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फ़रवरी, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

देवता

पद-परिचय-सोपान                                    देवता वैदिक उपदेश देवता को समष्टि के प्रतीक रूप में व्यक्त करते हैं । प्रत्येक समष्टि अभिव्यक्ति के लिये अलग अलग एक एक देवता को नामित किया जाता है । व्यक्ति के एक एक अंग का समष्टि भी वर्णन किया जाता है । यथा चक्षु व्यक्ति का दृष्टि अंग है , व्यष्टि है , इसका समष्टि सूर्य-देवता हैं । स्थूल-शरीर व्यष्टि है , इसका समष्टि विराट-देवता है । प्राण व्यष्टि है , इसका समष्टि हिरण्यगर्भ देवता हैं । मस्तिष्क व्यष्टि है , इसका समष्टि चन्द्रमा-देवता हैं । वाक् (बोलने का अंग) व्यष्टि है , अग्नि-देवता इसका समष्टि है । इसी प्रकार प्रत्येक अंग के लिये हैं । देवता का उपरोक्त वर्णित एक रूप है । एक दूसरा रूप भी है । उस रूप में देवता भी जीव कोटि से हैं । जीव जिनका पुण्य-संचय अति संवृद्ध हो जाता है , उन्हे देवता पद दिया जाता है । देवता शरीर अधिक साधन-युक्त और अधिक भोग में सक्षम होती है । परन्तु पुण्य-क्षीण होने पर इन्हे पुन: मृत्यु-लोक में...

विराट

पद-परिचय-सोपान                                    विराट समष्टि-स्थूल-शरीर-देवता को विराट नाम दिया गया है । समष्टि-कारण देवता ईश्वर (विष्णु-भगवान) ने हिरण्यगर्भ समष्टि-सूक्ष्म-शरीर-देवता (ब्रम्हाजी) को व्यक्त रूप में प्रगट किया , पुन: हिरण्यगर्भ ने समष्टि-स्थूल-शरीर-देवता विराट को व्यक्त-रूप में प्रगट किया , इस प्रकार विराट समष्टि-स्थूल-शरीर-देवता हैं । विराट-देवता ने अपने को विभक्त कर के समस्त जीव प्रपंच के रूप में विस्तृत कर दिया , यह सृष्टि प्रक्रिया का शास्त्रों में वर्णित क्रम है । इस रूप में विराट देवता प्रत्येक जीव के स्थूल शरीर के रूप में विद्यमान हैं । उपरोक्त     अभिव्यक्तियाँ एक दूसरे की पर्याय हैं । उपरोक्त अभिव्यक्तियों की स्पष्ट छवि मस्तिष्क में अपेक्षित है , क्योंकि आगे के अंको में प्रस्तुत किये जाने वाले व्याख्या प्रसंगो के प्रकरणों में यथा प्रसंग विराट को सन्दर्भित किया जाना है ..... क्रमश:

हिरण्यगर्भ

पद-परिचय-सोपान                                    हिरण्यगर्भ समष्टि-सूक्ष्म-शरीर हिरण्यगर्भ हैं । सृष्टि-प्रक्रिया में समष्टि-कारण ईश्वर (विष्णु-भगवान) ने सर्व-प्रथम हिरण्यगर्भ को प्रगट किया अर्थात् हिरण्यगर्भ को जो कि समष्टि-सूक्ष्म-शरीर हैं को व्यक्त-रूप में सम्मुख किया है । हिरण्यगर्भ अर्थात् ब्रम्हाजी देवता हैं । वैदिक शिक्षण में समष्टि को देवता द्वारा व्यक्त किया जाता है । सृष्टि प्रक्रिया में समष्टि का व्यक्त रूप पहले आता है , पुन: समष्टि ही व्यष्टि रूपों में विभक्त हो जाता है । इस प्रकार हिरण्यगर्भ ब्रम्हाजी प्रत्येक जीव की सूक्ष्मशरीर के रूप में प्रत्येक जीव में विद्यमान हैं । सूक्ष्म-शरीर पंच-प्राणों की भी धारक है , इस प्रकार ब्रम्हाजी समष्टि प्राण हैं । प्रत्येक जीव का प्राण अर्थात् प्राण-देवता हिरण्यगर्भ अर्थात् ब्रम्हाजी प्रत्येक जीव के प्राण हैं । उपरोक्त समस्त अभिव्यक्तियाँ एक दूसरे की पर्याय हैं । उपरोक्त सभी को पाठकगण अच्छे से अपने मस्तिष्क में ग्रहण करें...

