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मार्च, 2019 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

ब्रम्ह-विचार के साधन

शिक्षण-विधि-सोपान ब्रम्ह-विचार के साधन ब्रम्ह-विचार अति-सूक्ष्म-तत्व का विचार है , इसलिये अति सक्षम मस्तिष्क की आवश्यकता होती है । लोकव्यवहार में संलग्न मस्तिष्क मनो-विकारों से आक्रांत और विक्षेपों की चंचलता से युक्त होता है । उपरोक्त के विपरीत ब्रम्ह-विचार के लिये अति शाश्वत्-शान्त मस्तिष्क की आवश्यकता होती है । मस्तिष्क के चार प्रभाग नामत: मन , बुद्धि , चित्त , अहंकार प्रत्येक के परमार्जन की अपेक्षा होती है । उपरोक्त मन:स्थिति को प्राप्त करने के लिये साधन-चतुष्टय का उल्लेख मिलता है । प्रथम प्रभाग मन , अर्थात् संकल्प-विकल्प प्रभाग की अस्थिरता का निवारण कर , दृढ-निश्चयात्मक स्थिति प्राप्त करने के लिये , विकसित विवेक की वाँक्षना होती है । विक्षेपों के शमन के लिये सांसारिकता के प्रकरणों से वैराग्य की अपेक्षा होती है । वैराग्य की परिभाषा की जाती है , कि राग-द्वेष का शिथलीकरण वैराग्य है । यह भी शान्त मस्तिष्क की अपेक्षा के दिशा में साधन है । पुन: मस्तिष्क के विक्षेप को अनेक भागों में विभक्त करके प्रत्येक विभक्ति को शान्त करने की अनुशंसा की गई है । मन के संकल्प-विकल्प के शमन क...

ब्रम्ह जिज्ञासा

शिक्षण-विधि-सोपान ब्रम्ह जिज्ञासा किसी भी लोकव्यवहार के प्रकरण में जीव-मनुष्य के मन में किसी इच्छा का उदय होता है । तो इच्छा का उदय होने के बाद ही उस व्यक्ति को उस इच्छा का पता चलता है । परन्तु व्यक्ति के हृदय में ब्रम्ह को जानने की जिज्ञासा का उदय का प्रकरण , उपरोक्त वर्णित वस्तु-रूप-सन्सार की किसी इच्छा के प्रकरण से , पूर्णतया भिन्न स्थिति का फल होता है । यह ब्रम्ह-जिज्ञासा का हृदय में उदय होना , एक विशिष्ट मानसिक स्थिति की उपलब्धता पर ही सम्भव हो सकती है । उपरोक्त वर्णित विशिष्ट मानसिक स्थिति का विस्तार इस प्रकार है । विगत में प्रकाशित लेखों में से , तीन रचनागत त्रुटियाँ शीर्षक के लेख की ओर ध्यान निवेदित है । उपरोक्त सन्दर्भित लेख में , माया-कल्पित-मस्तिष्क में रचनागत तीन त्रुटियों का उल्लेख वर्णित है । उपरोक्त लेख में ही संदर्भित तीनो त्रुटियों के निवारण का पथ भी बताया गया है । उपरोक्त सन्दर्भ की प्रथम दो त्रुटियों नामत: एक- मल , और दो- विक्षेप त्रुटियों के निवारण पुरुषार्थ से परिष्कृत मस्तिष्क में , ब्रम्ह जिज्ञासा का उदय होता है । इस स्थल पर यह स्पष्ट करना भी विषय क...

आनन्द स्वरूप

शिक्षण-विधि-सोपान आनन्द स्वरूप मस्तिष्क में वृत्तियों का आभाव लय है । यह सुशुप्ति दशा है । जागृत दशा की प्राप्ति , मस्तिष्क में वृत्तियों का विक्षेप है । यह माया लोक है । पारमार्थिक आत्मा की “ शान्ति ” ही एकमात्र दशा है । यह अनन्त है । अनन्त में किसी विकार की कल्पना सम्भव नहीं है । समस्त विक्षेप माया के क्षेत्र में हैं । माया के क्षेत्र की स्थित वही है जो दर्पण में प्रतिबिम्ब की होती है । इसमें अनुभूति है , व्यवहार है , परन्तु कोई स्थिति नहीं है । जब तक व्यक्ति इन विकारों के साथ संलग्न है , शान्ति उसके लिये दुर्लभ है । दृष्टा , दृष्य , और दृग यह तीनों ही अनुभूति मात्र हैं , इनमें से तीनों का कोई अस्तित्व नहीं है । यही मोंह का जाल है , जिसमें माया शक्ति ने समस्त को बाँध करके रखा है । एक व्यक्ति जंगल में मार्ग भूल गया , रात्रि हुई वह डरा तो हुआ था , परन्तु सोने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था , बेचारा सोया , तो स्वप्न देखता है कि शेर सामने उसे खाने के लिये खडा है , बेचारे के पास उससे बचने के लिये कोई उपाय नहीं था , हारा हुआ वह व्यक्ति उस शेर से पूछता है , कि क्या तुम ...

