चैतन्य सत्ता
शिक्षण-विधि-सोपान
चैतन्य सत्ता शास्त्र उपदेश
है, कि जब कुछ भी
नहीं था, अर्थात् जगत् की
उत्पत्ति नहीं थी, तब भी सत् अर्थात् सत्ता ही केवल सर्वत्र थी । उपरोक्त अभिव्यक्ति में जब
“था” शब्द का प्रयोग किया जाता है, तो काल उपस्थित
हो जाता है, परन्तु स्थिति को व्यक्त करने के लिये शब्दों का प्रयोग करना होता है ।
उपरोक्त अभिव्यक्ति का अभिप्राय यह है कि जब कोई जगत् नहीं था तब भी सर्वव्याप्त
सत् था, अर्थात् केवल
सत् ही था । उस सत् ने देखा कि, मैं अपने को अनेक के रूप में विस्तृत करूं, यह शास्त्र
उपदेश है । उपरोक्त से विदित हैं कि सत् कोई जड सत्ता नहीं अपितु चेतन सत्ता है ।
उपरोक्त चेतन सत्ता ने जब अपने को अनेक रूपों में व्यक्त किया, तो विदित है कि
व्यक्त हुये रूपों की उपादानिता उस चेतनसत्ता से ही प्राप्त हुई है । वह चेतनसत्ता
प्रत्येक व्यक्त रूपों में अनुश्रूत है । इतना ही नहीं, प्रत्येक रूप के
उदय होने में जिस बौद्धिक कौशल की वाँक्षना थी, उसकी पूर्ति भी
उस चेतनसत्ता से ही सम्भव हुई है । उपरोक्त वर्णन अनुसार ही, पारमार्थिक
चेतनसत्ता ही इस सम्पूर्ण जगत् का उपादान कारण एवं निमित्त कारण है । उपरोक्त
वर्णित चेतनसत्ता ही ब्रम्ह का स्वरूप है । ...... क्रमश:
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें