द्वैत दर्शन
शिक्षण-विधि-सोपान
द्वैत दर्शन अद्वैत वेदान्त अर्थात् पारमार्थिक सत्य
एक है, का विमोचन करने वाला दर्शन है ।
लोकव्यवहार का प्रत्येक अनुभव द्वैत है । द्वैत का क्षेत्र व्यापक है ।
दृष्टा-दृष्य एक द्वैत है, आत्मा-अनात्मा एक द्वैत है, ज्ञाता-ज्ञेय एक द्वैत है, जीव-ईश्वर एक द्वैत है, इस प्रकार समस्त लोकव्यवहार द्वैतों से संचालित हो रहा है । पारमार्थिक
सत्य ब्रम्ह एक है । जीव शरीर में पारमार्थिक आत्मा है । आत्मा ब्रम्हस्वरूप है ।
इस अनन्त ब्रम्ह को, जीव इस देह पर्यन्त सीमित मानता है, जानता है । यह अज्ञान है । यह भ्रान्ति है । द्वैत भयं भवति यह
शास्त्र उपदेश है । इस द्वैत दर्शन के फल से ही जीव मृत्यु से भयभीत है । सत्य को
न जानना अज्ञान है । किसी असत्य को सत्य जानना भ्रान्ति है । भ्रान्ति में ही
भ्रमण है । जीवन मृत्यु का चक्र है । अपने अनन्त आत्मतत्व का ज्ञान ही मुक्ति है ।
भ्रमण से मुक्ति है । जन्म-मृत्यु से मुक्ति है । मोक्ष है । मोक्ष पुरुषार्थ कोई
कर्म नहीं है, अपितु भ्रान्ति का निवारण ही जीवनमुक्ति
है, मोक्ष है । अष्टधा प्रकृति के प्रत्येक अवयव गुणधारी हैं । गुण
बन्धनकारी हैं । यह उनके मौलिक रचनागत स्वभाव है । सत्व भी बन्धनकारी ही है ।
पुण्य की वृद्धि से स्वर्ग लोक की प्राप्ति का फल है, परन्तु मुक्ति नहीं सम्भव है । मुक्ति गुणातीत दशा है । माया लोक को
लाँघने से ही ब्रम्ह साक्षात् सम्भव है । जो इन्द्री और मस्तिष्क को लाँघ सकेगा
वही ब्रम्ह साक्षात् करने में समर्थ है । ....... क्रमश:
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