता है, कि इस देह में रोग लगते हैं, यह वृद्ध होती है, इसकी मृत्यु होती है, परन्तु वह इसी देह के सुख के लिये ही समस्त पुरुषार्थ में जन्म से मृत्यु पर्यन्त संलग्न है । इससे बडा और क्या मोंह सम्भव हो सकता है । शास्त्र उपदेश करते है, मोक्ष पुरुषार्थ ही मनुष्य का सर्वोच्च लक्ष्य है । अज्ञान की निवृत्ति ही ज्ञान की प्राप्ति है । सर्वोच्च विडम्बना यही है , कि मनुष्य अपने मोंह का त्याग नहीं कर पाता है । ...... क्रमश:      

तीन आकाश

शिक्षण-विधि-सोपान तीन आकाश शास्त्रों में तीन आकाश का उल्लेख है । पहला स्थूल आकाश है, इसकी उत्पत्ति आत्मा से होती है । दूसरा चित्त-अकाश है । यह माया है । यह स्थूल आकाश से सूक्ष्म है । तीसरा चिदाकाश है । यह ब्रम्ह है । यह सूक्ष्मतम है । मनुष्य स्थूल आकाश में स्थित है । उसका चर्मोत्कर्श गन्तव्य लक्ष्य चिदाकाश है । उपलब्ध साधन उसका अन्त:करण है । जो व्यक्ति शास्त्र प्रमाण के आश्रय से, धर्मपुरुषार्थ द्वारा अपने अन्त:करण को परिष्कृत करके, सत्य के अनुसंधान में, तत्वज्ञानी गुरू की शरण ग्रहण करके, तपस्या करता है, वह माया को अतिक्रमित करने में सफल होता है । आत्मज्ञान कोई प्राप्ती नहीं है । वह तो नित्य प्राप्त ही है । केवल माया को लांघना ही ज्ञान की प्राप्ति है । माया से आत्मा आवृत्त है । ....... क्रमश:   

बहुरूपता माया कल्पित

शिक्षण-विधि-सोपान बहुरूपता माया कल्पित शास्त्र उपदेश है , कि जब यह जगत् नहीं था , तब केवल ब्रम्ह की सत्ता थी । उसने देखा कि मैं अकेला हूँ , उसने अपने को बहुरूप करने का मन: संकल्प किया , उसकी अपनी आत्म-माया ने तत्काल उसकी छाया सदृष्य हिरण्यगर्भ को सृजित किया है । हिरण्यगर्भ नें अपने को इस जगत् के रूप में विस्तृत किया है । ब्रम्ह ने अपने को , इस दृष्य जगत् के विषय और वस्तु के द्वैत रूप में प्रस्तुत किया है । उपरोक्त वर्णित द्वैत को सत्य मानने वाला अहंकार पोषित मनुष्य ही बन्धन में है । अनन्त ब्रम्ह को , एक स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीर की सीमा में सीमित बनाने वाला अहंकार , विषयों के मोंह से ग्रसित है । वह न ही वस्तुरूपों के अस्तित्व , और न ही अपनी आत्मा को जान पाता है । उसकी अपूर्णता की अनुभूति , उसे पूर्णता की चेष्टा में संलग्न करती है । काम-क्रोध , राग-द्वेष , ईर्ष्या-मत्सर से व्याप्त हो जाता है । अपूर्णता किसी भी पुरुषार्थ से पूर्ण नहीं बन सकती है । परन्तु यह विवेक जागृत होने के लिये बहुत पुण्य की अपेक्षा होती है । माया का बन्धन बहुत शक्तिशाली है । सत्य का अनुसरण करने की काम...

दृष्टिभ्रम और मोंह

शिक्षण-विधि-सोपान दृष्टिभ्रम और मोंह इस दृष्य जगत् का प्रत्येक अवयव नामत: समस्त जड प्रपंच और समस्त जीव प्रपंच मात्र दृष्टिभ्रम हैं । यह माया का कौशल है । ब्रम्ह की कुशल मानसिक क्षमता है । ब्रम्ह की सशक्त सृजनात्मक शक्ति है । उपरोक्त वर्णित जगत् को सत्य मानने वाला अहंकार पोषित मनुष्य , जगत् के नाम-रूप वस्तुओं के मोंह से ग्रसित है । वह मनुष्य इस काल से बाधित जगत् में सुरक्षा खोजता है । परन्तु उसे मिलती नहीं है । वह आनन्द खोजता है । परन्तु उसे मिलता नहीं है । विषय गुणात्मक प्रकृत निर्मित हैं । इसलिये बन्धनकारी उनका स्वभाव है । अर्थपुरुषार्थ की साधना त्रासदाओं की सम्पदा के श्रोत हैं । व्यक्ति जन्म से मृत्यु पर्यन्त पुरुषार्थ करता है । परन्तु अपनी उपलब्धि से तृप्त नहीं होता है । यह सब गुणात्मक प्रकृति की लीला है । ...... क्रमश:

