मिथ्या


पद-परिचय-सोपान
मिथ्या जो सत् है, उसे नकारा नहीं जा सकता है । जो असत् है, उसे नकारने की आवश्यकता नहीं होती है । परन्तु एक तीसरी श्रेणी जो कि माया-कल्पित जगत् के साथ है, कि वह व्यवहार के लिये उपलब्ध है, इसलिये सत्य है, परन्तु उसके सत्यत्व की मीमांसा की जाती है तो वह सत् सिद्ध नहीं होता है । उपरोक्त कथन को एक दृष्टान्त के माध्यम से ग्राह्य बनाने की चेष्टा सार्थक प्रयत्न है । स्वर्ण-आभूषण व्यवहार के लिये उपलब्ध हैं । इसलिये सत्य हैं । परन्तु समस्त स्वर्ण-आभूषणों का सत्यत्व स्वर्ण के आश्रय पर लम्बित है । कंचिद स्वर्ण के सत्यत्व के आभाव में क्या किसी स्वर्ण-आभूषण की कल्पना की जा सकती है ? आपका निश्चयात्मक उत्तर होगा, नहीं सम्भव है । परन्तु फिरभी प्रत्येक व्यक्ति स्वर्ण-आभूषणों के व्यवहारिक प्रयोज्यता के आधार पर उसे सत्य मानता है । यह माया-कल्पित जगत् की सत्य क्षवि है । पारमार्थिक सत्य-ब्रम्ह, इस माया कल्पित जगत् जिसमें जीव-प्रपंच और जड-प्रपंच दोनो सम्मलित हैं, के सत्यत्व का अधिष्ठान है । यह सम्पूर्ण जगत् जिसमें जीव-प्रपंच और जड-प्रपंच दोनो सम्मलित हैं केवल नाम-रूप है । फिरभी लोक-व्यवहार है । यह माया-कल्पित है । इसलिये शास्त्रों में इस लोकव्यवहार के जगत् को सत् और अ-सत् से विलक्षण बताने के लिये एक नये नाम मिथ्या से निरूपित किया है ......... क्रमश:

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