ईश्वर

पद-परिचय-सोपान                                     ईश्वर समष्टि कारण को ईश्वर कहा जाता है । जगत् का कारण ईश्वर है । देवता-रूप में समष्टि-कारण-देवता विष्णु-भगवान हैं । माया सहित ब्रम्ह को ईश्वर कहा जाता है । जगत् कार्य का कारण ईश्वर है । कारण ही कार्य के रूप में प्रगट होता है । इस रूप में विष्णु-भगवान ही समस्त जगत् के रूप में प्रगट हैं । कार्य का लय सदैव कारण में ही होता है । इस रूप में विष्णु-भगवान समस्त जगत् के लय स्थल हैं । इस स्थिति को विष्णु-भगवान की योग-निद्रा कहा जाता है । कारण से ही कार्य की उत्पत्ति होती है । इस रूप में विष्णु-भगवान ही जगत् के उद्भव-श्रोत हैं । व्यष्टि विचार में कारण-शरीर को पूर्व के अंको में बताया गया था । समष्टि विचार में विष्णु-भगवान अर्थात् ईश्वर समष्टि-कारण हैं । व्यष्टि विचार में व्यक्ति का समस्त ज्ञान सुशुप्ति-दशा में एकी-कृत-घन-रूप में कारण-शरीर में लय की दशा में रहता है । व्यष्टि-विचार में समस्त-जगत् का समस्त ज्ञान योग-निद्रा की दशा में , ...

ज्ञान प्रक्रिया

पद-परिचय-सोपान    ज्ञान प्रक्रिया व्यवहारिक ज्ञान लोक व्यवहार का अंग है । व्यक्ति अनुभव-कर्ता है । व्यक्त जगत् क्षेत्र है जहाँ से व्यक्ति अनुभव संग्रहीत करता है । इस रूप में व्यक्ति भोक्ता हुआ और जगत् भोज्य हुआ । उपरोक्त वर्णित प्रक्रिया में तीन अंग होते हैं । एक अनुभव कर्ता व्यक्ति , इसे प्रमाता कहा जाता है , दो वस्तु-नाम-रूप जिसका वह ज्ञान ग्रहण करता है , इसे प्रमेय कहा जाता है , तीन करण जिसके माध्यम से ज्ञान ग्रहण किया जाता है , इसे प्रमाण कहा जाता है । करण पाँच हैं , चक्क्षु , कर्ण , जिह्वा , घ्राण , त्वचा । पुन: व्यक्ति इन करणो के सहायक के रूप में अन्य बाह्य सहायक करणों का प्रयोग करता है उन्हे उप-करण कहा जाता है । प्रमाता को विषय कहा जायेगा , प्रमेय को वस्तु कहा जायेगा , प्रमाण को माध्यम कहा जायेगा । यह समस्त नित्य के लोक-व्यवहार के अंग है । शास्त्रो के अध्ययन काल में इन्हे त्रिकुटी के नाम से बताया जाता है , प्रमाता-प्रमाण-प्रमेय । यह त्रिकुटी जागृत-दशा , स्वप्न-दशा , सुशुप्ति-दशा तीनो के अध्ययन प्रक्रिया में प्रभावी होती है । यह तीनो दशाये सापेक्ष...

अहंकार

पद-परिचय-सोपान अहंकार शुद्ध चैतन्य मस्तिष्क के साथ जब चिन्हित होता है , तो मस्तिष्क जो कुछ भी स्वाभाविक क्रम में करता है वह अहंकार है । अहंकार मस्तिष्क का सम्पादन है इसका चैतन्य से कंचिद कोई सम्बन्ध नहीं है । मस्तिष्क का क्रिया सम्पादन चैतन्य के आश्रित होता है । सर्व-विभू: चैतन्य जब मस्तिष्क में व्याप्त होता है , इस व्याप्ति के फल से ही मस्तिष्क क्रियाशील हो जाता है । यह मस्तिष्क का रचनागत स्वभाव है , उसकी रचना में प्रयुक्त पदार्थों का फल है , यह माया की बौद्धिक कुशलता का फल है । परन्तु माया की बौद्धिक कुशलता का अद्भुद फल इस मस्तिष्क के कार्य-कारी दशा में परिलक्षित होता है कि मस्तिष्क कंचिद यह अनुभूति कभी भी ग्रहण नहीं कर पाता कि उसमें वर्तमान चैतन्य उसका अपना मौलिक स्वभाव नहीं है , अपितु यह चेतन स्वरूप किसी के आश्रय से है । फलत: मस्तिष्क इस चेतन रूप को अपने मौलिक स्वभाव की मान्यता पर आधारित समस्त सम्पादन करता है । यह अहंकार का स्वच्छ चित्र है । मस्तिष्क का यह व्याप्त चैतन्य इन्द्रियों पर्यन्त संचरित होता है , यह भी रचनागत स्थिति है , माया की बौद्धिक कुशलता का फल है । पु...

पंच-प्राण

पद-परिचय-सोपान पंच-प्राण सूक्ष्म-शरीर के उन्नीस अंगों के प्रसंग में वर्णित पंच प्राण का विवरण हैं , (1) प्राण-प्राण – यह हमारी श्वास का नियंत्रक है (2) अपान-प्राण – यह मल विसर्जन का नियंत्रक है (3) समान-प्राण –यह पाचन संस्थान का नियंत्रक है (4) व्यान-प्राण – यह संचार (रक्त , अन्न , विचार सभी का शरीर के विभिन्न भागों में } संचरण का नियंत्रक है (5) उदान-प्राण – श्वास का बाहर निकलना तथा मृत्यु के समय वर्तमान स्थूल-शरीर का अंतिम त्याग का नियंत्रक है ।

व्यक्ति का स्वरूप

पद-परिचय-सोपान       व्यक्ति का स्वरूप किसी भी व्यक्ति का स्वरूप द्विस्तरीय है । पहला स्तर जो कि तात्विक है वह उसकी आत्मा है । दूसरा जो कि व्यवहारिक है वह उसका अहंकार है । जो व्यवहारिक है वह सर्व विदित है । इसमें उसकी स्थूल-सूक्ष्म- कारण शरीर है और उस शरीर-मस्तिष्क-समुदाय को चेतन होने की एक भ्रान्ति अनुभूति है । जो तात्विक है उसमें तीन अभिव्यक्तियाँ सत् चित् आनन्द हैं । इस तात्विक अंश आत्मा की उपस्थिति के फल से ही , जो व्यवहारिक है , उसे चेतन की अनुभूति मिलती है । परन्तु जो व्यवहारिक है , वह कंचिद किसी भी दशा में , अनुभव किये जाने वाले चेतन को , उस तात्विक का योगदान नहीं मान सकता है , बल्कि स्थिति और उलटी ही है कि उस व्यवहारिक को तो कंचिद इस तात्विक का ज्ञान तक भी नहीं है । जो तात्विक अंश है वह व्यापक है । जो व्यवहारिक है वह परिच्छिन्न है । वेद के उपदेश उपरोक्त वर्णित यथा-स्थिति एवं भेद का स्वच्छ चित्रण करता है और आह्वाहन करता है कि अपने तात्विक अंश पर अवलम्ब करें जिसके फल से व्यक्ति परिच्छिन्नता से मुक्त हो जायेगा..........क्रमश:

सुशुप्ति-दशा

पद-परिचय-सोपान         सुशुप्ति-दशा सुशुप्ति दशा में व्यक्ति के स्थूल शरीर की सभी दस इन्द्रियाँ लय की दशा में रहती हैं , इसलिये व्यवहार के लिये उपलब्ध नहीं रहती हैं । सूक्ष्म शरीर के पंच-प्राण कार्यकारी दशा में रहते हैं । मस्तिष्क के चारो प्रभाग लय की दशा में रहते हैं , इसलिये मस्तिष्क व्यवहार के लिये उपलब्ध नहीं रहता है । परन्तु इस स्थल पर विषेस ज्ञेय यह है कि इस सुशुप्ति का भी कोई साक्षी होता है , जो कि मस्तिष्क की अन-उपलब्धता का साक्षी होता है । वह साक्षी ही जागृत-दशा की पुनर्स्थापना पर कहता है कि “ मैं बहुत गहरी नीद सो गया था ” वह साक्षी चैतन्य कौन है ? वह व्यक्ति की आत्मा है ......... क्रमश:

स्वप्न-दशा

पद-परिचय-सोपान       स्वप्न-दशा स्वप्न-दशा में व्यक्ति के स्थूल शरीर के सभी दस इन्द्रिया लय की दशा में रहती है , इसलिये व्यवहार के लिये उपलब्ध नहीं रहती हैं । सूक्ष्म शरीर के पंच-प्राण कार्यकारी दशा में रहते हैं , मस्तिष्क के चार प्रभागो में से दो प्रभाग नामत: अहंकार और विवेक लय की दशा में रहते हैं और शेष दो प्रभाग कार्यकारी दशा में रहते हैं । इस स्थल पर विशेष ज्ञेय यह है कि स्वप्न की दशा में व्यवहार के लिये व्यक्ति को एक स्वप्न-स्थूल-शरीर मिलती है , जो कि सामान्य स्थूल-शरीर से विलक्षण होती है । स्वप्न-काल में व्यक्ति का मस्तिष्क स्वयं अपनी ही संचित वासना वृत्तियों से व्यवहार करता है , और स्वयं ही उन व्यवहारों का फल - भोक्ता भी होता है ........ क्रमश:

जागृत-दशा

पद-परिचय-सोपान       जागृत-दशा जागृत-दशा में स्थूल शरीर की दसों इन्द्रियाँ कार्यकारी दशा में रहती हैं । सूक्ष्म-शरीर के सभी उन्नीस अंग कार्यकारी दशा में रहते हैं । इस दशा में व्यक्ति पूर्ण कार्यकारी दक्षता के साथ बाह्य-जगत् के साथ व्यवहार करता है । इस दशा में व्यक्ति के मस्तिष्क में चिन्हित होने वाला चेतन समस्त स्थूल-शरीर की सीमा पर्यन्त संचरित होता है । मस्तिष्क के मार्ग से ज्ञान-इन्द्रियों को प्राप्त होने वाला चेतन इन इन्द्रियों के द्वार से सम्पूर्ण बाह्य जगत् में विकीर्त होता है । यह पूर्ण कार्यकारी दशा होती है ........ क्रमश:

तीन अवस्थाओं का जीवन

पद-परिचय-सोपान       तीन अवस्थाओं का जीवन प्रत्येक व्यक्ति का व्यवहारिक जीवन तीन अवस्थाओं का होता है । जागृत-दशा , स्वप्न-दशा , और सुशुप्ति-दशा यह तीन दशाये नित्य प्रत्येक व्यक्ति की व्यव्हार्य दशायें हैं । जागृत दशा में व्यक्ति का मस्तिष्क बाह्य स्थूल-जगत् के साथ व्यवहार करता है । स्वप्न-दशा में व्यक्ति का मस्तिष्क कार्यकारी दशा में रहता है , परन्तु स्वप्न-दशा में व्यक्ति की इन्द्रियाँ लय की दशा में होती हैं और व्यवहार के लिये उपलब्ध नहीं होती है इसलिये वह बाह्य जगत् के साथ व्यवहार नहीं कर सकता है और वह मस्तिष्क के अन्दर ही विद्यमान वासना वृत्तियों के साथ व्यवहार करता है जो कि स्वप्न के रूप में प्रक्षेपित होती हैं । सुशुप्ति की दशा में मस्तिष्क व्यवहार के लिये उपलब्ध नहीं रहता है । सुशुप्ति की दशा में मस्तिष्क कारण शरीर में लय की दशा में रहता है । सुशुप्ति की दशा में व्यक्ति का समस्त ज्ञान एकीकृत घन-रूप में पर्णित हो जाता है । यह तीन दशाओं का परिचयात्मक सार है । तीनो दशाओं का विस्तृत विवरण आगे के तीन अंको में ........ क्रमश:   

तीन मौलिक जिज्ञासायें

पद-परिचय-सोपान तीन मौलिक जिज्ञासायें जहाँ तक जीव सृष्टि का इतिहास है , मनुष्य के मस्तिष्क में तीन जिज्ञासायें रहीं हैं , पहली जिज्ञासा क्या यह जीवन इतना ही है कि एक शिशु का जन्म होता है , खेलते खेलते वह युवक हो जाता है , कुछ एक सन्तानों की उत्पत्ति करता है , बूढा हो जाता है , फिर मृत्यु को प्राप्त हो जाता है , अथवा उपरोक्त वर्णित से अधिक कुछ सार-गर्भित भी इस जीवन में है ? दूसरी जिज्ञासा मनुष्य के सामने विस्तृत फैला हुआ आकर्षक सुन्दर जगत् जो कि प्रति-पल परिवर्तनो के अधीन है , जीवों का जन्म हो रहा है कालान्तर से मृत्यु हो रही है , क्या उपरोक्त वर्णित समस्त परिवर्तन ही एक-मात्र विकल्प है अथवा उपरोक्त वर्णित समस्त परिवर्तनशील जगत् से विलक्षण कोई अ-परिवर्तनीय सत्ता भी है ? तीसरी जिज्ञासा क्या ईश्वर भी कोई है ? यदि है तो उस ईश्वर का इन जीव-प्रपंचों के साथ और इन जड-प्रपंचों के साथ कोई सम्बन्ध है ? यदि है तो वह क्या है ? तीनो ही अति स्वाभाविक और उचित प्रश्न हैं । वर्तमान लेख-श्रंखला के प्रथम अंक , प्रकाशित दिनांक 21-जनवरी-2018 में , जिस आत्म-ज्ञान का उल्लेख किया गया ह...