दृष्टान्त

शिक्षण-विधि-सोपान दृष्टान्त दर्पण के सामने जो होगा , दर्पण उसकी क्षवि दर्शायेगा , यह दर्पण का स्वभाव है । दर्पण में क्षवि की अभिव्यक्ति मात्र है । उस क्षवि से दर्पण पूर्णतया असंग होता है । सामने की वस्तु हट गयी , फिरभी दर्पण को कोई अन्तर नहीं होता है । मस्तिष्क में आत्मा की केवल अभिव्यक्ति मात्र है । यह अभिव्यक्ति ही विभक्त होकर अहंकार और विषय-वस्तु बन जाते हैं । कैसे ? वस्तुरूपबोध व्यक्ति को होता है , इस बोध में दो भाग हैं एक- यह वस्तुरूप है और दो- यह वस्तुरूप मैं नहीं हूँ , द्वैत सृजित हो गया , वस्तुरूप द्वैत का पहला पक्ष और मैं(अहंकार) द्वैत का दूसरा पक्ष है । यही विषय-विषयी का द्वैत है । इस द्वैत के दोनो अवयव विषय और विषयी दोनो मिथ्या हैं । मिथ्या की परिभाषा की जाती है , जो है नहीं उसकी अनुभूति को मिथ्या कहा जाता है । दर्पण में जनित प्रतिबिम्ब का क्या कोई अस्तित्व होता है । उपरोक्त कथित आत्मा की अभिव्यक्ति को सत्य की मान्यता ही , देहात्मभाव है । यह भाव ही व्यक्ति को अपनी आत्मा से दूर कर देता है । आत्मा अद्वय तत्व है । द्वैत दर्शन भ्रामक है । परन्तु सम्पूर्ण लोकव्यवहा...

स्थूल और सूक्ष्म

शिक्षण-विधि-सोपान स्थूल और सूक्ष्म उत्पत्ति का क्रम सूक्ष्म से स्थूल है । ज्ञान का पथ स्थूल से सूक्ष्म है । स्थूल प्रत्येक को नित्य का अनुभव है । सूक्ष्मतम् ब्रम्ह से स्थूल माया शक्ति है , माया शक्ति से स्थूल आकाश है , आकाश से स्थूल वायु है , वायु से स्थूल अग्नि है , अग्नि से स्थूल जल है , जल से स्थूल पृथ्वी है । पंच महाभूतों में सूक्ष्मतम् आकाश केवल एक गुण “शब्द” धारक है , वायु दो गूण “शब्द” और “स्पर्ष” धारक है , अग्नि तीन गुण “शब्द” , “स्पर्ष” , “दृष्य” धारक है , जल चार गुण “शब्द” , “स्पर्ष” , “दृष्य” और “स्वाद” धारक है , स्थूलतम् पृथ्वी पांच गुण “शब्द” , “स्पर्ष” , “दृष्य” , “स्वाद” और गन्ध धारक है । सूक्ष्मतम् आकाश शेष चार महाभूतों से प्रभावित नहीं होता है , अर्थात् वायु आकाश को स्पर्ष नहीं कर सकती है , अग्नि आकाश को जला नहीं सकती है , जल आकाश को गीला नहीं कर सकता है , पृथ्वी आकाश को गन्ध नहीं दे सकती है । इस प्रकार पंचमहाभूतों में आकाश अग्राह्य हो जाता है , तो माया शक्ति आकाश से भी अधिक अग्राह्य है , ब्रम्ह सूक्ष्मतम् है चर्मोत्कर्ष है । असंगता आकाश से ...