चैतन्य सत्ता

शिक्षण-विधि-सोपान चैतन्य सत्ता शास्त्र उपदेश है , कि जब कुछ भी नहीं था , अर्थात् जगत् की उत्पत्ति नहीं थी , तब भी सत् अर्थात् सत्ता ही केवल सर्वत्र थी । उपरोक्त अभिव्यक्ति में जब “ था ” शब्द का प्रयोग किया जाता है , तो काल उपस्थित हो जाता है , परन्तु स्थिति को व्यक्त करने के लिये शब्दों का प्रयोग करना होता है । उपरोक्त अभिव्यक्ति का अभिप्राय यह है कि जब कोई जगत् नहीं था तब भी सर्वव्याप्त सत् था , अर्थात् केवल सत् ही था । उस सत् ने देखा कि , मैं अपने को अनेक के रूप में विस्तृत करूं , यह शास्त्र उपदेश है । उपरोक्त से विदित हैं कि सत् कोई जड सत्ता नहीं अपितु चेतन सत्ता है । उपरोक्त चेतन सत्ता ने जब अपने को अनेक रूपों में व्यक्त किया , तो विदित है कि व्यक्त हुये रूपों की उपादानिता उस चेतनसत्ता से ही प्राप्त हुई है । वह चेतनसत्ता प्रत्येक व्यक्त रूपों में अनुश्रूत है । इतना ही नहीं , प्रत्येक रूप के उदय होने में जिस बौद्धिक कौशल की वाँक्षना थी , उसकी पूर्ति भी उस चेतनसत्ता से ही सम्भव हुई है । उपरोक्त वर्णन अनुसार ही , पारमार्थिक चेतनसत्ता ही इस सम्पूर्ण जगत् का उपादान कार...

देश क्या है काल क्या है

शिक्षण-विधि-सोपान देश क्या है काल क्या है एक साथ दो स्थितियाँ हैं , उनके मध्य का भेद आकाश है । दो क्रमबद्ध स्थितियों के मध्य का भेद काल है । स्थितियाँ क्या हैं ? सर्व विभू: सत् ब्रम्ह को व्यक्त होने के लिये रूप की आवश्यकता होती है । सत् निराकार है । सर्व विभू: है अर्थात् सर्वत्र है । सत् की विभक्ति सम्भव नहीं है । उपरोक्त सत् जिन रूपों में व्यक्त होता है , वह रूप केवल सत् की अभिव्यक्ति का माध्यम हैं , माया कल्पित हैं , रूप सत् नहीं है , वह परिवर्तन के अधीन है । रूप की सत्ता , सत् के आश्रय से   उपरोक्त विवरण से स्पष्ट विदित है , कि देश और काल जिन्हे कि लोकव्यवहार में क्रमश: अखण्ड और व्यापक सत्ता कहा जाता है , वह देश और काल सत् ब्रम्ह को स्पर्ष भी नहीं कर सकते हैं । देश और काल की उत्पत्ति सत् में होती है । कब होती है ? जब हिरण्यगर्भ , जो कि सत् की छाया हैं , अर्थात् जब माया शक्ति क्रियाशील होती है , तो वह हिरण्यगर्भ को अनेक के रूप में विस्तृत कर देती है , यह नाम-रूप-जगत् अस्तित्वमान हो जाता है । ..... क्रमश:

सत् और असत्

शिक्षण-विधि-सोपान सत् और असत् सत्ता , जो स्थित है , वह सत् है । जिसकी स्थित नहीं है , वह असत् है । प्रश्न उठेगा कि स्थिति क्या है ? स्थिति क्या गुण है ? नहीं स्थिति गुण नहीं है , गुण सदैव सत्ता से भिन्न होता है । दृष्टान्त , नील-कमल में नीलिमा कमल का गुण है जो कि कमल से भिन्न है । सत्ता कमल की है । लाल कमल भी होता है । उपरोक्त दृष्टान्त से भिन्न , सत्ता स्थिति सर्वव्यापी होती है । अत: वह गुण नहीं है । हाँ यह अवश्य है , कि सत् को व्यक्त होने के लिये किसी रूप माध्यम की अपेक्षा होती है । दृष्टान्त , कोई भी वस्तु-रूप है । उस वस्तु-रूप का सत्यत्व उसके प्रत्येक कण में व्याप्त होता है । उपरोक्त स्थिति को ही कहा जाता है , कि जगत् के रूप में भासित होने वाले वस्तु-रूप माया हैं , जिनका सत्यत्व सत् जो कि ब्रम्ह है , आवृत्त है । सत् का प्रारम्भ और अन्त सम्भव नहीं है । इसलिये ही ब्रम्ह अविनाशी है । सत् में विकार सम्भव नहीं है । इसलिये ही ब्रम्ह निर्विकार है । सत् का कोई संकोचक नहीं हो सकता है । इसलिये ही ब्रम्ह अनन्त है । सत् निराकार है । कोई भी रूप-आकार सत् के सत्यत्व से ही इन्द्...

