सन्यास
शिक्षण-विधि-सोपान
सन्यास गेरुआ वस्त्र पहनना, सन्यास नहीं है । शिशु
का जन्म होता है । वह नवजात शिशु अपने साथ पूर्व के अनन्त जन्मों के संचित
संस्कारों की एक बडी सम्पदा को लेकर आया है । उपरोक्त कथित सम्पदा में, उसके संचित कर्म फल हैं । पूर्व के जन्मों में उसके पाप और पुण्य कर्मों से
जनित कर्म फलों का संचय है । इन्ही संचित कर्म फलों को ही, भाग्य की संज्ञा समाज देता है । इन्ही को उसकी कारण शरीर बताया जाता है ।
इन्ही को ज्ञान उपदेश के प्रसंगो में वासना कहा जाता है । जो शिशु, परिवर्तनों से मार्गी होते हुये, अपनी प्रौढता पर तत्व
ज्ञान की जिज्ञासा करता है, उसके लिये वाँक्षना के रूप में, एक नीयत बौद्धिक क्षमता का निर्धारण करते हुये, सन्यास को बताया जाता है
। सन्यास, उपरोक्त वर्णित संचित कर्म-फलो की संपदा का त्याग है । उपरोक्त वर्णित संचित
कर्म फलों की वासना से ही उसके मस्तिष्क में अनन्त अनियन्त्रित वृत्तियाँ गति करती
हैं । जब तक उपरोक्त वर्णित वासना वृत्तियाँ अंकुश नहीं की जायेंगी, तब तक वह सूक्ष्म तत्व ज्ञान को स्पर्ष नही कर सकता है । उपरोक्त समस्त विवरण
अनुसार, संचित वासनाओं का त्याग सन्यास है । एक पवित्र अन्त:करण का सृजन है । भगवान
शंकर ने आठ वर्ष की आयु में सन्यास लिया था, जिसके फल से, कुल बत्तीस वर्ष की आयु अवधि में उन्होने जितनी ज्ञान सम्पदा भारत देश को दे
कर चले गये कि कोई सनातन धर्म अनुयायी उनके ऋण से उऋण नहीं हो सकता है । सन्यास एक
प्रखर और तीक्ष्ण अन्त:करण का निर्माण है । ....... क्रमश:
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