अज्ञान- निवृत्ति

शिक्षण-विधि-सोपान अज्ञान- निवृत्ति प्रत्येक व्यक्ति का लोकव्यवहार का जीवन अज्ञान का जीवन है , जो कि व्यक्ति के भ्रान्ति-स्वरूप चेतन अहंकार द्वारा पोषित है । शास्त्र प्रमाण व्यक्ति के ज्ञान-स्वरूप आत्मा और भ्रान्ति-स्वरूप-चेतन अहंकार के भेद को स्पष्ट रूप से दर्शन करा देते हैं । जब व्यक्ति उपरोक्त वर्णित भेद का साक्षात् दर्शन कर लेता है , तो सहज ही वह भ्रान्ति का त्याग करके अपने स्वरूप में स्थापित हो जाता है । ऐसी स्थिति प्राप्त हो जाने पर भी व्यक्ति इस लोकव्यवहार के सन्सार में जीवनयापन करते हुये भी , उस भ्रान्ति कर्तापन और भोग्तापन से विरक्त हो जाता है । सन्सार के सुख-दुख से वह वंचित नहीं होगा , परन्तु उसका उनके साथ राग-द्वेष रूपी संलग्नता क्षीण हो जाती है । भगवद्गीता के उपदेश , ब्रम्हसूत्र के उपदेश , समस्त उपनिषदों के उपदेश उपरोक्त स्थिति प्राप्त करने का पथ निर्दिष्ट करते हैं । यह माया-कल्पित-जगत् की उत्पत्ति का निमित्त जीवों के संचित कर्म-फलों का भोग कराना ही होता है , इसलिये अज्ञान की निवृत्ति हो जाने पर भी , जिन संचित कर्म-फलों के भोग के लिये उसे वर्तमान जीवन मिला है ,...

ज्ञान की प्राप्ति

शिक्षण-विधि-सोपान ज्ञान की प्राप्ति आपकी आत्मा स्वयं ज्ञान स्वरूप है । आत्मा आपको नित्य प्राप्त है । इसलिये ज्ञान की प्राप्ति कोई उपलब्धि रूप में नहीं है , अपितु ज्ञान विषयक अज्ञान की निवृत्ति है । प्रश्न उठेगा कि जब नित्य प्राप्त आत्मा स्वयं ज्ञानस्वरूप है , तो अज्ञान का मूल कहां है । उत्तर है कि अज्ञान का मूल अज्ञान में ही होता है । ज्ञान की दृष्टि से अज्ञान का तो कोई अस्तित्व होता ही नहीं है । प्रश्न उठेगा कि अज्ञान की उत्पत्ति कब हुई है । उत्तर है कि अज्ञान सदैव अनादिकालीन ही होता है । उदाहरण के लिये यदि आपको संस्कृत भाषा का अज्ञान है , तो यह अज्ञान सदैव से ही है , ऐसा तो नहीं है कि एक वर्ष पूर्व संस्कृत भाषा का ज्ञान था और अब आपको संस्कृत भाषा का अज्ञान है । प्रत्येक व्यक्ति को अपने आत्म-स्वरूप का अज्ञान सदैव से है , अनादिकाल से है , यह माया की अद्भुद लीला का फल है । इसलिये ज्ञान-प्राप्ति का अभिप्राय इतना ही होता है , कि व्यक्ति को अपनी ज्ञान-स्वरूप आत्मा की अनन्तता का अज्ञान है , उस अज्ञान की निवृत्ति ही ज्ञान की प्राप्ति है , क्योंकि आपकी ज्ञान-स्वरूप आत्मा तो आपक...

देश-काल-मस्तिष्क

शिक्षण-विधि-सोपान देश-काल-मस्तिष्क देश अर्थात् आकाश का विस्तार व्यापक है , यहाँ तक कि कोई भी व्यक्ति इसकी व्यापकता का साक्षात् नहीं कर सकता है । आकाश अथवा देश की व्यापकता की अभिव्यक्ति मात्र मानसिक कल्पना है । संकोच अथवा विस्तार यह ब्रम्ह का स्वभाव नहीं है । इसी प्रकार काल अर्थात् समय को नित्य कहा जाता है । काल की नित्यता प्रवाही नित्यता है । भूत-काल , वर्तमान-काल , भविष्य-काल यह काल का प्रवाही स्वरूप है । इसी प्रवाही काल में उसकी नित्यता भी प्रवाही नित्यता है । काल की नित्यता का साक्षात् सम्भव नहीं है । काल को देखने के लिये मनुष्य उसके टुकडे करता है , घडी-पल-ऋतुयें-मास-संवतसर आदि परन्तु काल का प्रत्यक्ष सम्भव नहीं है । शास्त्रों में ब्रम्ह को अनन्त उपदेश किया गया है । इसलिये यह संकोच-विस्तार वाला देश और प्रवाही काल यह दोनो ही उस ब्रम्ह की अनन्तता के संकोचक नहीं हो सकते हैं । ब्रम्ह देश-काल का अधिष्ठान है । इसी प्रकार वस्तुरूप जगत् के प्रकरण में कार्य-कारण भाव को ब्रम्ह पर आरोपित किया जाता है । परन्तु नाम-रूप-जगत् का कार्य-कारणत्व भी ब्रम्ह की अनन्तता का संकोचक नहीं हो सकता ह...

