द्वैत दर्शन ही बन्धन
शिक्षण-विधि-सोपान
द्वैत दर्शन ही बन्धन जब तक मनुष्य
अपनी देह को ही अपना रूप जानता है मानता है, तब तक वह इस दृष्य जगत् को ही सत्य
जानता है । यही इतना ही उसका बन्धन है । यही अज्ञान है । यही भ्रम है । यही मोंह
है जिसे वह छोड नहीं पाता है । वह नित्य देखता है, कि इस देह में रोग लगते हैं, यह
वृद्ध होती है, इसकी मृत्यु होती है, परन्तु वह इसी देह के सुख के लिये ही समस्त
पुरुषार्थ में जन्म से मृत्यु पर्यन्त संलग्न है । इससे बडा और क्या मोंह सम्भव हो
सकता है । शास्त्र उपदेश करते है, मोक्ष पुरुषार्थ ही मनुष्य का सर्वोच्च लक्ष्य
है । अज्ञान की निवृत्ति ही ज्ञान की प्राप्ति है । सर्वोच्च विडम्बना यही है, कि मनुष्य अपने
मोंह का त्याग नहीं कर पाता है । ...... क्रमश:
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें