ज्ञान प्रक्रिया


पद-परिचय-सोपान  
ज्ञान प्रक्रिया व्यवहारिक ज्ञान लोक व्यवहार का अंग है । व्यक्ति अनुभव-कर्ता है । व्यक्त जगत् क्षेत्र है जहाँ से व्यक्ति अनुभव संग्रहीत करता है । इस रूप में व्यक्ति भोक्ता हुआ और जगत् भोज्य हुआ । उपरोक्त वर्णित प्रक्रिया में तीन अंग होते हैं । एक अनुभव कर्ता व्यक्ति, इसे प्रमाता कहा जाता है, दो वस्तु-नाम-रूप जिसका वह ज्ञान ग्रहण करता है, इसे प्रमेय कहा जाता है, तीन करण जिसके माध्यम से ज्ञान ग्रहण किया जाता है, इसे प्रमाण कहा जाता है । करण पाँच हैं, चक्क्षु, कर्ण, जिह्वा, घ्राण, त्वचा । पुन: व्यक्ति इन करणो के सहायक के रूप में अन्य बाह्य सहायक करणों का प्रयोग करता है उन्हे उप-करण कहा जाता है । प्रमाता को विषय कहा जायेगा, प्रमेय को वस्तु कहा जायेगा, प्रमाण को माध्यम कहा जायेगा । यह समस्त नित्य के लोक-व्यवहार के अंग है । शास्त्रो के अध्ययन काल में इन्हे त्रिकुटी के नाम से बताया जाता है, प्रमाता-प्रमाण-प्रमेय । यह त्रिकुटी जागृत-दशा, स्वप्न-दशा, सुशुप्ति-दशा तीनो के अध्ययन प्रक्रिया में प्रभावी होती है । यह तीनो दशाये सापेक्ष सत्य की दशाये हैं । पारमार्थिक सत्य इन सभी से विलक्षण होता है..........क्रमश:

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