विवर्ती उपादानिता

शिक्षण-विधि-सोपान विवर्ती उपादानिता ब्रम्ह किसी भी दशा में बीज़ नहीं बन सकता है । बीज़ बनने के लिये उसमें सन्सकार होने चाहिये , परन्तु ब्रम्ह में कोई सन्सकारिता सम्भव नहीं है । बीज़ बनने के लिये विकारी उसका स्वभाव होना चाहिये , परन्तु ब्रम्ह निर्विकार है । बीज़ बनने के लिये उसमें उपादानिता होनी चाहिये , परन्तु ब्रम्ह में उपादानिता सम्भव नहीं है । उपरोक्तानुसार बीज़ बनने के लिये वाँक्षित समस्त अपेक्षाये ब्रम्ह में अत्यन्ताभाव होने के कारण , ब्रम्ह बीज़ नहीं बन सकता है । यह तो शास्त्रीय विवेचना है । फिरभी ब्रम्ह पर सन्सार वृक्ष का बीज़ होना आरोपित किया जाता है । इतना बडा फैला हुआ सन्सार वृक्ष किसी साधारण बीज़ से सम्भव हुआ नहीं है । इसलिये इस सन्सार वृक्ष का बीज़ होना ब्रम्ह पर आरोपित किया जाता है । यह तार्किकों का मत है । अद्वैत वेदान्त इसकी व्याख्या इस प्रकार करता है , जब तक व्यक्ति अज्ञान के अधिकरण में है तब तक उसके लिये ब्रम्ह इस सन्सार वृक्ष का बीज़ है , परन्तु जब व्यक्ति को आत्म-ज्ञान हो जाता है , तो उस ज्ञानी के लिये यह अनुभवगम्य जगत् ही मिथ्या हो जाता है , इसलिये बीज़त्व का प्र...

निरुपाधिक आत्मदेव

शिक्षण-विधि-सोपान निरुपाधिक आत्मदेव आत्मा की कोई उपाधि नहीं होती है । आत्मा निरुपाधिक है । परन्तु विशुद्ध आत्म-चैतन्य का उपदेश करने के लिये शास्त्र और गुरू जिज्ञासु को समझने के लिये तीन उपाधियाँ नामत: एक- ज्ञान, दो- स्फुरण, तीन- आनन्द को जोडकर आत्मा का उपदेश करते हैं । उपरोक्त तथ्य को प्रारम्भ में ही इसलिये बताना पडता है, कि उपरोक्त उपाधियों को जिज्ञासु कहीं आत्मा की उपाधि न मान बैठे । उपरोक्त कथित उपदेश में प्रयुक्त उपाधियों का विस्तार इस प्रकार है । आत्म-चैतन्य जब मस्तिष्क में प्रगट होता है, तब मस्तिष्क को विषय-रूप-ज्ञान सम्भव होता है । मस्तिष्क में व्याप्त जड विषय वृत्तियाँ   विषय-ज्ञान-बोध में पर्णित हो जाती है । लोक-व्यवहार का यही ज्ञान है । आत्म-चैतन्य मस्तिष्क से विस्तृत होकर ज्ञानेन्द्रियों पर्यन्त और फिर विषय वस्तु पर्यन्त बेध करता है, जिसके फल से विषय भासित होता है, इस समस्त प्रक्रिया को स्फुरण कहा जाता है । आत्म-चैतन्य स्मृति में संचित पाप-पुण्य-रूपी वासना वृत्तियों में जब वेध करता है, तो इसके फल से मस्तिष्क में हर्ष अथवा विषाद का बोध यथा वृत्ति होता है, इसे आनन्द ...

शब्दात्मक जगत्

शिक्षण-विधि-सोपान शब्दात्मक जगत् पदार्थ रूपात्मक है । उनका ज्ञान शब्दात्मक हैं । पदार्थ जगत् है । शब्द जिह्वा हैं । ज्ञानेन्द्रियां सूक्ष्म हैं , ज्ञानेन्द्रियों का स्थूल रूप जगत् है । मन इन्द्रियों से सूक्ष्म है । इन्द्रियां मन का स्थूल हैं । मन ही जगत् के रूप में भासित हो रहा है । ॐ प्रणव है । ॐ सम्पूर्ण जगत् को धारण किये हुये है । प्रणव ध्वनि का आभाव , शान्ति है । ध्वनि की पुनरावृत्ति सम्भव है । शान्ति की पुनरावृत्ति सम्भव नहीं है । शान्ति सत् स्वरूप है । मन में उठने वाले विक्षेप नैसर्गिक नहीं हैं , अपितु सृजित हैं । जिसका सृजन है , उसका अन्त है । यह माया लोक है । प्रकृति विकारात्मक है । पारमार्थिक निर्विकार है । शान्ति पारमार्थिक का स्वभाव है । इसमें कोई गति सम्भव नहीं है । ..... क्रमश:        

सविकल्प निर्विकल्प

शिक्षण-विधि-सोपान सविकल्प निर्विकल्प कार्य कारण से सिद्ध होता है । कारण से कार्य सिद्ध होता है । इस प्रकार कार्य , कारण के आश्रित है , कारण कार्य के आश्रित है । यह सापेक्षता है । मस्तिष्क द्वारा दृष्य जगत् के वस्तु रूपों का ज्ञान दो प्रकार से होता है , एक- वस्तु है , दो- वस्तु नहीं है । वस्तु के होने का ज्ञान है , और वस्तु के अभाव का ज्ञान है । यह विकल्प है । यह मस्तिष्क का सापेक्षता का लोक है । “ मैं हूँ ” इसका कोई विकल्प सम्भव नहीं है । कैसे ? क्या कोई भी अपने न होने का अनुभव कर सकता है । यह निर्विकल्प है । विकल्पों का लोक माया लोक है । निर्विकल्प पारमार्थिक सत्य है । इस निर्विकल्प आत्मा के आश्रय पर ही , विकल्पों की गति होती है । पारमार्थिक कार्य-कारण से विलक्षण है , यद्यपि कि विकल्पों की उत्पत्ति इस निर्विकल्प के आश्रय से होती है । ..... क्रमश:

द्वैत का विज्ञान

शिक्षण-विधि-सोपान द्वैत का विज्ञान जिस प्रकार हिरण्यगर्भ ने रयि-प्राण के युगलों का सृजन करके अपने को सम्पूर्ण जगत् के रूप में विस्तृत किया है , उसी प्रकार जीव का मन द्वैत के जुगल द्वारा भोक्ता और भोज्य का सृजन करता है । मन ही विभक्त होकर विषय और विषयी बंनता है । विषयी अहंकार की स्थिति उसी प्रकार होती है जिस प्रकार दर्पण में सृजित होने वाली क्षवि की होती है । क्षवि अनुभूति होती है , परन्तु वह होती नहीं है । उसी प्रकार अहंकार का कोई अस्तित्व नहीं होता है । स्थूल देह के सत्यत्व की मान्यता द्वारा ही अहंकार का जन्म होता है । यह अहंकार विषय वस्तु के नाम-रूप के आहार से पुष्ट और पोषित होता है । छ: भयों का सृजन होता है , दो स्थूल देह से सम्बन्धित वृद्धा अवस्था , और मृत्यु , दो सूक्ष्म-शरीर से सम्बन्धित भूख और प्यास , दो मन से सम्बन्धित शोक और मोंह होते हैं । इन्ही छ: भयों का निदान के पुरुषार्थ में प्रत्येक का सम्पूर्ण जीवन व्यवहार करता है । उपरोक्त समस्त त्रासदाओं का माया-कल्पित विस्तार है । उपरोक्त में समस्त अवयव मिथ्या हैं । जिनकी केवल अनुभूतियाँ होती हैं , परन्तु वह होते नहीं है...