विषय वस्तु द्वैत

शिक्षण-विधि-सोपान विषय वस्तु द्वैत जगत् की व्यक्तदशा में ब्रम्ह ही जगत् के रूप में भासित होता है । भासमानिता का प्रकाशक आत्मा है । आत्मा और ब्रम्ह एक ही सत्य के दो नाम है । भासित होने वाले जगत् के नाम-रूप माया कल्पित हैं । आत्मा जीव शरीर के माध्यम से जगत् को प्रकाशित करता है । जीव भी माया कल्पित है । उपरोक्तानुसार जगत् में , अहंकार पोषित विषय और जगत् के वस्तु-रूप दोनो ही माया कल्पित हैं । उपरोक्त वर्णित विषय और वस्तु का द्वैत माया कल्पित है । उपरोक्त अहंकार से पोषित विषय और नामरूप-वस्तु के सत्यत्व की अनुभूति ही अज्ञान है । आत्म-चैतन्य ही जीव और जगत् दोनो ही रूपों का सत्यत्व है । माया के विज्ञान से सत्य आवृत्त है । वस्तु का सत्यत्व , उसका अस्तित्व , उसके रूप-नाम से आवृत्त हैं । जीव का स्वरूप उसके भ्रान्ति अहंकार से आवृत्त है । उपरोक्त वर्णित आवृत्त सत्य का विमोचन शास्त्र प्रमाण द्वारा सम्भव होता है । ...... क्रमश:      

लय प्रलय

                       शिक्षण-विधि-सोपान लय प्रलय व्यक्ति जब सुशुप्ति की दशा में होता है , उसका मस्तिष्क अव्यक्त दशा में होता है , यह लय है । व्यक्त-दशा और अव्यक्तदशा का चक्र है । यह सतत् गतिमान रहता है । व्यष्टि स्तर पर लय है , समष्टि स्तर पर हिरण्यगर्भ जो कि समष्टि मस्तिष्क हैं , वह जब सुशुप्ति में जाते हैं , तो वह प्रलय की दशा है । लय की दशा में व्यक्ति के लिये कोई जगत् नहीं है । प्रलय की दशा में सम्पूर्ण जगत् अव्यक्तदशा में चला जाता है । इसीलिये सृष्टि की उत्पत्ति भी चक्रीय व्यवस्था है । न ही कोई उत्पत्ति है । न ही कोई विध्वंस है । केवल व्यक्तदशा है । अव्यक्तदशा है । शाश्वत् आत्मा जो कि ज्ञान स्वरूप है , वह पारमार्थिक सत्य है । यह दृष्य जगत् , उस पारमार्थिक आत्मज्ञान में , उदय होता है , कालान्तर से लय हो जाता है । इस जगत् की सत्ता स्वप्नवद् है , जो उदय होता है , लय होता है । इस उदय और लय के सादृष्य से , शास्त्र उपदेश यह बोध कराते हैं , कि यह दृष्य जगत् भी ...

आत्मा सर्वस्य

शिक्षण-विधि-सोपान आत्मा सर्वस्य विगत माया-कल्पित-जगत्-सोपान का सम्पूर्ण विवरण जो प्रस्तुत किया गया भोज्यकरण , दृष्टा-दृष्य-जगत् का प्रत्येक अवयव का उद्भव आत्मा से होता है । देश , काल , कार्य-कारण इन तीनो का उद्भव आत्मा से है । उपरोक्त समस्त का उद्भवश्रोत होते हुये भी , आत्मा उपरोक्त समस्त से असंग है , निर्लिप्त है । माया , आत्मा की सृजनात्मक शक्ति है । माया में दो शक्तियाँ निहित हैं , एक- आवरण शक्ति है , दो- विक्षेप शक्ति है । आवरण शक्ति से माया सत्य , अर्थात् आत्मा को ढक देती है । विक्षेप शक्ति से माया आत्मा को , ज्ञाता-ज्ञेय-ज्ञान के त्रिकुटी के रूप में प्रक्षेपित करती है । उपरोक्त त्रिकुटी का ज्ञाता अर्थात् लोकव्यवहार का अहंकार , ज्ञेय अर्थात् भोज्य-जड-वस्तुरूप-जगत् , और ज्ञान , अर्थात् वस्तुरूप ज्ञान है । यह लोकव्यवहार का जगत् स्वरूप है । ज्ञान यात्रा का गन्तव्य स्थल आत्मा है , जो उपरोक्त व्यवहारिक जगत् का उद्भवस्थल भी है , और उपरोक्त का प्रकाशक भी है । उपरोक्त वर्णित ज्ञान-यात्रा का करण , मस्तिष्क है , जो स्वयं माया का सृजन है , और माया का लोकव्यवहार के जगत...