धर्म और धर्मी का विवेक
शिक्षण-विधि-सोपान
धर्म और धर्मी का विवेक जैसा की पूर्व के अंक में धर्म और धर्मी शीर्षक के अन्तर्गत धर्म और
धर्मी का विश्लेषण प्रस्तुत किया गया था, सामान्य प्रचलित लोकव्यवहार में ह्म
प्रत्येक धर्म और धर्मी का विवेक किये बिना ही, एक के धर्म दूसरे पर और दूसरे का धर्म
पहले पर आरोपित करते हैं । “मैं” शब्द का जब भी प्रयोग किसी भी व्यक्ति
द्वारा किया जाता है, तो निश्चय ही उसका अर्थ उस प्रयोग करने
वाले व्यक्ति के स्वरूप के ही अर्थ में इसका अर्थ होना चाहिये, परन्तु कोई भी व्यक्ति अपने नित्य के प्रत्येक व्यवहार का विश्लेषण करके
देखे कि क्या वह उपरोक्त कथित “मैं” शब्द का प्रयोग अपने स्वरूप के अर्थ
में करता है, मैं विश्वास के साथ उत्तर लिख रहा हूँ, “नहीं”, प्रत्येक व्यक्ति व्यवहार में उस अहंकार
को ही “मैं” की संज्ञा प्रदान कर रहा है । ‘मैं’ तो
शाश्वत् चेतन तत्व है परन्तु प्रत्येक व्यक्ति इस शाश्वत् “मैं” को इस जड
शरीर के साथ, इस जड मस्तिष्क के साथ,
इन जड इन्द्रियों के साथ, इस जड वस्तु रूपों के साथ, मस्तिष्क में गति करने वाली जड वृत्तियों के साथ,
चित्त में संचित जड वासना वृत्तियों के साथ जोड कर उन्हे मैं और मेरा कह रहा है कि
नहीं कह रहा है । यदि मेरा उपरोक्त अंकन व्यवहार में सत्य परीक्षित हो रहा है तो
निश्चय ही व्यवहार आत्मा के आधार पर नहीं हो रहा है, अपितु
अहंकार के आधार पर हो रहा है । उपरोक्त वर्णित भेद को अच्छे से समझने की और विचार करने
की आवश्यकता है । ज्ञान के जिज्ञासु के लिये धर्म और धर्मी का विवेक अत्यंत आवश्यक
वाँक्षना है । बिना विचारे व्यक्ति चेतन आत्मा को जड के साथ जोडता है, और इस जड शरीर को, जड मस्तिष्क को, जड इन्द्रियों को, जड वस्तु रूपों को, जड मस्तिष्क की वृत्तियों को, जड वासना वृत्तियों
को मेरा कहके सम्बोधित करता है । उपरोक्त कृत द्वारा व्यक्ति बिना विचारे चेतन
तत्व को जड की संज्ञा के साथ जोडता है । उपरोक्त प्रक्रिया के निवारण द्वारा ही
भ्रान्ति का क्षय सम्भव है । ....... क्रमश:
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