द्वैत अनुभूति

शिक्षण-विधि-सोपान द्वैत अनुभूति मन ही दो भागो में विभक्ति करके , इदं और अहं बन जाता है । इदं शब्द में , अहं के अतिरिक्त जितना कुछ है , सभी आवृत्त है । यद्यपि कि इदं शब्द का शाब्दिक अर्थ “यह” मात्र है । परन्तु शास्त्रों में प्रयुक्त इदं का अर्थ अहं से भिन्न जितना भी जीव-जगत् है और जितना भी जड-जगत् है सभी समाहित है । जब व्यक्ति अहं के अर्थ में अहंकार को जानता है , तब इदं एक सत्य संसार होता है । ज्ञान की स्थिति में , अहं का अर्थ आत्मा होता है , तब इदं एक मिथ्या अनुभूति मात्र है । उपरोक्त भेद माया की लीला है । माया सत्य को आवृत्त करती है , और फिर जो नहीं है उसकी अनुभूति कराती है । यह समष्टि का चित्रण है । व्यष्टि के प्रकरण में , निद्रा-शक्ति व्यक्ति के जागृत-दशा को आवृत्त करती है , पुन: मिथ्या स्वप्न की अनुभूति कराती है । जिस प्रकार व्यक्ति निद्रा समाप्त होने पर स्वप्न की अनुभूतियों को मिथ्या अनुभव करता है , उसी प्रकार आत्म-ज्ञान की दशा में , यह व्यवहार लोक जगत् केवल नाम-रूप मात्र रह जाता है । इस जगत् का सत्यत्व आत्मा है , जो कि जड प्रपंचों में अपने सत् अंश को व्यक्त करता...

तीन रचनागत त्रुटियाँ

शिक्षण-विधि-सोपान तीन रचनागत त्रुटियाँ माया शक्ति ने जो मस्तिष्क का सृजन जीव प्रपंचों के लिये किया है , उसमें तीन त्रुटियाँ नामत: एक- मल , दो- विक्षेप , तीन- अज्ञान को मस्तिष्क की संरचना में पिरो दिया है । उपरोक्त वर्णित त्रुटियों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है , एक- मल , व्यक्ति का मस्तिष्क “संकल्प-विकल्प” की स्थिति में रहता है , यह करे कि न करे , यह मेरे लिये अनुकूल है नहीं है आदि यह मस्तिष्क का संकल्प-विकल्प है , यह मस्तिष्क का दोष है , यह प्रत्येक व्यक्ति के साथ होता है , दो- विक्षेप , मस्तिष्क चंचल होता है , इसमें गति करने वाली वृत्तियों का प्रवाह प्रचुर रहता है , इसके फल से व्यक्ति का मस्तिष्क किसी एक प्रकरण पर केन्द्रित नहीं हो पाता है , यह भी प्रत्येक व्यक्ति के साथ होता है , तीन- अज्ञान , जैसा की शुरू से बताते आये है कि व्यक्ति अपने स्वरूप अर्थात् आत्म-स्वरूप से अनभिज्ञ रहता है , यह प्रत्येक व्यक्ति के साथ होता है , यह किसी एक व्यक्ति का दोष नहीं है । उपरोक्त वर्णित तीन मूलभूत मस्तिष्क की त्रुटियों के निवारण के लिये पुरुषार्थ करना होता है । श्रुति-भगवत...

भ्रान्ति

शिक्षण-विधि-सोपान भ्रान्ति अज्ञान के फल से भ्रान्ति का उदय होता है । व्यक्ति अपने स्वरूप को जानता नहीं है । उपरोक्त स्वरूप के अज्ञान का फल होता है , कि व्यक्ति मिथ्या अहंकार को अपना स्वरूप जानने लगता है । जब अहंकार को अपना “मैं ” मानने लगता है , तो सामने फैला हुआ मिथ्या जगत् सत्य प्रतीत होने लगता है । उपरोक्त अभिव्यक्ति को समझना अति सरल है । यह सन्सार तब तक ही होता है , जब तक मस्तिष्क क्रियाशील होता है । व्यक्ति की सुशुप्ति में उसका मस्तिष्क लय की दशा में चला जाता है , तो सन्सार कहाँ चला जाता है । व्यक्ति की मूर्छा की स्थिति में सन्सार कहाँ चला जाता है । इस प्रकार यह प्रत्येक का नित्य का अनुभव होते हुये भी व्यक्ति अहंकार पोषित जीवन को ही सत्य मानता है । यह अनादि काल से होता आया है । यह कोई एक व्यक्ति विषेस की भूल नहीं है । अपितु यह माया की महिमा है । अज्ञान को ही सत्य स्वरूप मानकर लोकव्यवहार चलता आया है , चलता जा रहा है । व्यक्ति कहता है कि “हम रहे ना रहें परन्तु यह सन्सार तो रहेगा” यह ज्ञान की दृष्टि से ठीक उलटी अभिव्यक्ति है । सन्सार की उत्पत्ति आत्मा से है । यह शास्त्र उप...

