देवता
पद-परिचय-सोपान
देवता
वैदिक उपदेश देवता को समष्टि के प्रतीक रूप में व्यक्त करते हैं । प्रत्येक समष्टि
अभिव्यक्ति के लिये अलग अलग एक एक देवता को नामित किया जाता है । व्यक्ति के एक एक
अंग का समष्टि भी वर्णन किया जाता है । यथा चक्षु व्यक्ति का दृष्टि अंग है, व्यष्टि है, इसका समष्टि सूर्य-देवता हैं ।
स्थूल-शरीर व्यष्टि है, इसका समष्टि विराट-देवता है । प्राण
व्यष्टि है, इसका समष्टि हिरण्यगर्भ देवता हैं ।
मस्तिष्क व्यष्टि है, इसका समष्टि चन्द्रमा-देवता हैं । वाक्
(बोलने का अंग) व्यष्टि है, अग्नि-देवता इसका समष्टि है । इसी प्रकार
प्रत्येक अंग के लिये हैं । देवता का उपरोक्त वर्णित एक रूप है । एक दूसरा रूप भी
है । उस रूप में देवता भी जीव कोटि से हैं । जीव जिनका पुण्य-संचय अति संवृद्ध हो
जाता है, उन्हे देवता पद दिया जाता है । देवता
शरीर अधिक साधन-युक्त और अधिक भोग में सक्षम होती है । परन्तु पुण्य-क्षीण होने पर
इन्हे पुन: मृत्यु-लोक में जन्म मिलता है । यह मुक्त स्थिति नहीं होती है । केवल
उत्तम-भोग स्थिति है । ......... क्रमश:
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