भ्रान्ति
शिक्षण-विधि-सोपान
भ्रान्ति
अज्ञान के फल से भ्रान्ति का उदय होता है । व्यक्ति अपने स्वरूप को जानता नहीं है
। उपरोक्त स्वरूप के अज्ञान का फल होता है, कि व्यक्ति मिथ्या अहंकार को अपना स्वरूप
जानने लगता है । जब अहंकार को अपना “मैं” मानने लगता है, तो सामने फैला हुआ मिथ्या जगत् सत्य प्रतीत होने लगता है । उपरोक्त
अभिव्यक्ति को समझना अति सरल है । यह सन्सार तब तक ही होता है, जब तक मस्तिष्क क्रियाशील होता है । व्यक्ति की सुशुप्ति में उसका
मस्तिष्क लय की दशा में चला जाता है, तो सन्सार कहाँ चला जाता है । व्यक्ति की
मूर्छा की स्थिति में सन्सार कहाँ चला जाता है । इस प्रकार यह प्रत्येक का नित्य
का अनुभव होते हुये भी व्यक्ति अहंकार पोषित जीवन को ही सत्य मानता है । यह अनादि
काल से होता आया है । यह कोई एक व्यक्ति विषेस की भूल नहीं है । अपितु यह माया की
महिमा है । अज्ञान को ही सत्य स्वरूप मानकर लोकव्यवहार चलता आया है, चलता जा रहा है । व्यक्ति कहता है कि “हम रहे ना रहें परन्तु यह सन्सार
तो रहेगा” यह ज्ञान की दृष्टि से ठीक उलटी अभिव्यक्ति है । सन्सार की उत्पत्ति
आत्मा से है । यह शास्त्र उपदेश है । पारमार्थिक सत्य आत्मा है । परन्तु अपने
स्वरूप का अज्ञान ही भ्रान्ति जगत् को सत्यवद् बोध कराता है । ....... क्रमश:
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