अज्ञान

शिक्षण-विधि-सोपान अज्ञान आत्मा और ब्रम्ह दो नाम हैं , परन्तु तत्व एक है , इस तथ्य की अनभिज्ञता अज्ञान कहा जाता है । भगवान आदिशंकर ब्रम्हसूत्र के भाष्य में लिखते हैं कि प्राण की जीव शरीर में स्थापना आत्मा के आश्रय द्वारा ही सम्भव होती है । प्राण क्रियाशील आत्मा के आश्रय से होता है । पद-परिचय-सोपान में बताया गया था कि प्राण में उन्नीस अवयव नामत: पंच-प्राण , पंच-ज्ञानेन्द्रियाँ , पंच-कर्मेंन्द्रियाँ , मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार युक्त करण मस्तिष्क , निहित होते हैं । जीव का प्राण समष्टि-प्राण-हिरण्यगर्भ का ही अंश है । हिरण्यगर्भ माया-कल्पित-सृजन है । हिरण्यगर्भ पर्यन्त माया-कल्पित-जगत् है । जीव शरीर में प्राण शक्ति आत्मा के आश्रय से ही क्रियाशील होती है । परन्तु जीव कहा जाने वाला प्राणी अर्थात् प्राण-धारक-व्यक्ति अहंकार के चिदाभास चैतन्य से संचालित है । यह प्राणी पूर्णतया सत्-चित्-आनन्द-स्वरूप-आत्मा से अनभिज्ञ होता है । उपरोक्त अनभिज्ञता किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत भूल नहीं है , अपितु नैसर्गिक है । जीव अर्थात् प्राणी का जन्म होता है , मृत्यु होती है , परन्तु आत्मा इस जन्म-मृत्यु-चक...

विषय ही विषय को भोगता है

शिक्षण-विधि-सोपान विषय ही विषय को भोगता है वेदान्त में सिद्धान्त प्रतिपादित है , कि स-धर्मी ही स-धर्मी का भोग करता है । विषय ही विषय का भोग करता है । आत्मा चेतन है , इसलिये चेतन आत्मा किसी भी दशा में जड का भोग नहीं कर सकता है । प्रश्न उठेगें , क्योंकि उपरोक्त व्यक्त सिद्धान्त बुद्धि की ग्राह्यता के लिये थोडा जटिल है । उपरोक्त कथन की व्याख्या इस प्रकार है , यह जड-स्थूल-सूक्ष्म-कारण-शरीर भी ज्ञान अर्थात् चैतन्य अर्थात् आत्म-स्वरूप अर्थात् ज्ञान-स्वरूप की दृष्टि से , अर्थात् ज्ञान में कहिये अथवा आत्म-स्वरूप में कहिये , स्थापित होकर जब इस जड-स्थूल-सूक्ष्म-कारण-शरीर को देखता है तो यह भी विषय ही है । इसीलिये कहा जाता है कि सान्सारिक विषयों का भोग करने के लिये जड-स्थूल-सूक्ष्म-कारण-शरीर की आवश्यकता होती है । पुन: प्रश्न उठेगा कि जड-स्थूल-सूक्ष्म-कारण-शरीर कैसे विषय का भोग करेगा ? तो पुन: वही तादात्म्य की बात सम्मुख हो जाती है । जब कंचिद आत्म-चैतन्य इस जड शरीर के साथ तादात्म्य करता है , तो भोक्ता सृजित हो जाता है । दूसरे शब्दों में अहंकार नाम के चैतन्य को जब स्वीकृति मिलती है , ...

