ब्रम्ह जिज्ञासा


शिक्षण-विधि-सोपान
ब्रम्ह जिज्ञासा किसी भी लोकव्यवहार के प्रकरण में जीव-मनुष्य के मन में किसी इच्छा का उदय होता है । तो इच्छा का उदय होने के बाद ही उस व्यक्ति को उस इच्छा का पता चलता है । परन्तु व्यक्ति के हृदय में ब्रम्ह को जानने की जिज्ञासा का उदय का प्रकरण, उपरोक्त वर्णित वस्तु-रूप-सन्सार की किसी इच्छा के प्रकरण से, पूर्णतया भिन्न स्थिति का फल होता है । यह ब्रम्ह-जिज्ञासा का हृदय में उदय होना, एक विशिष्ट मानसिक स्थिति की उपलब्धता पर ही सम्भव हो सकती है । उपरोक्त वर्णित विशिष्ट मानसिक स्थिति का विस्तार इस प्रकार है । विगत में प्रकाशित लेखों में से, तीन रचनागत त्रुटियाँ शीर्षक के लेख की ओर ध्यान निवेदित है । उपरोक्त सन्दर्भित लेख में, माया-कल्पित-मस्तिष्क में रचनागत तीन त्रुटियों का उल्लेख वर्णित है । उपरोक्त लेख में ही संदर्भित तीनो त्रुटियों के निवारण का पथ भी बताया गया है । उपरोक्त सन्दर्भ की प्रथम दो त्रुटियों नामत: एक- मल, और दो- विक्षेप त्रुटियों के निवारण पुरुषार्थ से परिष्कृत मस्तिष्क में, ब्रम्ह जिज्ञासा का उदय होता है । इस स्थल पर यह स्पष्ट करना भी विषय के अनुरूप है, कि जिज्ञासा और इच्छा में भेद होता है । इच्छा के प्रकरण में, इच्छा की पूर्ति हेतु कर्म की वाँक्षना होती है । यह अज्ञान का क्षेत्र है । जिज्ञासा शब्द ब्रम्ह-विचार को स्पर्ष करने वाला है, ब्रम्ह जो कि अनन्त-ज्ञान-स्वरूप-आनन्द है, उसके विचार का सामर्थ्य जीव-व्यक्ति के मस्तिष्क में अनुभूति होने वाले चिदाभास चैतन्य में कंचिद नहीं सम्भव हो सकता है । इसलिये ही ब्रम्ह-विचार के लिये एक न्यूनतम मानसिक योग्यता को प्रतिपादित किया गया है, उस क्रम में एक ऐसा मस्तिष्क जो मल, और विक्षेप की त्रुटियों से मुक्त है, वह शाश्वत् सूक्ष्म ब्रम्ह-विचार की जिज्ञासा का स्थल बनता है । उपरोक्त जिज्ञासा के जागृत होने के अनन्तर व्यक्ति श्रवण, मनन, निबिध्यासन के पथ से ब्रम्ह विचार को अग्रसर होता है । उपरोक्त वाँक्षना शास्त्र द्वारा निर्देशित है । ....... क्रमश:

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