जन्म-मृत्यु-चक्र

पद-परिचय-सोपान जन्म-मृत्यु-चक्र शास्त्र उपदेश करते हैं कि जीव की वर्तमान शरीर का कारण , उसके पूर्व के संचित कर्म-फलों का भोग होता है । कर्म का सम्पादन शरीर द्वारा ही सम्भव है । इसलिये उपरोक्त उपदेश एवं अभिव्यक्ति मिलकर एक प्रश्न सृजित करता है कि पहले शरीर का प्रादुर्भाव हुआ अथवा कर्म का प्रादुर्भाव हुआ है ? अत्यन्त स्वाभाविक और उचित प्रश्न है । अनादिकाल से विद्वानो के मध्य यह प्रश्न परस्पर विचार का केन्द्र रहा है । विद्वानो द्वारा निर्धारित निर्णय है कि सृष्टि-प्रकरण एक चक्रीय व्यवस्था है , इसलिये किसी भी वृत्ताकार व्यवस्था के प्रारम्भिक बिन्दु का विचार न ही महत्व-पूर्ण होता है , और न ही सम्भव हो सकता है , फिरभी यदि शैक्षिक महत्व की दृष्टिकोण से उपरोक्त निर्धारण आवश्यक हो तो ऐसी दशा में जीव के स्वतन्त्र निर्धारण अधिकार के अन्तर्गत किये गये स्वयं की इच्छा पूर्ति हेतु कर्म को प्रथम मानना उचित निर्णय के रूप में ग्रहण किया जाय ........ क्रमश:      

प्रकृति शासक

पद-परिचय-सोपान प्रकृति शासक शास्त्रों के उपदेश का सार निश्कर्ष है कि जगत् की समस्त गतियों की प्रकृति शासक है । व्यष्टि विचार में प्रकृति व्यक्ति के स्वभाव के रूप में प्रगट स्वरूप में उपलब्ध होती है । व्यक्ति का स्वभाव , उसके पूर्व जन्मों के संचित कर्म-फलों के आधार पर सृजित होता है । इसीलिये प्रत्येक व्यक्ति का स्वभाव भिन्न होता है । समष्टि विचार में प्रकृति माया शक्ति के रूप में जानने योग्य है । ज्ञातव्य है कि माया शक्ति ही जगत् की सृजन शक्ति भी है और लय स्थल भी होती है । प्रकृति का स्वयं का सृजन तीन गुणों नामत: सत्व , रज़स , तमस के मौलिक आधार पर सम्भव हुआ है । इस रूप में समस्त ब्रम्हाण्ड की गतियों का शासक सत्व , रज़स , तमस तीन गुण हैं ........... क्रमश:   

मिथ्या

पद-परिचय-सोपान मिथ्या जो सत् है , उसे नकारा नहीं जा सकता है । जो असत् है , उसे नकारने की आवश्यकता नहीं होती है । परन्तु एक तीसरी श्रेणी जो कि माया-कल्पित जगत् के साथ है , कि वह व्यवहार के लिये उपलब्ध है , इसलिये सत्य है , परन्तु उसके सत्यत्व की मीमांसा की जाती है तो वह सत् सिद्ध नहीं होता है । उपरोक्त कथन को एक दृष्टान्त के माध्यम से ग्राह्य बनाने की चेष्टा सार्थक प्रयत्न है । स्वर्ण-आभूषण व्यवहार के लिये उपलब्ध हैं । इसलिये सत्य हैं । परन्तु समस्त स्वर्ण-आभूषणों का सत्यत्व स्वर्ण के आश्रय पर लम्बित है । कंचिद स्वर्ण के सत्यत्व के आभाव में क्या किसी स्वर्ण-आभूषण की कल्पना की जा सकती है ? आपका निश्चयात्मक उत्तर होगा , नहीं सम्भव है । परन्तु फिरभी प्रत्येक व्यक्ति स्वर्ण-आभूषणों के व्यवहारिक प्रयोज्यता के आधार पर उसे सत्य मानता है । यह माया-कल्पित जगत् की सत्य क्षवि है । पारमार्थिक सत्य-ब्रम्ह , इस माया कल्पित जगत् जिसमें जीव-प्रपंच और जड-प्रपंच दोनो सम्मलित हैं , के सत्यत्व का अधिष्ठान है । यह सम्पूर्ण जगत् जिसमें जीव-प्रपंच और जड-प्रपंच दोनो सम्मलित हैं केवल नाम-रूप है ।...