धर्म और धर्मी का विवेक

शिक्षण-विधि-सोपान धर्म और धर्मी का विवेक जैसा की पूर्व के अंक में धर्म और धर्मी शीर्षक के अन्तर्गत धर्म और धर्मी का विश्लेषण प्रस्तुत किया गया था , सामान्य प्रचलित लोकव्यवहार में ह्म प्रत्येक धर्म और धर्मी का विवेक किये बिना ही , एक के धर्म दूसरे पर और दूसरे का धर्म पहले पर आरोपित करते हैं । “ मैं ” शब्द का जब भी प्रयोग किसी भी व्यक्ति द्वारा किया जाता है , तो निश्चय ही उसका अर्थ उस प्रयोग करने वाले व्यक्ति के स्वरूप के ही अर्थ में इसका अर्थ होना चाहिये , परन्तु कोई भी व्यक्ति अपने नित्य के प्रत्येक व्यवहार का विश्लेषण करके देखे कि क्या वह उपरोक्त कथित “ मैं ” शब्द का प्रयोग अपने स्वरूप के अर्थ में करता है , मैं विश्वास के साथ उत्तर लिख रहा हूँ , “ नहीं ” , प्रत्येक व्यक्ति व्यवहार में उस अहंकार को ही “ मैं ” की संज्ञा प्रदान कर रहा है । ‘ मैं ’ तो शाश्वत् चेतन तत्व है परन्तु प्रत्येक व्यक्ति इस शाश्वत् “ मैं ” को इस जड शरीर के साथ , इस जड मस्तिष्क के साथ , इन जड इन्द्रियों के साथ , इस जड वस्तु रूपों के साथ , मस्तिष्क में गति करने वाली जड वृत्तियों के साथ , चित्त में...

धर्म और धर्मी

शिक्षण-विधि-सोपान धर्म और धर्मी विश्लेषण की प्रक्रिया का जो सूत्रपात गत अंक में , विषय और विषयी शीर्षक में किया गया था , उसे सतत् रखते हुये विचार करना है कि धर्म और धर्मी क्या हैं । विषय का धर्म होता है , इन्द्रियों का धर्म होता है , मस्तिष्क का धर्म होता है , और उपरोक्त वर्णित समस्त धर्मों को ओढने वाला , उपरोक्त समस्त धर्मों को अपना धर्म कहने वाला कोई खडा होता है , उसे धर्मी कहा जाता है । वर्तमान संदर्भ में धर्म का अर्थ कंचिद सनातन धर्म आदि के रूप में नहीं लिया जाना अपेक्षित है , अपितु धर्म मायने गुण अथवा विशेषता के रूप में ग्रहण करना अपेक्षित है । विषय धर्म में आयेगा , वस्तु का स्वरूप , उसका रंग आदि अथवा उसके प्रयोजन का माधुर्य आदि भी सम्मलित है । इन्द्रियों के धर्म में आयेगा , आँखे देखती हैं , इसलिये वस्तु विषय के रूपो लावण्य का आहरण मस्तिष्क में आँख इन्द्री के धर्म-तत्परता के आश्रित है , इसी प्रकार मनमोहक संगीत विषय के धर्मों का मस्तिष्क में आहरण कर्ण इन्द्री के धर्म-तत्परता के आश्रित है , आदि अर्थात् शेष इन्द्रियों के धर्मों का विस्तार पाठक स्वयं करें ऐसी अपेक्...

विषय और विषयी

शिक्षण-विधि-सोपान विषय और विषयी यह फैला हुआ माया-कल्पित-जगत् विषय है । इस जगत् का अनुभव करने वाला जीव विषयी है । जीव आत्मा के आश्रय से विषयों का अनुभव-कर्ता बनता है । जड जगत् और चेतन जीव में अन्तर क्या है ? जड को न तो अपना ज्ञान होता है , और नही दूसरे का ज्ञान होता है । चेतन को अपना भी ज्ञान होता है , और दूसरों का भी ज्ञान होता है । चेतन जीव अपनी ज्ञान क्षमता के कारण ही विषयों का भोक्ता होता है । परन्तु इसी स्थल पर एक बडे मर्म को समझने की आवश्यकता है । आत्मा ज्ञान स्वरूप है । वह किसी भी व्यवहार में सम्मलित नहीं होती है । प्रश्न उठता है कि फिर यह विषयी कौन है ? उत्तर है , कि यह विषय जो भोक्ता है , वह माया-कल्पित-मैं है जो कि आत्मा नहीं है , वह अहंकार है । विषय क्या हैं ? विषय की परिभाषा की जाती है , कि जो आत्मा को बाँधता है , वह विषय हैं । यह अति अद्भुद लीला है । जो इस मर्म को समझ जायेगा उसे ज्ञान साधना सरल हो जायेगी । विषय सम्मुख होने पर जीव की इन्द्रियां विषय-ज्ञान मस्तिष्क को कराती हैं । माया-कल्पित-मस्तिष्क जो आत्मा के शाश्वत् चैतन्य से प्रकाशित है , उसी मस्तिष्क मे...