बहुरूपता माया कल्पित


शिक्षण-विधि-सोपान
बहुरूपता माया कल्पित शास्त्र उपदेश है, कि जब यह जगत् नहीं था, तब केवल ब्रम्ह की सत्ता थी । उसने देखा कि मैं अकेला हूँ, उसने अपने को बहुरूप करने का मन: संकल्प किया, उसकी अपनी आत्म-माया ने तत्काल उसकी छाया सदृष्य हिरण्यगर्भ को सृजित किया है । हिरण्यगर्भ नें अपने को इस जगत् के रूप में विस्तृत किया है । ब्रम्ह ने अपने को, इस दृष्य जगत् के विषय और वस्तु के द्वैत रूप में प्रस्तुत किया है । उपरोक्त वर्णित द्वैत को सत्य मानने वाला अहंकार पोषित मनुष्य ही बन्धन में है । अनन्त ब्रम्ह को, एक स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीर की सीमा में सीमित बनाने वाला अहंकार, विषयों के मोंह से ग्रसित है । वह न ही वस्तुरूपों के अस्तित्व, और न ही अपनी आत्मा को जान पाता है । उसकी अपूर्णता की अनुभूति, उसे पूर्णता की चेष्टा में संलग्न करती है । काम-क्रोध, राग-द्वेष, ईर्ष्या-मत्सर से व्याप्त हो जाता है । अपूर्णता किसी भी पुरुषार्थ से पूर्ण नहीं बन सकती है । परन्तु यह विवेक जागृत होने के लिये बहुत पुण्य की अपेक्षा होती है । माया का बन्धन बहुत शक्तिशाली है । सत्य का अनुसरण करने की कामना धर्मपुरुषार्थ से अर्जित होती है । ..... क्रमश:

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