आवृत्त चक्षु


शिक्षण-विधि-सोपान
आवृत्त चक्षु शास्त्र ज्ञान के साधक के लिये, साधना अवधि में, साधक को मार्ग देते हैं, कि आवृत्त चक्षु, अर्थात् चक्षु जो कि स्वाभाविक रूप से बाह्य दृष्य जगत् के विषयों की ओर प्रवृत्त हैं उनकी दिशा को घुमा कर आत्मदेश की ओर प्रवृत्त करना है । चक्षु तो मात्र उपकरण हैं । ज्ञानबोध तो मस्तिष्क में होता है । इसलिये उपरोक्त उपदेश का लक्ष्य मस्तिष्क के लिये है, ऐसा अर्थ साधक के ग्रहण करना अपेक्षित है । मस्तिष्क को, मस्तिष्क में गति करने वाली वृत्तियों का, मस्तिष्क द्वारा निरीक्षण करना, उपरोक्त उपदेश का भाव है । उपरोक्त प्रयत्न का लक्ष्य है, मस्तिष्क में बहुतायत गति करने वाली वृत्तियों को अंकुश करना है । यह वैराग्य का चित्रण है । साधक को बाह्य जगत् के विषयों से विमुख कर, उसे आत्मदेश की ओर प्रवृत्त करना है । बाह्य मायालोक में परिवर्तन है, त्रास है, अस्थिरता है । आत्मदेश में पारमार्थिक शान्ति है । जब तक नदी में बाढ की विभीषिका है, उसकी धारा को अंकुश करना दुष्कर साधना है । वैराग्य कोई जगत् का त्याग नहीं है । जब तक जीव है, जीवन है, तब तक वह जगत् का त्याग कैसे कर सकता है, उसे भूख लगेगी, उसे वस्त्र चाहिये ही, रहने की जगह चाहिये तो वह जगत् का त्याग कर ही नहीं सकता है । वैराग्य अन्त:करण की जागृति है । उसे परिवर्तनशील की तन्मयता से हटा कर, अपरिवर्तनीय की ओर प्रवृत्त करना है । ........ क्रमश:

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