लोक-व्यवहार

पद-परिचय-सोपान लोकव्यवहार चेतन जीव और अचेतन जड प्रपंच के मध्य क्रिया प्रतिक्रिया लोकव्यवहार है । पद-पदार्थ जगत् के लोकव्यवहार के लिये सहायक वाँक्षना होती है । कारण-स्वर्ण प्रत्येक स्वर्ण-आभूषण कार्य में विद्यमान है , परन्तु यदि प्रत्येक स्वर्ण-आभूषण-कार्य को एक विशिष्ट पद न प्रदान किया जाय तो लोकव्यवहार सम्भव नहीं हो सकता है । केवल कारण स्वर्ण कहने से तो अंगूठी , चेन , और चूडी का अलग अलग बोध सम्भव नहीं हो सकता है । इसलिये लोकव्यवहार के लिये पद-पदार्थ जोडी आवश्यक अवयव होते हैं । यह लोकव्यवहार का जगत् सापेक्ष सत्य है । आश्रित सत्य है । यह माया कल्पित जगत् है । इस लोकव्यवहार का नायक विषय-जीव और वस्तु-रूप-नाम का जड प्रपंच दोनो माया कल्पित अवयव हैं । समस्त लोकव्यवहार एक चल-चित्र के दृष्य के समान , आत्मा के सत्यत्व के परदे पर गति कर रहे हैं । इसलिये इस माया-कल्पित नायक को यदि सत्य की मान्यता प्रदान की जाय , तो जगत् महा-सत्य है । परन्तु यदि आत्मा के सत्यत्व के आधार पर समीक्षा की जाय , तो यह लोक-व्यवहार स्वप्नवद् मिथ्या हैं । जिस अवधि में स्वप्न के दृष्य अनुभव-गम्य होते हैं , उ...

अध्यास

पद-परिचय-सोपान अध्यास पारमार्थिक सत्य पर व्यवहारिक सत्य के आरोपण को शास्त्रीय भाषा में अध्यास कहा जाता है । शुद्ध स्फटिक पदार्थ का कोई रंग नहीं होता है । यह जगत् विख्यात तथ्य है । परन्तु लाल रंग के फूल को यदि स्फटिक के सानिध्य में रख दिया गया है , ऐसी दशा में लाल-फूल का लाल रंग रंग-विहीन-स्फटिक में भासित होने लगता है । देखने वाला व्यक्ति कहता है कि स्फटिक लाल रंग का है । यह लाल-रंग का स्फटिक पर अध्यास है । शुद्ध शाश्वत् आत्मा असंग है । यह वेद उपदेश करते हैं । आत्मा के सानिध्य के फल से जड स्थूल-शरीर-मस्तिष्क समुदाय चेतन-वद् आचरण करने लगता है । उपरोक्त वर्णित चेतन व्यक्ति अपना स्वरूप परिचय बताते हुये कहता है , मैं छ: फीट दस इन्च ऊँचा हूँ , मेरा अस्सी कीलो वजन है , मैं बुद्धिमान हूँ । उपरोक्त समस्त अभिव्यक्तियों में उपरोक्त कथित चेतन व्यक्ति किसे अपना स्वरूप परिचय बता रहा है ? अपनी स्थूल-शरीर को , अपने सूक्ष्म-शरीर के अंग मस्तिष्क को , परन्तु स्थूल-शरीर और मस्तिष्क दोनो ही जड-पदार्थ से सृजित स्वयं जड हैं । उपरोक्तानुसार व्यक्ति की स्थूल-शरीर , मस्तिष्क सभी के धर्म व्यक्ति क...

प्रतिभासित-सत्य

पद-परिचय-सोपान    प्रतिभासित-सत्य पारमार्थिक सत्य और व्यवहारिक सत्य से विलक्षण प्रातिभासित सत्य है , जिसका कोई अस्तित्व नहीं होता है , फिर भी जिस काल-अवधि में यह अनुभव-गम्य होता है उस अवधि में यह सत्य प्रतीत होता है । प्रश्न उठता है कि जब इसका कोई अस्तित्व नहीं होता है तो यह अनुभव-गम्य कैसे होता है ? उत्तर है कि इसकी उत्पत्ति और अनुभव-गम्यता दोनो ही माया की अद्भुद शक्ति का फल है । माया वह प्रक्षेपित करके सत्यवद् दर्शाती है , जिसका कि अस्तित्व नहीं है । व्यक्ति निद्रा-अवधि में स्वप्न-काल में क्या क्या दृष्य देखता है ? जिस अवधि में स्वप्न के दृष्य अनुभव-गम्य होते हैं , उस अवधि में व्यक्ति उन स्वप्न के दृष्यों से प्रभावित होता है , भयभीत होता है , हर्षित होता है , विस्मय करता है । यह जगत् कारण-ईश्वर-विष्णु-भगवान का स्वप्न है जिसे माया प्रक्षेपित करके यथा-स्वरूप प्रस्तुत कर रही है । उपरोक्त वर्णित विलक्षण सत्य को इस ज्ञान-यात्रा में बारम्बार सन्दर्भित किया जायेगा इसलिये इसकी स्वच्छ छवि मस्तिष्क में अच्छे से स्थापित करने की अपेक्षा है कि यह वह सत्य है जिसका कोई अस्त...

