लोक-व्यवहार


पद-परिचय-सोपान
लोकव्यवहार चेतन जीव और अचेतन जड प्रपंच के मध्य क्रिया प्रतिक्रिया लोकव्यवहार है । पद-पदार्थ जगत् के लोकव्यवहार के लिये सहायक वाँक्षना होती है । कारण-स्वर्ण प्रत्येक स्वर्ण-आभूषण कार्य में विद्यमान है, परन्तु यदि प्रत्येक स्वर्ण-आभूषण-कार्य को एक विशिष्ट पद न प्रदान किया जाय तो लोकव्यवहार सम्भव नहीं हो सकता है । केवल कारण स्वर्ण कहने से तो अंगूठी, चेन, और चूडी का अलग अलग बोध सम्भव नहीं हो सकता है । इसलिये लोकव्यवहार के लिये पद-पदार्थ जोडी आवश्यक अवयव होते हैं । यह लोकव्यवहार का जगत् सापेक्ष सत्य है । आश्रित सत्य है । यह माया कल्पित जगत् है । इस लोकव्यवहार का नायक विषय-जीव और वस्तु-रूप-नाम का जड प्रपंच दोनो माया कल्पित अवयव हैं । समस्त लोकव्यवहार एक चल-चित्र के दृष्य के समान, आत्मा के सत्यत्व के परदे पर गति कर रहे हैं । इसलिये इस माया-कल्पित नायक को यदि सत्य की मान्यता प्रदान की जाय, तो जगत् महा-सत्य है । परन्तु यदि आत्मा के सत्यत्व के आधार पर समीक्षा की जाय, तो यह लोक-व्यवहार स्वप्नवद् मिथ्या हैं । जिस अवधि में स्वप्न के दृष्य अनुभव-गम्य होते हैं, उस अवधि में व्यक्ति उन स्वप्न के दृष्यों से प्रभावित होता है, भयभीत होता है, हर्षित होता है, विस्मय करता है । इस लोकव्यवहार के जगत् में प्रत्येक अहंकार पोषित व्यक्ति इस माया कल्पित चल-चित्र के दृष्यों से हर्षित हो रहा है, त्रासित हो रहा है, ...... । जबकि व्यक्ति की आत्मा, जो कि व्यक्ति का स्वरूप है, तो पूर्ण है, आनन्द-स्वरूप है । फिर उपरोक्त वर्णित परिच्छिन्नता, असुरक्षा, भय, हर्ष, शोक यह सब कहाँ से उत्पन्न हो रहे हैं ? उत्तर है, लोक-व्यवहार में रत प्रत्येक अहंकार पोषित व्यक्ति अपने आत्म-स्वरूप से अनभिज्ञ है ........ क्रमश:

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