जीव-जगत्-ईश्वर


शिक्षण-विधि-सोपान
जीव-जगत्-ईश्वर यह त्रिकुटी है । यह तीनों ही आत्मा की उत्पत्ति हैं । आत्मा ही तीनों के रूप में अपने को व्यक्त करती है । माया भोक्ता जीव और भोज्य जगत् की संधि कराती है । ईश्वर अर्थात् माया सहित ब्रम्ह है । भोक्ता जीव और भोज्य जगत् दोनो ही प्रकृति हैं । शास्त्र उपदेश करते हैं, कि आत्मा से आकाश की उत्पत्ति होती है । पुन: उत्पत्ति क्रम विस्तृत होते हुये क्रमश: वायु, अग्नि, आपा, पृथ्वी, औषधय:, अन्नं, प्रजा समस्त जगत् सृजित हो जाता है । माया शक्ति उपरोक्त सृजित प्रजा और भोज्य जगत् में परस्पर व्यवहार कराती है । यह समस्त अवयव मृत्यु से आवृत्त है । परन्तु उपरोक्त त्रिकुटी से विलक्षण, त्रिकुटी से परे सत्य आत्मा है । इस पारमार्थिक आत्मतत्व के साक्षात् के लिये व्यक्ति को उपरोक्त त्रिकुटी से परे जाना है । इन्द्री-मस्तिष्क को लाँघना है । प्रकृति से परे जाना है । माया को अतिक्रनित करना है । उपरोक्त समस्त ही आत्मा को आच्छादित किये हुये हैं । आत्मा तो सदैव उपलब्ध है । व्यक्ति बाह्य प्रकृति में इतना संलग्न है, कि उसे आत्मा के दर्शन के लिये समय नहीं है, अपेक्षा नहीं है । ....... क्रमश:

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