व्यवहारिक-सत्य

पद-परिचय-सोपान व्यवहारिक-सत्य काल इस व्यवहारिक जगत् की सीमा है । व्यवहारिक सत्य सापेक्ष सत्य है । सापेक्ष आश्रित होता है । इस प्रकार व्यवहारिक सत्य पारमार्थिक सत्य के आश्रय द्वारा सत्य है । व्यवहारिक सत्य का पारमार्थिक सत्य अधिष्ठान है । व्यवहारिक सत्य का सत्यत्व पारमार्थिक सत्य पर लम्बित है । घट नाम-रूप है । घट नाम-रूप का सत्यत्व मृद पर आश्रित है । यदि घट में से मृद अंश को हटा लिया जाय तो घट नाम-रूप में कुछ भी शेष नहीं बचेगा , इसलिये घट नाम-रूप मात्र है जिसका सत्यत्व मृद के आश्रय पर है । स्वर्ण आभूषण केवल नाम-रूप हैं । स्वर्ण आभूषणों का सत्यत्व स्वर्ण के आश्रय पर लम्बित है । यदि कंचिद स्वर्ण आभूषणों में से स्वर्ण अंश को हटा लिया जाय तब स्वर्ण आभूषण नाम-रूपों में कुछ भी शेष नहीं बचेगा , इसलिये स्वर्ण आभूषणों का सत्यत्व स्वर्ण के आश्रय पर है , इसलिये यह आश्रित सत्य है । इसी प्रकार व्यवहारिक सत्य का प्रत्येक अवयव पारमार्थिक सत्य के आश्रय पर  है । यह जगत् व्यवहारिक सत्य है । इस व्यवहारिक सत्य जगत् का सत्यत्व पारमार्थिक सत्य आत्मा के आश्रय पर है । इसलिये यह सापेक्ष सत्य है...

पारमार्थिक-सत्य

पद-परिचय-सोपान पारमार्थिक-सत्य पारमार्थिक सत्य कालातीत है । माया सृष्टि काल और आकाश की सीमा के अन्तर्गत सीमित है , जबकि पारमार्थिक सत्य अनन्त है । आकाश और काल उस पारमार्थिक से सम्भव हुये हैं । काल और आकाश ये अनन्त पारमार्थिक को स्पर्ष भी नहीं कर सकते हैं । अनन्त पारमार्थिक की कल्पना अथवा धारणा सीमित जगत् का अवयव मस्तिष्क धारण ही नहीं कर सकता है । पारमार्थिक किसी भी दशा में विकारी नहीं हो सकता है । क्योंकि विकार सदैव परिवर्तन द्वारा सम्भव होते हैं । अनन्त में किसी परिवर्तन की सम्भावना हो ही नहीं सकती है । पारमार्थिक सदैव असंग है । क्योंकि संग सदैव सजातीय से ही हो सकता है । अनन्त का सजातीय स म्भव ही नहीं हो सकता है । पारमार्थिक अद्वयम् है । क्योंकि द्वितीय की कल्पना ही अनन्त को सीमित करने पर ही हो सकती है । अनन्त पारमार्थिक किसी भी दशा में प्रमेय नहीं हो सकता है । अनन्त सदैव विषय है । अनन्त किसी भी दशा में वस्तु नहीं हो सकता है ........ क्रमश:

त्रि-स्तरीय सत्य

पद-परिचय-सोपान त्रि-स्तरीय सत्य सत्य के तीन स्तर व्यवहारिक जगत् में अनुभवगम्य हैं । पहला पारमार्थिक सत्य है । पारमार्थिक सत्य उसे कहा जाता है जो कि त्रि-कालिक सत्य है । जो सत्य , काल के तीनो ही अवयवों भूत-काल , वर्तमान-काल , भविष्य-काल   में सत्य है वह त्रिकालिक सत्य है । विगत जो व्यतीत हो चुका है , वर्तमान जो को व्यव्हृत हो रहा है , भविष्य जो कि अभी व्यक्त नहीं हुआ है । पारमार्थिक सत्य काल की सीमा के परे भी होता है । काल की सीमा माया क्षेत्र के लिये प्रभावी होती है । पारमार्थिक सत्य माया-तीत अर्थात काला-तीत है । दूसरा व्यवहारिक सत्य है । सत्य जो कि व्यवहार के लिये सत्य है परन्तु सत्यत्व की मीमांसा में वह सत्य प्रमाणित नहीं होता है । व्यवहार काल और आकाश की सीमा पर्यन्त है , इसलिये व्यवहारिक सत्य केवल काल और आकाश की सीमा पर्यन्त सीमित है । काल और आकाश की सीमा पर्यन्त ही माया सृजित जगत् है । तीसरा प्रातिभासित सत्य है । जो कि जिस काल में वह अनुभवगम्य है वह सत्य प्रतीत होता है । अनुभव किया जाने वाले काल के विगत होने पर प्रातिभासित-सत्य का कोई अस्तित्व नहीं होता है । स्व...

कार्य-कारण-सम्बन्ध

पद-परिचय-सोपान कार्य-कारण-सम्बन्ध प्रत्येक कार्य का कारण होता है । प्रत्येक कारण से कार्य व्यक्त-रूपधारी होता है । प्रत्येक कार्य में कारण सदैव विद्यमान रहता है । कारण - स्वर्ण प्रत्येक कार्य - स्वर्ण-आभूषण में सदैव विद्यमान रहता है । कार्य का लय सदैव कारण में होता है । प्रत्येक कार्य - स्वर्ण-आभूषण का लय कारण स्वर्ण - कारण में होता है । कारण , अ-व्यक्त-दशा - कार्य का धारक होता है । कार्य व्यक्त दशा है । कारण अ-व्यक्त-दशा है । कारण के दो विभाजन नामत: पहला उपादान-कारण , दूसरा निमित्त-कारण किये जाते हैं । स्वर्ण-आभूषण कार्य है , कार्य-स्वर्ण-आभूषण का उपादान-कारण स्वर्ण है , और कार्य-स्वर्ण-आभूषण का निमित्त-कारण स्वर्णकार-कारीगर होता है जिसके बौद्धिक-कौशल के द्वारा स्वर्ण-आभूषण कार्य का रूप-पदार्थ सम्भव होता है । जगत् कार्य है । इस कार्य-जगत् का उपादान-कारण ब्रम्ह है , और इस कार्य-जगत् का निमित्त-कारण माया है .......... क्रमश:

व्यक्त-अव्यक्त-दशायें

पद-परिचय-सोपान व्यक्त-अव्यक्त-दशायें बीज़ में वृक्ष अव्यक्त दशा में विद्यमान रहता है । व्यक्त वृक्ष में , भविष्य में व्यक्त-दशा ग्रहण करने वाले वृक्ष , अव्यक्त-दशा में बीज़ के रूप में पर्णित होते हैं । कारण-बीज़ कार्य-वृक्ष के रूप में , व्यक्त रूप धारण करता है । कारण - स्वर्ण से कार्य-स्वर्ण-आभूषण , व्यक्त दशा धारण करते हैं । प्रत्येक स्वर्ण-आभूषण-कार्य को तपा देने पर कार्य-स्वर्ण-आभूषण कारण-स्वर्ण में लय कर जाता है । उपरोक्त वर्णित लय दशा में भी कार्य-स्वर्ण-आभूषण अव्यक्त-दशा में कारण-स्वर्ण में विद्यमान रहता है । उपरोक्त वर्णित अव्यक्त-दशा से व्यक्त-दशा को धारण और व्यक्त-दशा का अव्यक्त-दशा में लय , यह दोनो परिवर्तन , एक चक्रीय व्यवस्था हैं , जो कि , माया-कल्पित हैं ...... क्रमश:

पंची-करण

पद-परिचय-सोपान पंची-करण सृष्टि की उत्पत्ति प्रक्रिया में , हिरण्यगर्भ द्वारा पहले सूक्ष्म-पंच-महाभूतो की उत्पत्ति की गई है । इन सूक्ष्म-पंच-महाभूतों से सूक्ष्म-शरीर और सूक्ष्म-प्रपंचों की उत्पत्ती की गई है । पुन: स्थूल-शरीरों और स्थूल-प्रपंचों की उत्पत्ति करने हेतु हिरण्यगर्भ ने पहले स्थूल-पंच-महाभूतों को सूक्ष्म-पंच-महाभूतों के पंचीकरण द्वारा सृजित किया है । पंचीकरण इस प्रकार है । स्थूल-आकाश – इसके सृजन में आधा भाग सूक्ष्म-आकाश + एक-बटा-चार-भाग सूक्ष्म-वायु , + एक-बटा-चार-भाग सूक्ष्म-अग्नि + एक-बटा-चार-भाग सूक्ष्म-आपा और + एक-बटा-चार-भाग सूक्ष्म-पृथ्वी को मिलाने से स्थूल-आकाश सृजित हुआ है । उपरोक्त अनुपात में ही शेष चारो भी सृजित हुये हैं । उपरोक्त वर्णित अनुपात सूक्ष्म-पंच-महाभूतो को आधार मानने पर है । यदि स्थूल-पंच-महाभूतो को आधार माना जाय तो अनुपात इस प्रकार होगा , स्थूल-आकाश = आधा-भाग सूक्ष्म-आकाशा + एक-बटा-आठ-भाग सूक्ष्म-वायु + एक-बटा-आठ-भाग सूक्ष्म-अग्नि + एक-बटा-आठ-भाग सूक्ष्म आपा + एक-बटा-आठ-भाग सूक्ष्म पृथ्वी । उपरोक्त अनुपात में ही शेष चारो भी सृजित हुये हैं । ........